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हमें एक ऐसी व्यावहारिक व्याकरण की पुस्तक की आवश्यकता महसूस हुई जो विद्यार्थियों को हिंदी भाषा का शुद्ध लिखना, पढ़ना, बोलना एवं व्यवहार करना सिखा सके। ‘हिंदी व्याकरण‘ हमने व्याकरण के सिद्धांतों, नियमों व उपनियमों को व्याख्या के माध्यम से अधिकाधिक स्पष्ट, सरल तथा सुबोधक बनाने का प्रयास किया है।
अपठित गद्यांश (Unseen Prose Passages) | Apathit Gadyansh In Hindi
लघुत्तरीय प्रारूप:
अपठित गद्यांश की परिभाषा
अपठित का शाब्दिक अर्थ है-जो कभी पढ़ा नहीं गया। जो पाठ्यक्रम से जुड़ा नहीं है और जो अचानक ही हमें पढ़ने के लिए दिया गया हो। अपठित गद्यांश में गद्यांश से संबंधित विभिन्न प्रश्नों के उत्तर देने के लिए कहा जाता है। इस प्रकार इस विषय में यह अपेक्षा की जाती है कि पाठक दिए गए गद्यांश को ध्यानपूर्वक पढ़कर उससे संबद्ध प्रश्नों के उत्तर उसी अनुच्छेद के आधार पर संक्षिप्त रूप में प्रस्तुत करें। प्रश्नों के उत्तर पाठक को स्वयं अपनी भाषा-शैली में देने होते हैं।
अपठित गद्यांश के द्वारा पाठक की व्यक्तिगत योग्यता तथा अभिव्यक्ति क्षमता का पता लगाया जाता है। अपठित का कोई विशेष क्षेत्र नहीं होता। कला, विज्ञान, राजनीति, साहित्य या अर्थशास्त्र किसी भी विषय पर गद्यांश हो सकता है। ऐसे विषयों के निरंतर अभ्यास और प्रश्नों के उत्तर देने से हमारा मानसिक स्तर उन्नत होता है और हमारी अभिव्यक्ति क्षमता में प्रौढ़ता आती है।
विधि एवं विशेषताएँ
- प्रस्तुत अवतरण को मन-ही-मन एक-दो बार पढ़ना चाहिए।
- अनुच्छेद को पुनः पढ़ते समय विशिष्ट स्थलों को रेखांकित करना चाहिए।
- अपठित के उत्तर देते समय भाषा एकदम सरल, व्यावहारिक और सहज होनी चाहिए। बनावटी या लच्छेदार भाषा का प्रयोग करना एकदम अनुचित होगा।
- अपठित से संबंधित किसी भी प्रश्न का उत्तर लिखते समय कम-से-कम शब्दों में अपनी बात कहने का प्रयास करना चाहिए।
- शीर्षक देते समय संक्षिप्तता का विशेष ध्यान रखना आवश्यक है।
अपठित गद्यांश के उदाहरण
निम्नलिखित गद्यांशों के आधार पर दिए गए प्रश्नों के उत्तर दीजिए-
अपठित गद्यांश 1.
अपने देश की सीमाओं की दुश्मन से रक्षा करने के लिए मनुष्य सदैव सजग रहा है। प्राचीन काल में युद्ध क्षेत्र सीमित होता था तथा युद्ध धनुष-बाण, तलवार, भाले आदि द्वारा होता था, परंतु आज युद्धक्षेत्र सीमाबद्ध नहीं है। युद्ध में अंधविश्वास से हटकर वैज्ञानिक दृष्टिकोण अपनाया जा रहा है। आज विज्ञान ने लड़ाई को एक नया मोड़ दिया है। अब हाथी, ऊँट, घोड़ों का स्थान रेल, मोटरगाड़ियों और हवाई जहाजों ने ले लिया है। धनुष-बाण आदि का स्थान बंदूक व तोप की गोलियों और रॉकेट, मिसाइल, परमाणु तथा प्रक्षेपास्त्रों ने ले लिया है और उनके अनुसार राष्ट्र की सीमाओं के प्रहरियों में अंतर आया है।
अब मानव प्रहरियों का स्थान बहुत हद तक यांत्रिक प्रहरियों ने ले लिया है जो मानव से कहीं अधिक सजग, त्रुटिहीन और क्षमतावान् हैं। आधुनिक प्रहरियों में रेडार, सौनार, लौरान, शौरान आदि विशेष उल्लेखनीय हैं। यहाँ रेडार का वर्णन किया जाता है।
रेडार का उपयोग द्वितीय विश्वयुद्ध में प्रारंभ हुआ। ‘रेडार’ शब्द ‘रेडियो डिटेक्शन एंड रेंजिंग के प्रथम अक्षरों से बना है। इसका अर्थ यह भी है कि किसी भी रेडार से एक निश्चित क्षेत्र के अंदर ही वायुयान की स्थिति ज्ञात की जा सकती है। यदि जहाज उस ‘रेंज’ से बाहर है तो पता नहीं लगाया जा सकता। रेडार एक अति लाभदायक व महत्त्वपूर्ण प्रहरी है, जिसमें विद्युत चुंबकीय तरंगों की मदद से उड़ते हुए शत्रु के विमानों की सही स्थिति का ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है।
(अपठित गद्यांश) Apathit Gadyansh Questions And Answers in Hindi
(क) प्राचीन काल और आज के युद्ध में क्या अंतर है?
उत्तर-
प्राचीन काल में युद्ध सीमित होता था तथा युद्ध धनुष-बाण, तलवार, भाले आदि से किया जाता था, परंतु आज का युद्ध क्षेत्र सीमाबद्ध नहीं है। आज वैज्ञानिक दृष्टिकोण को अपनाकर युद्ध किया जाता है।
(ख) विज्ञान की लड़ाई ने कैसा मोड़ लिया है?
उत्तर-
अब हाथी, ऊँट, घोड़ों का स्थान रेल, मोटर गाड़ियों व हवाई जहाज ने ले लिया है। धनुष-बाण, आदि का स्थान बंदूक व तोप की गोलियों और रॉकेट, मिसाइल, परमाणु तथा प्रक्षेपास्त्रों ने ले लिया है।
(ग) मानव प्रहरियों का स्थान अब किसने ले लिया है?
उत्तर-
मानव प्रहरियों का स्थान अब रैजर, सौनार, लौरान-शौरान आदि ने ले लिया है जो मानव से कहीं अधिक सजग, त्रुटिहीन व क्षमतावान है।
(घ) ‘रेडार’ का मुख्य रूप से क्या प्रयोग है?
उत्तर-
किसी भी रेडार से एक निश्चित क्षेत्र के अंदर ही वायुयान की स्थिति ज्ञात की जा सकती है। यदि जहाज उस ‘रेंज’ से बाहर है तो पता नहीं लगाया जा सकता।
(ङ) ‘त्रुटिहीन’ शब्द का वर्ण-विच्छेद कीजिए।
उत्तर-
त् + र् + उ + ट् + इ + ह् + ई + न् + ।
अपठित गद्यांश 2.
यों तो मानव के इतिहास के आरंभ से ही इस कला का सूत्रपात हो गया था। लोग अपने कार्यों या विचारों के समर्थन के लिए गोष्ठियों या सभाओं का आयोजन किया करते थे। प्रचार के लिए भजन-कीर्तन मंडलियाँ भी बनाई जाती थीं। परंतु उनका क्षेत्र अधिकतर धार्मिक, दार्शनिक या भक्ति संबंधी होता था।
वर्तमान विज्ञापन कला विशुद्ध व्यावसायिक कला है और आधुनिक व्यवसाय का एक अनिवार्य अंग है। विज्ञापन के लिए कई साधनों का उपयोग किया जाता है; जैसे-हैंडबिल, रेडियो और दीवार-पोस्टर, समाचार-पत्र, पत्रिकाएँ, बड़े-बड़े साइनबोर्ड और दूरदर्शन।
जब से छपाई का प्रचार-प्रसार बढ़ा तब से इश्तिहार या हैंडबिल का विज्ञापन के लिए प्रयोग आरंभ हुआ। कागज और मुद्रण सुविधा के सुलभ होने से विज्ञापन के इस माध्यम का उपयोग बहुत अधिक लोकप्रिय हुआ। मान लीजिए, साड़ियों की दो समान दुकानें एक ही बाजार में हैं। इनमें से ‘क’ तो इश्तिहार (हैंडबिल) गली-मोहल्ले में बँटवाता है और ‘ख’ हाथ पर हाथ धरे बैठा रहता है, तो परिणाम यह होगा कि ‘क’ का नाम लोगों के मुँह पर चढ़ जाएगा। वह अधिक लोकप्रिय हो जाएगा और उसके माल की बिक्री बहुत बढ़ जाएगी।
बहुत से व्यापारी बहुत बड़े-बड़े विज्ञापन छपवाकर नगर की दीवारों पर चिपकवा देते हैं। बहुत से तो दीवारों पर ही विज्ञापन लिखवा देते हैं। इससे आते-जाते लोगों की नजर उनपर पड़ती है और वह विज्ञापनकर्ता की सेवाओं या वस्तुओं से परिचित हो जाता है। फिर जब उसे आवश्यकता पड़ती है तो विज्ञापनकर्ता का नाम ही उसकी स्मृति में उभरता है।
(क) इतिहास के आरंभ में विज्ञापन कला का क्या स्वरूप था?
उत्तर-
लोग अपने कार्यों या विचारों के समर्थन के लिए गोष्ठियों या सभाओं का आयोजन किया करते थे। प्रचार के लिए भजन-कीर्तन मंडलियाँ भी बनाई जाती थीं।
(ख) वर्तमान में विज्ञापन कला का क्या स्वरूप है?
उत्तर-
आज के समय में यह एक विशुद्ध व्यावसायिक कला है। आधुनिक व्यवसाय का यह एक अभिन्न अंग है। आज इसके लिए कई तरह के साधनों का प्रयोग किया जाता है।
(ग) इश्तहार या हैंडबिल के प्रयोग से विक्रेता को क्या लाभ होता है?
उत्तर-
साड़ियों की दो दुकानें एक समान एक ही बाजार में हैं। यदि उसमें से एक दुकानदार इश्तहार या हैंडबिल का प्रयोग कर अपनी दुकान का प्रचार करेगा तो निश्चित ही उसकी दुकान सामने वाली दुकान से अधिक मशहूर होगी।
(घ) दीवारों पर छपे या लिखे हुए विज्ञापनों से क्या फायदा होता है?
उत्तर-
आते-जाते लोगों की नजर उस पर पड़ती है और वह विज्ञापनकर्ता की वस्तुओं से परिचित हो जाता है। आवश्यकता पड़ने पर उसका नाम उसके जहन में आ जाता है। इसी प्रकार उसका व्यापार बढ़ जाता है।
(ङ) “विज्ञापन’ शब्द का वर्ण-विच्छेद कीजिए।
उत्तर-
व् + इ + ग् + ञ् + आ + प् + अ + न्
अपठित गद्यांश 3.
मानव जीवन के लिए मनोरंजन की अत्यंत आवश्यकता है। मनोरंजन के कार्य तथा साधन कुछ क्षण के ‘लिए मानव जीवन के गहन बोझ को कम करके व्यक्ति में उत्साह का संचालन कर देते हैं। मानव सृष्टि के आरंभ से ही मनोरंजन की आवश्यकता प्राणियों ने अनुभव की होगी और जैसे-जैसे समय व्यतीत होता गया वैसे-वैसे नवीनतम खोज इस अभाव को पूरा करने के लिए की गई।
वर्तमान काल में चारों ओर विज्ञान की तूती बोल रही है। मनोरंजन के क्षेत्र में जितने भी सुंदर अन्वेषण एवं आविष्कार हुए हैं, उनमें सिनेमा (चलचित्र) भी एक है। चलचित्र का आविष्कार 1890 ई० में टामस एल्वा एडीसन द्वारा अमेरिका में किया गया। जनसाधारण के सम्मुख सिनेमा पहली बार लंदन में ‘लुमेर’ द्वारा उपस्थित किया गया। भारत में पहले सिनेमा के संस्थापक ‘दादा साहब फाल्के’ समझे जाते हैं।
उन्होंने पहला चलचित्र 1913 में बनाया। भारतीय जनता ने इसकी भूरि-भूरि प्रशंसा की। आज इस व्यवसाय पर करोड़ों रुपया लगाया जा रहा है और विश्व में भारत का स्थान इस क्षेत्र में प्रथम है। _पहले-पहल चलचित्र जगत में केवल मूक चित्रों का ही निर्माण होता था। बाद में इसमें ध्वनिकरण होता गया।
चलचित्र निर्माण में कैमरे का एक महत्वपूर्ण स्थान है। यह कैमरा एक विशेष प्रकार का बना होता है।
(क) मानव जीवन के लिए मनोरंजन क्यों आवश्यक है?
उत्तर-
मनोरंजन के साधन कुछ क्षण के लिए मानव जीवन के गहन बोझ को कम कर देते हैं। व्यक्ति में उत्साह का संचार कर देते हैं। उनके दुखों को खत्म कर देते हैं।
(ख) चलचित्र का आविष्कार कब और किसने किया?
उत्तर-
चलचित्र का आविष्कार 1890 ई० में ‘थामस एल्वा एडीसन’ द्वारा किया गया। इन्होंने ‘लुमैर’ नामक पहली फिल्म बनाई।
(ग) भारत में सिनेमा के पहले संस्थापक कौन थे तथा कैसे?
उत्तर-
भारत में सिनेमा के पहले संस्थापक ‘दादा साहब फाल्के’ थे। उन्होंने पहला चलचित्र 1913 में बनाया। जिसकी प्रशंसा भारत के सभी लोगों ने की।
(घ) पहले-पहल किस प्रकार की फिल्मों का निर्माण किया गया?
उत्तर-
सबसे पहले मूक फिल्मों का निर्माण किया गया। बनने के बाद इसमें ध्वनिकरण किया गया। ध्वनि का प्रयोग स्वयं गायक-गायिका अपनी आवाज़ में किया करते थे।
(ङ) निम्नलिखित वर्षों की संख्या को शब्दों में लिखिए 1890, 1913
उत्तर-
1890-अठारह सौ नब्बे, एक हजार आठ सौ नब्बे।
1913-उन्नीस सौ तेरह, एक हजार नौ सौ तेरह।
अपठित गद्यांश 4.
मेरी माँ कहती है कि जिस तरफ़ दुनिया चल रही है, हमें भी उसी तरफ़ चलना चाहिए। उसने कभी स्वतंत्रता पर अंकुश नहीं लगाया, बल्कि खुद को उन्होंने मेरे अनुरूप बदला है। एक रूढ़िवादी परिवार से ऊँचा उठकर उन्होंने सोचा, जिया और हमें जीना सिखाया। मुझे यह कहते हुए ज़रा भी संकोच नहीं होता कि मेरे माता-पिता मुझसे कहीं ज्यादा आधुनिक विचारधारा वाले व्यक्ति हैं और मुझे उन पर गर्व है। मुझे लगता है कि अपने बच्चों के लिए हर माँ सबसे ज्यादा साहसी और निर्भीक होती है। वह सबसे ज्यादा तरक्कीपसंद होती है। वह नए ज़माने की माँ हो या पुराने ज़माने की, अपने बच्चों को वह तमाम बंधनों से मुक्त करना चाहती है और उन्हें आज़ाद परिंदों की तरह खुला आसमान देना चाहती है।
माँएँ अपनी फ़ितरत से ही तरक्कीपसंद होती हैं, क्योंकि वे बच्चे के साथ-साथ दोबारा विकसित होती हैं। यह बच्चे को पालने और उसे विकसित करने की उनकी मूल प्रवृत्ति है जो उन्हें अपनी आदतों और अपने मूल्यों को नए सिरे से गढ़ने के लिए प्रेरित करती है। आपने शायद गोर्की का उपन्यास ‘माँ’ पढ़ा हो। वह माँ अनपढ़ है, लेकिन इसके बावजूद वह समझ पाती है कि उसका बेटा क्या कर रहा है और क्यों कर रहा है।
मेरा ख़याल है कि माँ को नए या पुराने मॉडल में रखकर नहीं देखा जा सकता है। हाँ, औरत की अपनी निजी शख्सियत को देखा जा सकता है-वह ब्रिटेन की होगी तो स्कर्ट पहन सकती है; बेतिया की होगी तो साड़ी पहन सकती है और यदि बेंगलूरु की होगी तो पढ़ी-लिखी इंजीनियर हो सकती है। बनारस की होगी तो किसी मंदिर में पूजा करती हो सकती है, लेकिन माँ के तौर पर तो वह एक जैसी ही होगी। अपने शिशु का चेहरा देखकर उसकी ज़रूरतों को जान लेने की उसकी मूल प्रवृत्ति होती है।
(क) अपनी माँ के विषय में लेखक ने क्या कहा है?
उत्तर-
लेखक कहते हैं कि माँ जिस तरफ दुनिया चल रही है, हमें भी उसी तरफ चलने को कहती हैं। उन्होंने सदैव एक रूढ़िवादी परिवार से ऊँचा उठकर सोचा, जिया और हमें जीना सिखाया।
(ख) अपने बच्चों के लिए माँ कैसी होती है?
उत्तर-
अपने बच्चों के लिए हर माँ सबसे ज्यादा साहसी और निर्भीक होती है। वह सबसे ज्यादा तरक्की पसंद होती है। वह बच्चों को तमाम बंधनों से मुक्त करना चाहती है।
(ग) बच्चों के जीवन के साथ माँ के जीवन में क्या परिवर्तन आता है?
उत्तर-
माँ बच्चों के साथ-साथ दोबारा विकसित होती हैं। यह बच्चे को पालने और उसे विकसित करने की उनकी मूल प्रवृत्ति है जो उन्हें अपनी आदतों और मूल्यों को नए सिरे से गढ़ने के लिए प्रेरित करती है।
(घ) माँ को सदैव किस रूप में देखा जा सकता है?
उत्तर-
चाहे ब्रिटेन की हो या बेतिया की या बेंगलूरु की, माँ के तौर पर तो सब एक जैसी ही होती हैं। माँ में अपने शिशु का चेहरा देखकर उसकी ज़रूरतों को जान लेने की मूल प्रवृत्ति होती है।
(ङ) “विकसित’ तथा ‘शख्सियत’ शब्दों में से प्रत्यय और मूल शब्द अलग कीजिए।
उत्तर-
विकास + इत, शख्स + इयत।
अपठित गद्यांश 5.
हर व्यक्ति में एक समूचा ब्रह्मांड वैसे ही बसा है जैसे छोटे से बीज में पूरा वृक्ष छिपा है। आदमी इस ‘ब्रह्मांड की रचनात्मक और क्रियात्मक इकाई है। इस बात से विज्ञान भी सहमत है। वैज्ञानिक कहते हैं कि विश्व के प्रत्येक जीव की क्रिया और उसका स्वभाव अलग-अलग होता है। किन्हीं भी दो में एकरूपता नहीं होती। विभिन्न प्राणियों का समावेश ही संसार है।
इसी प्रकार से करोड़ों कोशिकाओं (सेल्स) से इस शरीर का निर्माण हुआ है। प्रत्येक का स्वभाव तथा कर्म भिन्न है, फिर भी यह मानव शरीर बाहर से एक दिखाई पड़ता है। प्रत्येक कोशिका जीवित है। कुछ सुप्त अवस्था में हैं, तो कुछ जाग्रत में। जैसे ही कुछ कोशिकाएँ मरती हैं, उनका स्थान दूसरी कोशिकाएँ स्वतः ले लेती हैं। सभी अपने-अपने काम में सतत लगी हुई हैं। वे कभी विश्राम नहीं करतीं। यदि इनमें से एक भी कोशिका काम करना बंद कर दे, तो इस शरीर का अस्तित्व ही खतरे में पड़ जाएगा।
हालाँकि ये कोशिकाएं कार्य में तथा व्यवहार में एक-दूसरे से भिन्न हैं, परंतु ध्यान की विधि द्वारा इनमें उसी प्रकार सामंजस्य स्थापित किया जा सकता है जैसे सूर्य की किरणें चारों तरफ़ फैली होने के बावजूद, वे सौर बैटरी द्वारा एकत्र कर विद्युत तरंगों में बदली जा सकती हैं। जिस प्रकार आप इन्हें एक जगह एकत्र कर, केंद्रित और नियंत्रित कर बड़े-से-बड़ा काम ले सकते हैं ठीक उसी तरह से आदमी ध्यान के माध्यम से शरीर की सभी कोशिकाओं की ऊर्जा को एकत्र कर ऊर्ध्वगामी कर लेता है। यदि एक क्षण के लिए भी ऐसा कर पाया तो उतने में ही वह नई शक्ति, नए ओज से भर जाता है। जैसे-जैसे ध्यान की अवधि बढ़ने लगती है, ध्यान टिकने लगता है, वैसे-वैसे उसमें परिवर्तन होने लगता है।
(क) हर व्यक्ति में क्या बसा है? उदाहरण देकर स्पष्ट कीजिए।
उत्तर-
हर व्यक्ति में एक समूचा ब्रह्मांड वैसे ही बसा है जैसे छोटे से बीज में पूरा वृक्ष छिपा है। आदमी इस ब्रह्मांड की रचनात्मक और क्रियात्मक इकाई है। इस बात से विज्ञान भी सहमत है।
(ख) वैज्ञानिक किस बात से सहमत हैं?
उत्तर-
वैज्ञानिक इस बात से सहमत हैं कि प्रत्येक जीव की क्रिया और स्वभाव दोनों समान होते हैं। किन्हीं भी दो जीवों में एकरूपता नहीं होती। विभिन्न प्राणियों का समावेश ही संसार है।
(ग) कोशिकाओं के बारे में परिच्छेद में क्या बताया गया है?
उत्तर-
हमारे शरीर में करोड़ों कोशिकाएँ हैं। प्रत्येक का स्वभाव तथा कर्म भिन्न है। प्रत्येक कोशिका जीवित है। कुछ सुप्त अवस्था में हैं तो कुछ जाग्रत। वे कभी विश्राम नहीं करतीं।
(घ) व्यक्ति नए ओज और नई शक्ति से किस प्रकार भर जाता है?
उत्तर-
व्यक्ति ध्यान के माध्यम से शरीर की सभी कोशिकाओं की ऊर्जा को एकत्र कर ऊर्ध्वगामी कर एक ही क्षण में नई ओज और नई शक्ति से भर जाता है। जैसे-जैसे ध्यान की अवधि बढ़ने लगती है, ध्यान टिकने लगता है, वैसे-वैसे उसमें परिवर्तन होने लगता है।
(ङ) “वैज्ञानिक’ तथा ‘एकरूपता’ शब्दों में से मूल शब्द तथा प्रत्यय अलग करके लिखिए।
उत्तर-
विज्ञान + इक तथा एकरूप + ता।
अपठित गद्यांश 6.
शीलयुक्त व्यवहार मनुष्य की प्रकृति और व्यक्तित्व को उद्घाटित करता है। उत्तम, प्रशंसनीय और पवित्र आचरण ही शील है। शीलयुक्त व्यवहार प्रत्येक व्यक्ति के लिए हितकर है। इससे मनुष्य की ख्याति बढ़ती है। शीलवान व्यक्ति सबका हृदय जीत लेता है। शीलयुक्त व्यवहार से कटुता दूर भागती है। इससे आशंका और संदेह की स्थितियाँ कभी उत्पन्न नहीं होतीं। इससे ऐसे सुखद वातावरण का सृजन होता है, जिसमें सभी प्रसन्नता का अनुभव करते हैं। शीलवान व्यक्ति अपने संपर्क में आने वाले सभी लोगों को सुप्रभावित करता है। शील इतना प्रभुत्वपूर्ण होता है कि किसी कार्य के बिगडने की नौबत नहीं आती।
अधिकारी-अधीनस्थ, शिक्षक-शिक्षार्थी, छोटों-बड़ों आदि सभी के लिए शीलयुक्त व्यवहार समान रूप से आवश्यक है। शिक्षार्थी में यदि शील का अभाव है तो वह अपने शिक्षक से वांछित शिक्षा प्राप्त नहीं कर सकता। शीलवान अधिकारी या कर्मचारी में आत्मविश्वास की वृद्धि स्वतः ही होने लगती है और साथ ही उनके व्यक्तित्व में शालीनता आ जाती है। इस अमूल्य गुण की उपस्थिति में अधिकारी वर्ग और अधीनस्थ कर्मचारियों के बीच, शिक्षकगण और विद्यार्थियों के बीच तथा शासक और शासित के बीच मधुर एवं प्रगाढ़ संबंध स्थापित होते हैं और प्रत्येक वर्ग की कार्यकुशलता में वृद्धि होती है। इस गुण के माध्यम से छोटे-से-छोटा व्यक्ति बड़ों की सहानुभूति अर्जित कर लेता है।
शील कोई दुर्लभ और दैवी गुण नहीं है। इस गुण को अर्जित किया जा सकता है। पारिवारिक संस्कार इस गुण को विकसित और विस्तारित करने में बहुत बड़ी भूमिका अदा करते हैं। मूल भूमिका तो व्यक्ति स्वयं अदा करता है। चिंतन, मनन, सत्संगति, स्वाध्याय और सतत अभ्यास से इस गुण की सुरक्षा और इसका विकास होता है।
(क) शीलयुक्त व्यवहार की क्या विशेषता है?
उत्तर-
शीलयुक्त व्यवहार व्यक्ति के लिए हितकर होता है। इससे मनुष्य की ख्याति बढ़ती है। वह सबका हृदय जीत लेता है। शीलयुक्त व्यवहार से कटुता दूर भागती है।
(ख) शीलवान व्यक्ति की क्या विशेषता होती है?
उत्तर-
शीलवान व्यक्ति अपने संपर्क में आने वाले सभी लोगों को सुप्रभावित करता है। शील इतना प्रभुत्वपूर्ण होता है कि किसी कार्य के बिगड़ने की नौबत नहीं आती।
(ग) किस-किस के लिए शीलयुक्त व्यवहार समान रूप से आवश्यक है?
उत्तर-
अधिकारी-अधीनस्थ, शिक्षक-शिक्षार्थी, छोटों-बड़ों आदि सभी के लिए शीलयुक्त व्यवहार समान रूप से आवश्यक है। शिक्षार्थी में यदि शील का अभाव है तो वह अपने शिक्षक से वांछित शिक्षा प्राप्त नहीं कर सकता।
(घ) शालीनता जैसे गुण की उपस्थिति के क्या फायदे हैं?
उत्तर-
इस अमूल्य गुण की उपस्थिति में अधिकारी वर्ग और अधीनस्थ कर्मचारियों के बीच, शिक्षकगण और विद्यार्थियों के बीच तथा शासक और शासित के बीच मधुर एवं प्रगाढ़ संबंध स्थापित होते हैं तथा कार्यकुशलता में वृद्धि होती है।
(ङ) शील को विकसित और विस्तारित करने में सबसे बड़ी भूमिका कौन अदा करता है?
उत्तर-
शील को विकसित और विस्तारित करने में पारिवारिक संस्कार सबसे बड़ी भूमिका अदा करता है। मूल भूमिका व्यक्ति स्वयं अदा करता है।
अपठित गद्यांश 7.
तानाशाह जनमानस के जागरण को कोई महत्त्व नहीं देता। उसका निर्माण ऊपर से चलता है, किंतु यह लादा हुआ भार-स्वरूप निर्माण हो जाता है। सच्चा राष्ट्र-निर्माण वह है, जो जनमानस की तैयारी पर आधारित रहता है। योजनाएँ शासन और सत्ता बनाएँ, उन्हें कार्यरूप में परिणत भी करें; किंतु साथ ही उन्हें चिर-स्थायी बनाए रखने एवं पूर्णतया उद्देश्य-पूर्ति के लिए यह आवश्यक है कि जनमानस उन योजनाओं के लिए तैयार हो। स्पष्ट शब्दों में हम कह सकते हैं, कि सत्ता राष्ट्र-निर्माण रूपी फसल के लिए हल चलाने वाले किसान का कार्य तो कर सकती है, किंतु उसे भूमि जनमानस को ही बनानी पड़ेगी।
अन्यथा फसल या तो हवाई होगी या फिर गमलों की फसल होगी; जैसा आजकल ‘अधिक अन्न उपजाओ’ आंदोलन के कर्णधार भारत के मंत्रिगण कराया करते हैं। इस फसल को किस-किस बुभुक्षित के सामने रखेगी शासन-सत्ता? यह प्रश्न मस्तिष्क में चक्कर ही काटा करता है। इस विवेचन से हमने राष्ट्र-निर्माण में जनमानस की तैयारी का महत्त्व पहचान लिया है। यह जनमानस किस प्रकार तैयार होता है? इस प्रश्न का उत्तर आपको समाचार-पत्र देगा। निर्माण-काल में यदि समाचार-पत्र सत्समालोचना से उतरकर ध्वंसात्मक हो गया तो निश्चित रूप से वह कर्तव्यच्युत हो जाता है, किंतु सत्समालोचना निर्माण के लिए उतनी ही आवश्यक है, जितना निर्माण का समर्थन।
जनमानस को तैयार करने के लिए समाचार-पत्र किस नीति को अपनाएँ? यह प्रश्न अपने में एक विवाद लिए हुए है; क्योंकि भिन्न-भिन्न समाचार-पत्र भिन्न-भिन्न नीतियों को उद्देश्य बनाकर प्रकाशित होते हैं। यहाँ तक कि राष्ट्र-निर्माण की योजनाएँ भी उनके मस्तिष्क में भिन्न-भिन्न होती हैं।
(क) सच्चा राष्ट्र-निर्माण किसे कहा गया है?
उत्तर-
सच्चा-राष्ट्र-निर्माण वही होता है जो जनमानस की तैयारी पर आधारित रहता है। इस बात का भी ध्यान रखना आवश्यक है कि जनमानस उन सभी योजनाओं के लिए मन से तैयार हो।
(ख) शासन और सत्ता को लेखक ने क्या हिदायत दी है?
उत्तर-
लेखक के अनुसार शासन और सत्ता योजनाएँ अवश्य बनाएँ, उन्हें कार्यरूप में परिणत भी करें; किंतु साथ ही उन्हें चिर-स्थायी बनाए रखने एवं पूर्णतया उद्देश्य-पूर्ति के लिए यह आवश्यक है कि जनमानस उन योजनाओं के लिए तैयार हों।
(ग) राष्ट्र-निर्माण में जनमानस की आवश्यकता पर लेखक क्या कहते हैं?
उत्तर-
लेखक के अनुसार सत्ता राष्ट्र-निर्माण रूपी फसल के लिए हल चलाने वाले किसान का कार्य तो कर सकती है, किंतु उसे भूमि जनमानस को ही बनाना होगा। अन्यथा फसल या तो हवाई होगी या फिर गमलों की फसल।
(घ) समाचार-पत्र जनमानस किस प्रकार तैयार करता है?
उत्तर-
जनमानस तैयार करने के लिए समाचार-पत्र सत्समालोचना का सहारा लेकर आगे बढ़े। यदि वह ऐसा नहीं करता तो वह कर्तव्यच्युत हो जाता है, क्योंकि सत्समालोचना निर्माण के लिए उतनी ही आवश्यक है, जितना निर्माण का समर्थन।
(ङ) ‘इत’ प्रत्यय से बने दो शब्द परिच्छेद से ढूँढकर लिखिए।
उत्तर-
आधारित, प्रकाशित।
अपठित गद्यांश 8.
मैं इस निर्णय पर पहुँच चुका हूँ कि उस आदमी से समूची मनुष्य जाति की तरफ़ से प्रार्थना करूँ कि वह यह वसीयत करे कि मेरी लाश जलाई न जाए, बल्कि मेडिकल इंस्टीट्यूट को अध्ययन के लिए दे दी जाए। पूरी बात पढ़ लेने के बाद आप भी इसी निर्णय पर पहुँचेंगे। एक जगह चार-पाँच आदमी बैठे हैं। बात उसी आदमी की हो रही है, जिसकी गिनती शहर के खास लखपतियों में है। पहला कहता है-‘शहर में किसी को यह गौरव हासिल नहीं है कि उसे उस आदमी ने चाय पिलाई हो, पर मैं उसकी चाय पी चुका हूँ।’
सब भौचक्के रह जाते हैं। कहते हैं-‘असंभव! ऐसा हो ही नहीं सकता। उस आदमी ने किसी को धूल का एक कण भी नहीं खिलाया।’ पहला कहता है-‘पर यह सच है। उसने प्रसन्नता से मुझे चाय पिलाई।’ हुआ यह कि मैं उसके भाई की मृत्यु पर शोक प्रकट करने पहुँचा। तुम लोग जानते ही हो, प्रॉपर्टी को लेकर इसका भाई से मुकदमा चल रहा था। इस बीच भाई की मृत्यु हो गई और प्रॉपर्टी इसे मिल गई। मैंने सोचा, आखिर भाई था। इसे दुख तो हुआ ही होगा। मैं फाटक में घुसा तो उसने पूछा-‘कैसे आए?
मैंने उदास होकर कहा-‘आपके भाई की मृत्यु हो गई, ऐसा सुना है।’ वह बोल पड़ा-‘अगर उसकी मौत पर दुख प्रकट करने आए हो तो फाटक के बाहर हो जाओ, पर तुम्हें दुख नहीं है, तो मैं चाय पिला सकता हूँ।’ मैंने कहा- अगर आपको दुख नहीं है, तो मुझे दुख मनाने की क्या पड़ी है। चलो, चाय पिलाओ।’ कुत्ते भी रोटी के लिए झगड़ते हैं, पर एक के मुँह में रोटी पहुँच जाए तो झगड़ा खत्म हो जाता है। आदमी में ऐसा नहीं होता। प्रेम से चाय पिलाई जाती है, तो नफ़रत के कारण भी। घृणा भी आदमी को उदार बना देती है।
(क) उसकी गिनती शहर के खास लखपतियों में क्यों होती होगी?
उत्तर-
उस व्यक्ति ने रूखे और कंजूस व्यवहार के कारण इतनी संपत्ति जमा कर ली होगी, इसलिए उसे खास लखपति माना जाता होगा।
(ख) पहला व्यक्ति उस आदमी के साथ चाय पीकर स्वयं को गौरवान्वित अनुभव क्यों कर रहा था?
उत्तर-
वह व्यक्ति बहुत कंजूस था। वह किसी को धूल का कण भी नहीं देता था। पहला व्यक्ति ही एकमात्र वह व्यक्ति था, जिसने उसके हाथ की चाय पी थी, इसलिए वह अपने को गौरवान्वित अनुभव कर रहा था।
(ग) कुत्ते और मनुष्य में क्या अंतर है?
उत्तर-
जब एक कुत्ते को रोटी मिल जाती है तो वे झगड़ा समाप्त कर देते हैं, पर इसके विपरीत जब एक मनुष्य को संपत्ति मिल जाती है तो वहाँ झगड़ा व घृणा और बढ़ जाती है।
(घ) ‘पूरी बात, पढ़ लेने पर आप भी इसी निर्णय पर पहुंचेंगे।’ क्या आप लेखक से सहमत हैं? कैसे?
उत्तर-
हाँ, हम लेखक से सहमत हैं, क्योंकि प्रायः मनुष्यों का व्यवहार इतना रूखा नहीं होता। उसकी लाश पर शोध करके उसके असामान्य व्यक्तित्व के कारणों का पता लगाया जा सकता है।
(ङ) पाँचों की बात सुनकर लेखक ने क्या निर्णय लिया?
उत्तर-
पाँचों की बात सुनकर लेखक को वह आदमी मनुष्य जाति की अमूल्य निधि लगा, जिस पर मनोवैज्ञानिक दिमाग का अध्ययन कर सकेंगे।
अपठित गद्यांश 9.
काव्य-कला गतिशील कला है; किंतु चित्रण-कला स्थायी कला है। काव्य में शब्दों की सहायता से क्रियाओं और घटनाओं का वर्णन किया जा सकता है। कविता का प्रवाह समय द्वारा बँधा हुआ नहीं है। समय और कविता दोनों ही प्रगतिशील हैं; इसलिए कविता समय के साथ परिवर्तित होने वाली क्रियाओं, घटनाओं और परिस्थितियों का वर्णन समुचित रूप से कर सकती है। चित्रण-कला स्थायी होने के कारण समय के केवल एक पल को-पदार्थों के केवल एक रूप को-अंकित कर सकती है। चित्रण-कला में केवल पदार्थों का चित्रण हो सकता है।
कविता में परिवर्तनशील परिस्थितियों, घटनाओं और क्रियाओं का वर्णन हो सकता है, इसलिए कहा जा सकता है कि कविता का क्षेत्र चित्रकला से विस्तृत है। कविता द्वारा व्यक्त किए हुए एक-एक भाव और कभी-कभी कविता के एक शब्द के लिए अलग चित्र उपस्थित किए जा सकते हैं। किंतु पदार्थों का अस्तित्व समय से परे तो है नहीं, उनका भी रूप समय के साथ बदलता रहता है और ये बदलते हुए रूप बहुत अंशों में समय का प्रभाव प्रकट करते हैं। इसी प्रकार क्रिया और गति, बिना पदार्थों के आधार के संभव नहीं। इस भाँति किसी अंश में कविता पदार्थों का सहारा लेती है और चित्रण-कला प्रगतिवान समय द्वारा प्रभावित होती है, पर यह सब गौण रूप से होता है।
हमने लिखा है कि पदार्थों का चित्रण चित्रकला का काम है, कविता का नहीं। इस पर कुछ लोग आपत्ति कर सकते हैं कि काव्य-कला के माध्यम से अधिक शब्द सर्वशक्तिमान हैं, उनसे जो काम चाहे लिया जा सकता है; पदार्थों के वर्णन में वे उतने ही काम के हो सकते हैं जितने क्रियाओं के, पर यह स्वीकार करते हुए भी कि शब्द बहुत कुछ करने में समर्थ हैं, यह नहीं माना जा सकता कि वे पदार्थों का चित्रण उसी सुंदरता से कर सकते हैं जिस सुंदरता से चित्र।
(क) कविता का क्षेत्र चित्रकला से किस प्रकार विस्तृत है?
उत्तर-
चित्रण-कला स्थायी होने के कारण पदार्थों के केवल एक रूप को तथा समय के एक पल को ही चित्रित कर सकती है, जबकि काव्यकला गतिशील होने के कारण उसमें परिवर्तनशील परिस्थितियों, घटनाओं और क्रियाओं का वर्णन हो सकता है।
(ख) पदार्थों का चित्रण चित्रकला का काम है, कला का नहीं।’ कैसे?
उत्तर-
शब्द पदार्थों का चित्रण उतनी सुंदरता से नहीं कर सकते जितना चित्र कर सकते हैं। पदार्थों को शब्दों द्वारा वर्णित करके चित्र जैसा सुसंबद्ध प्रभाव उत्पन्न नहीं किया जा सकता।
(ग) काव्य-कला और चित्रकला में मुख्य अंतर क्या है?
उत्तर-
काव्य-कला गतिशील है, जबकि चित्रण-कला स्थायी कला है।
(घ) इस पर कुछ लोगों को आपत्ति क्यों हो सकती है कि पदार्थों का चित्रण चित्रकला का काम है, कविता का नहीं?
उत्तर-
आपत्ति का कारण उनका यह सोचना हो सकता है कि काव्य-कला के माध्यम से अधिक, शब्द सर्वशक्तिमान होते हैं, वे क्रियाओं के समान पदार्थों के वर्णन भी प्रभावी ढंग से कर सकते हैं। अतः कविता भी चित्रकला के समान पदार्थों का चित्रण कर सकती है।
(ङ) चित्र को देखकर मन पर क्या प्रभाव पड़ता है?
उत्तर-
चित्र को देखते ही हम चित्र को भूलकर चित्रित पदार्थ को अपनी आँखों के सामने देखने लगते हैं।
अपठित गद्यांश 10.
हरिद्वार स्टेशन पर श्यामलाकांत जी का बड़ा लड़का दीनानाथ मुझे लेने आया था। उसे अपनी पढ़ाई पूरी किए दो -वर्ष हो गए हैं, तभी से नौकरी की तलाश में भटक रहा है। मैंने पूछा-‘अब तो जगह-जगह रोज़गार कार्यालय खुल गए हैं, उनकी सहायता क्यों नहीं लेते?’ कहने लगा-चाचा जी वहाँ भी गया था, पूरे दिन लाइन में खड़ा रहने पर जब मेरी बारी आई तो अफ़सर बोला-‘भाई! नाम तो तुम्हारा लिख लेता हूँ, पर जल्दी नौकरी पाने की कोई आशा मत करना। तुम्हारी योग्यता के हज़ारों व्यक्ति पहले से इस कार्यालय में नाम दर्ज करा चुके हैं।’ मैं सोचने लगा जब एक छोटे शहर का यह हाल है, तो पूरे देश में बेरोजगारों की कितनी भीड़ भटक रही होगी?
घर पहुँचा तो छोटे-से मकान में सामान की ठूसमठास और बच्चों की भीड़ देखकर मेरा दम घुटने लगा। मैंने श्यामला बाबू से पूछा- क्या तुम्हारे पास यही दो कमरे हैं?’ वे बोले- क्या करूँ मित्र! दो वर्ष पहले इस शहर में आया था। तभी से मकान की तलाश में भटक रहा हूँ।
अब यही देखिए न! मेरी तबीयत भी ढीली ही रहती है। सोचा था विवाह के कपड़े दरजी से सिलवा लूँगा। बड़े बेटे को दरज़ी के यहाँ भेजा, लेकिन वह जिस किसी भी दुकान पर गया, हर दरजी ने पहले से सिलने आए कपड़ों का ढेर दिखाकर अपनी मज़बूरी जाहिर कर दी। पहले ग्राहक का स्वागत होता था, अब उसे भी चिरौरी-सी करनी पड़ती है, फिर भी समय पर काम नहीं होता। दुकानें पहले से कहीं अधिक खुल गई हैं, लेकिन ग्राहकों की बढ़ती हुई भीड़ के लिए वे अब भी कम पड़ रही हैं।’
(क) दीनानाथ की बात सुनकर अफसर ने क्या कहा?
उत्तर-
अफसर ने कहा-भाई! नाम तो तुम्हारा लिख लेता हूँ, पर जल्दी नौकरी पाने की कोई आशा मत करना। तुम्हारी योग्यता के हजारों व्यक्ति पहले से इस कार्यालय में नाम दर्ज करा चुके हैं।
(ख) श्यामलाकांत ने लड़के को क्या सुझाव दिया और लड़के ने क्या कहा?
उत्तर-
श्यामलाकांत ने लड़के से कहा कि अब तो जगह-जगह रोजगार कार्यालय खुल गए हैं, उनकी सहायता लीजिए। इस बात पर लड़के ने उन्हें अफ़सर द्वारा कही गई बात बताई।
(ग) श्यामलाकांत के घर पहुँचकर लेखक का दम क्यों घुटने लगा था?
उत्तर-
लेखक का दम घुटने लगा था, क्योंकि श्यामलाकांत के छोटे से घर में सामान का अंबार व केवल बच्चों की भीड़ ही दिखाई दे रही थी। दो कमरे के घर में पैर रखने को भी जगह नहीं थी।
(घ) शादी के लिए कपड़े क्यों नहीं सिल पा रहे थे?
उत्तर-
हर दरजी के पास पहले से ही सिलने वाले कपड़ों का ढेर लगा था। सबके पास समय की कमी थी। ग्राहकों की बढ़ती हुई भीड़ के लिए दुकानें अब भी कम पड़ रही थीं।
(ङ) सब समस्याओं का कारण क्या है?
उत्तर-
सब समस्याओं का कारण बढ़ती हुई अनियंत्रित आबादी है।
अपठित गद्यांश 11.
यह वास्तव में आश्चर्य का विषय है कि हम अपने साधारण कार्यों के लिए करने वालों में जो योग्यता देखते ‘हैं, वैसी योग्यता भी शिक्षकों में नहीं ढूँढते। जो हमारी बालिकाओं, भविष्य की माताओं का निर्माण करेंगे उनके प्रति हमारी उदासीनता को अक्षम्य ही कहना चाहिए। देश-विशेष, समाज-विशेष तथा संस्कृति-विशेष के अनुसार किसी के मानसिक विकास के साधन और सुविधाएँ उपस्थित करते हुए उसे विस्तृत संसार का ऐसा ज्ञान करा देना ही शिक्षा है, जिससे वह अपने जीवन में सामंजस्य का अनुभव कर सके और उसे अपने क्षेत्र-विशेष के साथ ही बाहर भी उपयोगी बना सके।
यह महत्त्वपूर्ण कार्य ऐसा नहीं है जिसे किसी विशिष्ट संस्कृति से अनभिज्ञ चंचल चित्त और शिथिल चरित्र वाले व्यक्ति सुचारु रूप से संपादित कर सकें, परंतु प्रश्न यह है कि इस महान उत्तरदायित्व के योग्य व्यक्ति कहाँ से लाए जाएँ? पढ़ी-लिखी महिलाओं की संख्या उँगलियों पर गिनने योग्य है और उनमें भी भारतीय संस्कृति के अनुसार शिक्षिताएँ बहुत कम हैं, जो हैं उनके जीवन के ध्येयों में इस कर्तव्य की छाया का प्रवेश भी निषिद्ध समझा जा सकता है।
कुछ शिक्षिका वर्ग की उच्छृखलता समझी जाने वाली स्वतंत्रता के कारण कारण और कछ अपने संकीर्ण दष्टिकोण के कारण अन्य महिलाएँ अध्यापन कार्य तथा उसे जीवन का लक्ष्य बनाने वालियों को अवज्ञा और अनादर की दृष्टि से देखने लगी हैं, अतः जीवन के आदि से अंत तक कभी किसी अवकाश के क्षण में उनका ध्यान इस आवश्यकता की ओर नहीं जाता, जिसकी पूर्ति पर उनकी संतान का भविष्य निर्भर है। अपने सामाजिक दायित्वों को समझा जाना चाहिए। यह समाज में आज सबसे बड़ी कमी है।
(क) हम कैसी योग्यता भी अपने शिक्षकों में नहीं ढूँढ़ते?
उत्तर-
साधारण से लोगों में पाई जाने वाली योग्यता भी हम अपने शिक्षकों में नहीं ढूँढते।
(ख) शिक्षा वास्तव में क्या है?
उत्तर-
मानसिक विकास के साधन उपलब्ध कराते हुए विस्तृत संसार का ज्ञान करा देना जिससे वह अपने जीवन में सामंजस्य का अनुभव कर सके उसे शिक्षा कहते हैं।
(ग) भारत में शिक्षित महिलाओं की संख्या कितनी है?
उत्तर-
भारत में शिक्षित महिलाओं की संख्या उँगलियों पर गिनी जा सकती है।
(घ) आज समाज में सबसे बड़ी कमी क्या है?
उत्तर-
आज समाज में सबसे बड़ी कमी है कि लोग व्यक्तिगत स्वार्थों को महत्त्व देते हैं, सामाजिक दायित्व को नहीं।
(ङ) “ता’ प्रत्यय से बनने वाले दो शब्द गद्यांश से छाँटकर लिखिए।
उत्तर-
स्वतंत्रता, आवश्यकता।
अपठित गद्यांश 12.
का जनसंख्या की वृद्धि भारत के लिए आज एक विकट समस्या बन गई है। यह समाज की सुख-संपन्नता के लिए एक भयंकर चुनौती है। महानगरों में कीड़े-मकोड़ों की भाँति अस्वास्थ्यकर घोंसलों में आदमी भरा पड़ा है। न धूप, न हवा, न पानी, न दवा। पीले-दुर्बल, निराश चेहरे। यह संकट अनायास नहीं आया है। संतान को ईश्वरीय विधान और वरदान माननेवाला भारतीय समाज ही इस रक्तबीजी संस्कृति के लिए जिम्मेदार है। चाहे खिलाने को रोटी और पहनाने को वस्त्र न दें, शिक्षा को शुल्क और रहने को छप्पर न हो, लेकिन अधभूखे, अधनंगे बच्चों की कतार खड़ी करना हर भारतीय अपना जन्मसिद्ध अधिकार समझता है। यही कारण है कि प्रतिवर्ष एक आस्ट्रेलिया यहाँ की जनसंख्या में जुड़ता चला जा रहा है। यदि इस जनवृद्धि पर नियंत्रण न हो सका तो हमारे सारे प्रयोजन और आयोजन व्यर्थ हो जाएँगे। धरती पर पैर रखने की जगह नहीं बचेगी।
जब किसी समाज के सदस्यों की संख्या बढ़ती है, तो उसे उनके भरण-पोषण के लिए जीवनोपयोगी वस्तुओं की आवश्यकता पड़ती है। परंतु वस्तुओं का उत्पादन तो गणितीय क्रम से होता है और जनसंख्या रेखागणित की दर से बढ़ती है। फलस्वरूप जनसंख्या और उत्पादन दर में चोर-सिपाही का खेल शुरू हो जाता है। आगे-आगे जनसंख्या दौड़ती है और पीछे-पीछे उत्पादन-वृद्धि। वास्तविकता यह है कि उत्पादन वृद्धि के सारे लाभ को जनसंख्या की वृद्धि व्यर्थ करा देती है। देश वहीं-का-वहीं पड़ा रहता है। वस्तुएँ अलभ्य हो जाती हैं। महँगाई निरंतर बढ़ती है। जीवन-स्तर गिरता जाता है। गरीबी, अशिक्षा, बेकारी बढ़ती चली जाती है।
बड़ा परिवार एक ‘ओवर लोडेड’ गाड़ी के समान होता है, जिसे खींचने वाले कमाऊ घोड़े अपनी जिंदगी की रोटी, कपड़ा और मकान की चिंता में होम कर देते हैं, फिर भी पेट खाली-के-खाली, परिजन नंगे-के-नंगे दिखाई देते हैं। पारिवारिक जीवन क्लेशमय हो जाता है। आखिर समाज के मंगल की इस विनाशिका जनसंख्या-वृद्धि से कैसे मुक्ति मिले? सीधा-सा उत्तर है कि जनसंख्या पर नियंत्रण हो। कम संतानें पैदा हों। इस देश के रूढ़िग्रस्त और अंधविश्वासी समाज को यह विचार चौंकाने वाला और ईश्वरीय अपराध तुल्य प्रतीत होना ही चाहिए, क्योंकि उन्हें तो बताया गया है कि संतान तो भगवान की देन है।
(क) जनसंख्या में वृद्धि आज विकट समस्या कैसे बन गई है?
उत्तर-
बढ़ती जनसंख्या से आज हमारे समाज की सुख-संपन्नता भी खोती जा रही है। महानगरों में कीड़े-मकोड़ों की भाँति अस्वास्थ्यकर घोंसलों में रहते आदमी, न धूप, न हवा, न पानी, न दवा।
(ख) भारत में बढ़ती जनसंख्या के लिए कौन ज़िम्मेदार है?
उत्तर-
संतान को ईश्वरीय विधान और वरदान मानने वाला भारतीय समाज ही भारत में बढ़ती जनसंख्या के लिए ज़िम्मेदार है।
(ग) जनसंख्या और महँगाई में क्या रिश्ता है?
उत्तर-
जनसंख्या बढ़ने पर उत्पादन वृद्धि पीछे रह जाती है। उत्पादन वृद्धि के सारे लाभ को जनसंख्या की वृद्धि व्यर्थ कर देती है। वस्तुएँ अलभ्य हो जाती हैं और महँगाई निरंतर बढ़ती जाती है।
(घ) बड़ा परिवार शाप क्यों है?
उत्तर-
बड़ा परिवार शाप इसलिए है, क्योंकि इसे खींचने वाले कमाऊ घोड़े अपनी जिंदगी को रोटी, कपड़ा और मकान की चिंता में होम कर देते हैं। फिर भी सभी को सुख प्राप्त नहीं होता। पारिवारिक जीवन क्लेशमय हो जाता है।
(ङ) परिच्छेद को उचित शीर्षक दीजिए।
उत्तर-
बढ़ती जनसंख्या : एक अभिशाप।
अपठित गद्यांश 13.
सिद्वृत्ति, उत्तम स्वभाव, सद्व्यवहार, आचरण, हृदय की कोमलता आदि गुणों से युक्त व्यक्ति को ही हम शीलवान कह सकते हैं। ये ही सद्गुण जीवन के लिए परम आवश्यक है। मानव को मानव बनाने वाली यही पूर्णता पालि में ‘पारमिता’ के नाम से जानी जाती है। मनुष्य में शील का होना आवश्यक ही नहीं, वरन इसकी पूर्णता भी आवश्यक है।
शीलयुक्त व्यवहार मनुष्य की प्रकृति और व्यक्तित्व को उद्घाटित करता है। उत्तम, प्रशंसनीय और पवित्र आचरण ही शील है। शीलयुक्त व्यवहार प्रत्येक व्यक्ति के लिए हितकर है। इससे मनुष्य की ख्याति बढ़ती है। शीलवान व्यक्ति सबका हृदय जीत लेता है। शीलयुक्त व्यवहार से कटुता दूर भागती है। इससे आशंका और संदेह की स्थितियाँ कभी उत्पन्न नहीं होती। इससे ऐसे सुखद वातावरण का सृजन होता है, जिसमें सभी प्रसन्नता का अनुभव करते हैं। शीलवान व्यक्ति अपने संपर्क में आने वाले सभी लोगों को सुप्रभावित करता है। शील इतना प्रभुत्वपूर्ण होता है कि किसी कार्य के बिगड़ने की नौबत नहीं आती।
अधिकारी-अधीनस्थ, शिक्षक-शिक्षार्थी, छोटों-बड़ों आदि सभी के लिए शीलयुक्त व्यवहार समान रूप से आवश्यक है। शिक्षार्थी में यदि शील का अभाव है तो वह अपने शिक्षक से वांछित शिक्षा प्राप्त नहीं कर सकता। शीलवान अधिकारी या कर्मचारी में आत्मविश्वास की वृद्धि स्वतः ही होने लगती है और साथ ही उनके व्यक्तित्व में शालीनता आ जाती है। इस अमूल्य गुण की उपस्थिति में अधिकारी वर्ग और अधीनस्थ कर्मचारियों के बीच, शिक्षकगण और विद्यार्थियों के बीच तथा शासक और शासित के बीच मधुर एवं प्रगाढ़ संबंध स्थापित होते हैं और प्रत्येक वर्ग की कार्यकुशलता में वृद्धि होती है। इस गुण के माध्यम से छोटे-से-छोटा व्यक्ति बड़ों की सहानुभूति अर्जित कर लेता है।
(क) कैसे व्यक्ति को हम शीलवान कह सकते हैं?
उत्तर-
जो व्यक्ति सद्वृत्ति, उत्तम स्वभाव, सद्व्यवहार, आचरण, हृदय में कोमलता आदि गुणों से युक्त हो उसे शीलवान कह सकते हैं।
(ख) शीलयुक्त व्यवहार से मनुष्य को क्या लाभ होते हैं?
उत्तर-
शीलयुक्त व्यवहार से मनुष्य की ख्याति बढ़ती है। वह लोगों का हृदय जीत लेता है, आशंका व संदेह की स्थितियाँ खत्म होती हैं तथा सुखद वातावरण का सृजन होता है।
(ग) शिक्षार्थी में यदि शील का अभाव है तो उसे क्या हानि होगी?
उत्तर-
शिक्षार्थी में यदि शील का अभाव है तो वह अपने शिक्षक से वांछित शिक्षा प्राप्त नहीं कर सकता।
(घ) शालीन व्यवहार से समाज में क्या परिवर्तन देखे जा सकते हैं?
उत्तर-
इस अमूल्य गुण की उपस्थिति में अधिकारी वर्ग और अधीनस्थ कर्मचारियों के बीच, शिक्षकगण और विद्यार्थियों के बीच तथा शासक और शासित के बीच मधुर एवं प्रगाढ़ संबंध स्थापित होते हैं और प्रत्येक वर्ग की कार्यकुशलता में वृद्धि होती है।
(ङ) परिच्छेद का उपयुक्त शीर्षक दीजिए।
उत्तर-
‘शीलं परं भूषणम्’।
अपठित गद्यांश 14.
सत्य हमारी कल्पना से गढ़ी गई कथाओं से कहीं अधिक विचित्र और विस्मयकारी होता है, इस उक्ति का यह आदमी चलता-फिरता दृष्टांत है। मैं जब भी नैनीताल जाता हूँ, इनसे ज़रूर मिलता हूँ। अजीब-सा सुकून मिलता है मुझे इनके पास बैठकर। कितने सरल-निष्कपट, कितने विनोदी और जिंदादिल! कौन कहेगा, इस व्यक्ति ने ऐसी मर्मांतक पीड़ाएँ झेली हैं! मुझे मेरे भाई ने बताया था, जो पिछले पचीस बरस से इनका सहयोगी है। एक ही स्कूल में पढ़ाते हैं दोनों। जन्म देने वाली माँ ही जिसके प्रति इतनी निष्ठुर रही हो-अविश्वसनीयता की हद तक-उसके दुख की कहीं कोई थाह मिलेगी? इस दुख को पचा चुकने के बाद फिर ऐसा कौन-सा दुख बचता है जो आपको तोड़ सके!
माँ की ममता से वंचित (मातृहीन बालक की वंचना से भी कहीं अधिक तोड़ने वाली वेदना), पत्नी की सहानुभूति से भी वंचित, समाज में भी अपनी योग्यता और अर्जित सामर्थ्य से नीचे, बहुत नीचे के स्तर पर पूरी जिंदगी गुज़ार देने को अभिशप्त यह व्यक्ति आखिर किस पाताल-स्रोत से अपनी जिजीविषा और मानसिक संतुलन खींच पाता होगा! अच्छे-खासे यूनिवर्सिटी के प्रोफेसरों को लजा दे, ऐसा इल्म और तेज़ दिमाग है इस स्कूल मास्टर का, पर उस असामान्य दिमाग का परिचय अपने-आप नहीं मिलेगा। बहुत उकसाए कोई, तभी मिलेगा।
नहीं, उन्हें अपने इल्म के प्रदर्शन में रत्ती भर भी रुचि नहीं। अपने ज़माने में हॉकी के बेहतरीन खिलाड़ी रह चुके वे, आज भी उसी युवकोचित उत्साह के साथ घंटों मैच देखते हैं-पूरे तादात्म्य और ‘पैशन’ के साथ। मैं इंग्लैंड जा रहा हूँ और एक वेल्श मित्र के यहाँ ठहरूंगा-यह पता चलने पर उन्होंने वेल्श लोगों के इतिहास और सांस्कृतिक विशेषताओं के बारे में ऐसी-ऐसी बातें बताईं कि मैं दंग रह गया। केल्टिक लिटरेचर के बारे में उन्हें वह सब पता था, जो कुमाऊँ विश्वविद्यालय के अंग्रेजी विभाग का अध्यक्ष भी न जानता होगा।
कब पढ़ा होगा उन्होंने यह सब! और इस तरह की समझ सिर्फ़ पढ़ने से नहीं आती, गुनने से आती है। जाने किस ज़माने के बी०ए० भर तो हैं वे। घर की हालत अच्छी होती, एम०ए० कर पाते तो किसी यूनिवर्सिटी में प्रोफ़ेसर होते। मगर … क्या हुआ होता, यह वे शायद खुद भी नहीं सोचते। किसी तरह की शिकायत या कुंठा उनके भीतर नहीं।
(क) सत्य कल्पना से अधिक विचित्र होता है, इसका बोध लेखक को कब हुआ?
उत्तर-
जब लेखक ने अपने भाई के साथ नैनीताल के एक स्कूल में पढ़ाने वाले उसके सहयोगी को देखा तो उन्हें ऐसा लगा। लेखक को इनके पास बैठकर अजीब-सा सुकून मिलता था। वे सरल-निष्कपट, विनोदी और जिंदादिल थे।
(ख) उस अध्यापक ने कैसे दुख झेले थे?
उत्तर-
अध्यापक माँ की ममता तथा पत्नी की सहानुभूति से वंचित रहा था तथा अपनी योग्यता और सामर्थ्य से बहुत – नीचे के स्तर की जिंदगी गुजार देने को अभिशप्त वह जीवन को जीने की शक्ति पता नहीं कहाँ से लाता था।
(ग) मास्टर जी के बौद्धिक स्तर का परिचय क्यों नहीं मिल पाता था?
उत्तर-
उन्हें अपने ज्ञान के प्रदर्शन में कोई रुचि नहीं थी, स्कूल में भी उसकी आवश्यकता नहीं थी, अतः उनके बौद्धिक स्तर का परिचय नहीं मिल पाता था। यदि कोई उन्हें बहुत उकसाए तो, यह संभव हो सकता था।
(घ) लेखक मास्टर जी की किस जानकारी से दंग रह गया?
उत्तर-
वेल्श लोगों के इतिहास और सांस्कृतिक विशेषताओं के बारे में मास्टर जी की जानकारी से दंग रह गया। केल्टिक लिटरेचर के बारे में उन्हें वह सब पता था, जो कुमाऊँ विश्वद्यिालय के अंग्रेजी विभाग का अध्यक्ष भी न जानता होगा।
(ङ) यह गद्यांश साहित्य की कौन-सी विधा है?
उत्तर-
डायरी लेखन।
अपठित गद्यांश 15.
हमारे बाल्यकाल के संस्कार ही जीवन का ध्येय निर्धारित करते हैं, अतः यदि शैशव में हमारी संतान ऐसे ‘व्यक्तियों की छाया में ज्ञान प्राप्त करेगी, जिनमें चरित्र तथा सिद्धांत की विशेषता नहीं है, जिनमें संस्कारजनित अनेक दोष हैं, तो फिर विद्यार्थियों के चरित्र पर भी उसी की छाप पड़ेगी और भविष्य में उनके ध्येय भी उसी के अनुसार स्वार्थमय तथा अस्थिर होंगे। शिक्षा एक ऐसा कर्तव्य नहीं है जो किसी पुस्तक को प्रथम पृष्ठ से अंतिम पृष्ठ तक पढ़ाने से ही पूर्ण हो जाता हो, वरन् वह ऐसा कर्तव्य है जिसकी परिधि सारे जीवन को घेरे हुए है और पुस्तकें ऐसे साँचे हैं जिनमें ढालकर उसे सुडौल बनाया जा सकता है।
यह वास्तव में आश्चर्य का विषय है कि हम अपने साधारण कार्यों के लिए करने वालों में जो योग्यता देखते हैं, वैसी योग्यता भी शिक्षकों में नहीं ढूँढ़ते। जो हमारी बालिकाओं, भविष्य की माताओं का निर्माण करेंगे उनके प्रति हमारी उदासीनता को अक्षम्य ही कहना चाहिए। देश-विशेष, समाज-विशेष तथा संस्कृति-विशेष के अनुसार किसी के मानसिक विकास के साधन और सुविधाएँ उपस्थित करते हुए उसे विस्तृत संसार का ऐसा ज्ञान करा देना ही शिक्षा है, जिससे वह अपने जीवन में सामंजस्य का अनुभव कर सके और उसे अपने क्षेत्र-विशेष के साथ ही बाहर भी उपयोगी बना सके। यह महत्त्वपूर्ण कार्य ऐसा नहीं है जिसे किसी विशिष्ट संस्कृति से अनभिज्ञ चंचल चित्त और शिथिल चरित्र वाले व्यक्ति सुचारु रूप से संपादित कर सकें।
परंतु प्रश्न यह है कि इस महान उत्तरदायित्व के योग्य व्यक्ति कहाँ से लाए जाएँ? पढ़ी-लिखी महिलाओं की संख्या उँगलियों पर गिनने योग्य है और उनमें भी भारतीय संस्कृति के अनुसार शिक्षिताएँ बहुत कम हैं, जो हैं उनके जीवन के ध्येयों में इस कर्तव्य की छाया का प्रवेश भी निषिद्ध समझा जाता है। कुछ शिक्षिकावर्ग को उच्छृखलता समझी जाने वाली स्वतंत्रता के कारण और कुछ अपने संकीर्ण दृष्टिकोण के कारण अन्य महिलाएँ अध्यापन-कार्य तथा उसे जीवन का लक्ष्य बनाने वालियों को अवज्ञा और अनादर की दृष्टि से देखने लगी हैं।
अतः जीवन के आदि से अंत तक कभी किसी अवकाश के क्षण में उनका ध्यान इस आवश्यकता की ओर नहीं जाता, जिसकी पूर्ति पर उनकी संतान का भविष्य निर्भर है। अपने सामाजिक दायित्वों को समझा जाना चाहिए। यह समाज में आज सबसे बड़ी कमी है।
(क) संस्कारजनित दोषों से युक्त व्यक्तियों से ज्ञान प्राप्त करने पर विद्यार्थियों के चरित्र पर क्या प्रभाव पड़ता है?
उत्तर-
संस्कारजनित दोषों से युक्त व्यक्तियों से ज्ञान प्राप्त करने पर विद्यार्थियों के चरित्र पर भी उसी की छाप पड़ती है और उनके ध्येय भी उसी के अनुसार स्वार्थमय तथा अस्थिर होते हैं।
(ख) शिक्षा को कैसा कर्तव्य बताया गया है?
उत्तर-
शिक्षा को ऐसा कर्तव्य बताया गया है जिसकी परिधि में सभी प्रकार के जीवन संबंधित क्षेत्र आ जाते हैं तथा वह सबको प्रभावित करती है। यह ऐसा कर्त्तव्य नहीं है जो किसी पुस्तक को पढ़ाने से पूर्ण हो जाता है।
(ग) लेखक ने किसे आश्चर्य कहा है?
उत्तर-
लेखक को आश्चर्य है कि अपने साधारण कार्य करवाने के लिए भी हम लोगों में योग्यता खोजते हैं पर भविष्य की माताओं का निर्माण करने वाली शिक्षिकाओं के प्रति उदासीन हो जाते हैं।
(घ) शिक्षा वास्तव में क्या है?
उत्तर-
समाज तथा संस्कृति की विशेषताओं के अनुसार मानसिक विकास के साधन तथा सुविधाएँ उपस्थित कराते हुए छात्राओं को विस्तृत संसार का ज्ञान करा देना ही शिक्षा है, जिससे वह यथावसर आवश्यकतानुसार सामंजस्य बिठा सके।
(ङ) गद्यांश का शीर्षक लिखिए।
उत्तर-
शिक्षा का प्रभाव।