CBSE Sample Papers for Class 12 Hindi Paper 3 are part of CBSE Sample Papers for Class 12 Hindi. Here we have given CBSE Sample Papers for Class 12 Hindi Paper 3.
CBSE Sample Papers for Class 12 Hindi Paper 3
Board | CBSE |
Class | XII |
Subject | Hindi |
Sample Paper Set | Paper 3 |
Category | CBSE Sample Papers |
Students who are going to appear for CBSE Class 12 Examinations are advised to practice the CBSE sample papers given here which is designed as per the latest Syllabus and marking scheme as prescribed by the CBSE is given here. Paper 3 of Solved CBSE Sample Paper for Class 12 Hindi is given below with free PDF download solutions.
समय :3 घंटे
पूर्णांक : 100
सामान्य निर्देश
- इस प्रश्न-पत्र के तीन खंड हैं-क, ख और ग।
- तीनों खंडों के प्रश्नों के उत्तर देना अनिवार्य है।
- यथासंभव प्रत्येक खंड के उत्तर क्रमशः दीजिए।
प्रश्न 1.
निम्नलिखित गद्यांश को ध्यानपूर्वक पढ़कर पूछे गए प्रश्नों के उत्तर दीजिए (15)
आज की दुनिया के संदर्भ में दो बातों का ध्यान रखना ज़रूरी है—हम एक ऐसी दुनिया में रह रहे हैं, जहाँ परफेक्शन का बोलबाला है। इसमें से प्रत्येक किसी-न-किसी के प्रति किसी हद तक जवाबदेह है। ऐसे परिदृश्य में सबसे कठिन हो जाता है अपनी आलोचना को स्वीकार कर पाना। हालाँकि युह भी सच है कि कैसी भी आलोचना स्वीकारना मुश्किल ही होता है, भले ही वह हमारी भलाई के लिए ही क्यों न हो। आलोचना एक दोधारी तलवार की तरह होती है। एक तरफ़ आप इसके आधार पर अपने झूठे अहं को दरकिनार कर गहरी समझ विकसित कर सकते हैं, तो एक तरफ़ आलोचना को दिल पर ले संबंधित शख्स से अपने संबंध बिगाड़ सकते हैं। कह सकते हैं कि यह व्यक्ति विशेष पर निर्भर करता है कि वह आलोचना को किस तरह लेता है। उससे अपना विकास करता है या झूठे अहं में पड़ अपने को ही सही मानता रहता है। भले ही आलोचना कितनी ही चोट क्यों न पहुँचाए, लेकिन दूसरे को पूरे ध्यान व गंभीरता के साथ सुनें। आलोचना रूपी सलाह को सिरे से खारिज़ करने से बेहतर होगा कि जो सही हो, उसे आत्मसात् करें। उसे स्वीकार कर स्वयं का विकास करें। इस क्रम में अपनी निर्णायक क्षमता का बेहतर इस्तेमाल कर वही बातें स्वीकार करें, जो आप पर लागू होती हैं। ऐसा न हो कि आलोचना का वृह हिस्सा भी मान लें, जो आप पर लागू ही न होता हो।
भले ही आप कितने ही सफ़ल क्यों न हो जाएँ, लेकिन यह ध्यान रखें कि सुधार की गुंजाइश हमेशा रहती है। इसे मान लेने से सकारात्मक आलोचना अपने हित में लेने की आदत हो जाती है। इसके लिए दिमाग हमेशा खुला रखने की ज़रूरत है। किसी ने कोई बात की, जो आलोचना है, तो तुरंत ही किसी निर्णय पर पहुँचने के बजाय उस बात पर गंभीरता से मनन करें। ईमानदारी से विचार करें कि कही गई बात में कहीं भी कोई रत्तीभर भी सच्चाई है। आलोचनात्मक टिप्पणी की सारगर्भिता का सही आकलन परिपक्वता और विकास की दिशा में उठा पहला कदम होता है। बात भूले आचार-व्यवहार, जीवनशैली में बदलाव की हो या फिर कार्यशैली में परिवर्तन की। हमें हमेशा जागरूक रहना होगा कि हम कैसे इन क्षेत्रों में अपनी ताकत बढ़ा सकते हैं। आलोचना ‘दो तरह की होती है। एक का मकसद आपकी कमियों को सामने ला उसे दूर करना होता है, जबकि एक महज ईर्ष्यावश या पूर्वाग्रह से ग्रसित होती है। ज़रूरत इस अंतर को समझने की है। कमियों को इंगित करती यानी सकारात्मक आलोचना को अंगीकार करने की ज़रूरत है, तो नकारात्मक आलोचना और उसे करने वाले से दूरी बनाने में ही भलाई निहित है।
(क) प्रस्तुत गद्यांश का उपयुक्त शीर्षक लिखिए। (1)
(ख) गद्यांश के आधार पर स्पष्ट कीजिए कि आज की दुनिया के संदर्भ में किन बातों का ध्यान रखना आवश्यक है? (2)
(ग) आलोचना कितनी तरह की होती है तथा इसके बारे में लेखक की क्या राय है? (2)
(घ) गद्यांश का केंद्रीय भाव 20 शब्दों में लिखिए। (2)
(ङ) “आलोचना एक दोधारी तलवार की तरह होती है- पंक्ति का आशय स्पष्ट कीजिए। (2)
(च) आलोचना को स्वीकारना मुश्किल क्यों होता है? गद्यांश के आधार पर स्पष्ट कीजिए। (2)
(छ) लोग आलोचना क्यों करते हैं तथा इससे व्यक्ति के संबंध कैसे बिगड़ जाते हैं? (2)
(ज) ‘सकारात्मक आलोचना’ से लेखक का क्या आशय है? (2)
प्रश्न 2.
निम्नलिखित काव्यांश को ध्यानपूर्वक पढ़कर पूछे गए प्रश्नों के उत्तर दीजिए (1 × 5= 5)
क्या रोकेंगे प्रलय मेघ ये, क्या विद्युत-घन के नर्तन,
मुझे न साथी रोक सकेंगे, सागर के गर्जन-तर्जन।
मैं अविराम पथिक अलबेला रुके न मेरे कभी चरण,
शूलों के बदले फूलों का किया न मैंने मित्र चयन।
मैं विपदाओं में मुसकाता नुव आशा के दीप लिए,
फिर मुझको क्यों रोक सकेंगे जीवन के उत्थान-पृतन्।
मैं अटका कब, कब विचलित मैं, सतत डगर मेरी संबल,
रोक सकी पगले कब मुझको यह युग की प्राचीर निबुल
आँधी हो, ओले-वर्षा हों, राह सुपरिचित है मेरी,
फिर मुझको क्या डरा सकेंगे, ये जुग के खंडन-मंडन्।
मुझे डरा पाए कब अंधड़, ज्वालामुखियों के कंपन,
मुझे पथिक कबु रोक सुके हैं अग्निशिखाओं के नर्तन।
मैं बढ़ता अविराम निरंतर तन-मन में उन्माद लिए,
फिर मुझको क्या डरा सकेंगे, ये बादल-विद्युत नर्तन।
(क) काव्यांश में आए मेघ, विद्युत, सागर की गर्जना और ज्वालामुखी किनके प्रतीक हैं?
(ख) “शूलों के बदले फूलों का किया न मैंने कभी चयन”-काव्य पंक्ति का आशय स्पष्ट कीजिए।
(ग) ‘युग की प्राचीर’ से क्या तात्पर्य है?
(घ) कवि तन-मन में उन्माद लिए होने की बात क्यों कहता है?
(ङ) प्रस्तुत काव्यांश के आधार पर कवि के स्वभाव की किन्हीं दो विशेषताओं का उल्लेख कीजिए।
प्रश्न 3.
निम्नलिखित में से किसी एक विषय पर अनुच्छेद लिखिए (5)
(क) शिक्षा के क्षेत्र में आधारभूत चुनौतियाँ
(ख) डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन
(ग) वृक्षारोपण
(घ) एकहि साधे सब सधे, सब साधे सब जाय
प्रश्न 4.
आप विद्यालय के वार्षिकोत्सव में एक नाटक प्रस्तुत कर रहे हैं। पूर्वाभ्यास के बीच आपने पाया कि दो विद्यार्थी बाहर धूम्रपान कर रहे हैं, आपको अच्छा नहीं लगा। इस समस्या से अवगत कराने तथा इसे रोकने हेतु अपने प्रधानाचार्य को पत्र लिखिए।
अथवा
आज टेलीविज़न द्वारा विभिन्न चैनलों पर अंधविश्वास तथा तंत्र-मंत्र से संबंधित कार्यक्रम दिखाकर जनता को भ्रमित किया जा रहा है। भारत सरकार के सूचना एवं प्रसारण मंत्री को उसकी जानकारी देते हुए ऐसे कार्यक्रमों पर रोक लगाने का अनुरोध कीजिए।
प्रश्न 5.
निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर संक्षेप में दीजिए (1 × 5 = 5)
(क) संचार शब्द की उत्पत्ति किस शब्द से हुई है? स्पष्ट कीजिए।
(ख) समाचार किसे कहते हैं?
(ग) बिल्वर श्रम के अनुसार, संचार की क्या परिभाषा है?
(घ) रिपोर्ट और रिपोर्ताज में मुख्य अंतर क्या है?
(ङ) ‘डेडलाइन क्या है?
प्रश्न 6.
‘गाँवों से शहरों की ओर बढ़ रहा पलायन’ विषय पर एक आलेख लिखिए।
अथवा
हाल ही में पढ़ी गई किसी पुस्तक की समीक्षा लिखिए।
प्रश्न 7.
‘क्रेच एवं डे-बोर्डिंग स्कूल का बच्चों पर प्रभाव’ अथवा ‘आधुनिक या एकल परिवारों में बुजुर्गों की स्थिति में से किसी एक विषय पर फ़ीचर लेखन तैयार कीजिए।
प्रश्न 8.
निम्नलिखित काव्यांश को ध्यानपूर्वक पढ़कर पूछे गए प्रश्नों के उत्तर दीजिए (2 × 4= 8)
नहला के छलके-छलके निर्मल जल से
उलझे हुए गेसुओं में कंघी करके
किस प्यार से देखता है बच्चा मुँह को
जब घुटनियों में लेके पिन्हाती कपड़े
(क) रुबाई के शायर का नाम तथा रुबाई की विशेषता बताइए।
(ख) माँ अपने बच्चे को कैसे नहला रही है?
(ग) ‘उलझे हुए गेसुओं से शायर किसकी ओर इशारा कर रहा है?
(घ) काव्यांश का केंद्रीय भाव समझाइए।
अथवा
जाने क्या रिश्ता है, जाने क्या नाता है।
जितना भी उड़ेलता हूँ, भर-भर फिर आता है।
दिल में क्या झरना है?
मीठे पानी का सोता है।
भीतर वृह, ऊपर तुम
मुसकाता चाँद ज्यों धरती पर रातभर
मुझ पर त्यों तुम्हारा ही खिलता वह चेहरा है!
(क) कवि स्वयं एवं अपनी प्रिया के बीच के संबंध को कैसे अभिव्यक्त करता है?
(ख) कवि अपनी ‘प्रिया’ को अपने जीवन में किस प्रकार अनुभव करता है?
(ग) कवि की श्रृंगार भावना पर प्रकाश डालिए।
(घ) प्रस्तुत काव्यांश के प्रतिपाद्य को अपने शब्दों में लिखिए।
प्रश्न 9.
निम्नलिखित काव्यांश को ध्यानपूर्वक पढ़कर पूछे गए प्रश्नों के उत्तर दीजिए (2 × 3 = 6)
उहाँ राम लुछिमुनहि निहारी। बोले बचून मनुज अनुसारी।।
अर्ध राति गई कपि नहिं आयुउ। राम उठाइ अनुज उर लागुऊ।।
सकहु न दुखित देखि मोहि काऊ। बंधु सुदा तव मृदुल सुभाऊ।।
मम् हित लागि तुजेहु पितु माता। सहेहु बिपिन हिम आतप बाता।।
सो अनुराग कहाँ अब भाई। उठहु न सुनि मर्म बच बिकलाई।।
जौं जनतेउँ वन बंधु बिछोहू। पितु बचन मुनतेउँ नहिं ओहू।।
(क) काव्यांश के भाव-सौंदर्य को अपने शब्दों में लिखिए।
(ख) काव्यांश के शिल्प-सौंदर्य पर प्रकाश डालिए।
(ग) काव्यांश में प्रयुक्त छंद के विषय में लिखिए।
अथवा
झूमने लगे फूल, रस अलौकिक,
अमृत धाराएँ फूटतीं,
रोपाई क्षण की, कटाई अनंतता की
लुटते रहने से ज़रा भी नहीं कम होती।
रसु का अक्षय पात्र सुदा का
छोटा मेरा खेत चौकोना।
(क) प्रस्तुत काव्यांश के भाव-सौंदर्य के बारे में टिप्पणी कीजिए।
(ख) काव्यांश की भाषा एवं छंद पर प्रकाश डालिए।
(ग) ‘रस का अक्षय पात्र’ पंक्ति का भाव-सौंदर्य स्पष्ट कीजिए।
प्रश्न 10.
निम्नलिखित में से किन्हीं दो प्रश्नों के उत्तर दीजिए (3 × 2= 6)
(क) दिन जल्दी-जल्दी ढलता है की आवृत्ति से कविता में क्या संकेत किया जा रहा है?
(ख) “सबसे तेज़ बौछारें गईं, भादो गया” के बाद प्रकृति में जो परिवर्तन कवि ने दिखाया है, उसका वर्णन अपने शब्दों में कीजिए।
(ग) ‘बात सीधी थी पर कविता में कवि क्यों परेशान है? उसके साथ कौन किस प्रकार खेल रहा है?
प्रश्न 11.
निम्नलिखित गद्यांश को ध्यानपूर्वक पढ़कर पूछे गए प्रश्नों के उत्तर दीजिए (2 × 4= 8)
कालिदास वज़न ठीक रख सकते थे, क्योंकि वे अनासक्त योगी की स्थिर-प्रज्ञता और विदग्ध प्रेमी का हृदय पा चुके थे। कवि होने से क्या होता है? मैं भी छंद बना लेता हूँ, तुक जोड़ लेता हूँ और कालिदास भी छंद बना लेते थे-तुक भी जोड़ ही सकते होंगे, इसलिए हम दोनों एक श्रेणी के नहीं हो जाते। पुराने सहृदय ने किसी ऐसे ही दावेदार को फटकारते हुए कहा था-“वयमपि कवयः कवयः कुव्यस्ते कालिदासाद्या!” मैं तो मुग्ध और विस्मयु-विमूढ़ होकर कालिदास के एक-एक श्लोक को देखकर हैरान हो जाता हूँ। अब इस शिरीष के फूल का ही एक उदाहरण लीजिए। शकुंतला बहुत सुंदर थी। सुंदर होने से क्या हो जाता है? देखना चाहिए कि कितने सुंदर हृदय से वह सौंदर्य डुबकी लगाकर निकला है। शकुंतला कालिदास के हृदय से निकली थी। विधाता की ओर से कोई कार्पण्य नहीं था, कवि की ओर से भी नहीं। राजा दुष्यंत भी अच्छे-भुले प्रेमी थे। उन्होंने शकुंतला का एक चित्र बनाया था, लेकिन रह-रहकर उनका मन खीझ उठता था। उहूँ, कहीं-न-कहीं कुछ छूट गया है। बड़ी देर के बाद उन्हें समझ में आया कि शकुंतला के कानों में वे उस शिरीष पुष्प को देना भूल गए हैं, जिसके केसर गंडस्थुलु तक लटके हुए थे और रह गया है शरदचंद्र की किरणों के समान कोमल और शुभ्र मृणाल का हार।
(क) “कालिदास वज़न ठीक रख सकते थे” पंक्ति से क्या अभिप्राय है? कालिदास वज़न ठीक रखने में सक्षम कैसे थे?
(ख) अन्य कवि कालिदास के समान क्यों नहीं हो सकते?
(ग) शकुंतला के सौंदर्य के पीछे निहित कारणों को स्पष्ट करें।
(घ) दुष्यंत को शकुंतला के चित्र में कौन-सी कमी नज़र आई?
प्रश्न 12.
निम्नलिखित में से किन्हीं चार प्रश्नों के उत्तर दीजिए। (3 × 4 = 12)
(क) ‘काले मेघा पानी दे’ पाठ के आधार पर जल और वर्षा के अभाव में गाँव की दशा का वर्णन कीजिए।
(ख) लुट्न पहलवान ने ऐसा क्यों कहा होगा कि मेरा गुरु कोई पहलवान नहीं, यही ढोल है?
(ग) “यह हिंदुस्तान-पाकिस्तान की एकता का मेवा है।” सफ़िया के दोस्त ने कीनू की टोकरी देते समय ऐसा क्यों कहा?
(घ) “दासता केवल कानूनी पराधीनता ही नहीं है” डॉ. आंबेडकर की विचारधारा के आधार पर स्पष्ट कीजिए।
(ङ) भक्तिन किस प्रकार लेखिका की छाया बनकर उनके साथ रहती थी?
प्रश्न 13.
“यह साठ लाख लोगों की तरफ़ से बोलने वाली एक आवाज़ है। एक ऐसी आवाज़ जो किसी संत या कवि की नहीं, बल्कि एक साधारण लड़की की है।”- इल्या इहरनबुर्ग की इस टिप्पणी के संदर्भ में ऐन फ्रैंक की डायरी के पठित अंशों पर विचार कीजिए। (5)
प्रश्न 14.
(क) जूझ’ कहानी के कथानायक के चरित्र की तीन विशेषताओं पर प्रकाश डालिए। (5)
(ख) क्या आप मानते हैं कि यशोधर बाबू की आँखों में नमी आने का कारण, उनके बड़े बेटे भूषण का व्यवहार था? (5)
उत्तर
उत्तर 1.
(क) ‘आलोचना का महत्त्व’ गद्यांश के लिए उपयुक्त शीर्षक है।
(ख) गद्यांश में स्पष्ट किया गया है कि आज की दुनिया के संदर्भ में यह ध्यान रखना आवश्यक है कि हम एक ऐसी दुनिया में रह रहे हैं, जहाँ परफेक्शन का बोलबाला है। इसके साथ ही प्रत्येक व्यक्ति किसी-न-किसी के प्रति किसी हद तक ज़वाबदेह होता है।
(ग) आलोचना दो तरह की होती है तथा आलोचना के संबंध में लेखक का सुझाव यह है कि आलोचना रूपी सलाह को सिरे से खारिज़ करने से अच्छा यह होगा कि हम उसे आत्मसात् कर स्वयं का विकास करें।
(घ) गद्यांश में ‘आलोचना के महत्त्व पर प्रकाश डाला गया है तथा यह बताने का प्रयास किया गया है कि इसके माध्यम से हम अपने झूठे अहं को दरकिनार कर अपने चरित्र का विकास कर सकते हैं तथा अपनी कमियों को दूर कर अपने व्यक्तित्व में निखार ला सकते हैं। अतः गद्यांश के केंद्र में यही भाव निहित है।
(ङ) “आलोचना दोधारी तलवार की तरह होती है”, पंक्ति का आशय यह है कि इसके माध्यम से एक ओर तो व्यक्ति अपने अहं को दरकिनार कर गहरी समझ विकसित कर सकते हैं, साथ ही दूसरी ओर आलोचना को दिल पर ले, उस व्यक्ति से अपने संबंध बिगाड़ सकते हैं।
(च) आलोचना को स्वीकारना मुश्किल इसलिए होता है, क्योंकि वर्तमान समय में आलोचना को बुराई का पर्याय माना जाता है। जबकि यह सर्वथा गलत है, क्योंकि आलोचना से व्यक्ति के जीवन में सुधार आता है। इसके माध्यम से व्यक्ति अपनी कमियों को दूर करता है।
(छ) लोग आलोचना व्यक्ति में सुधार लाने के उद्देश्य से करते हैं, किंतु कई बार ईर्ष्या भाव से ग्रसित होने के कारण भी लोग आलोचना करने में आत्मगौरव महसूस करते हैं। आलोचना को दिल पर ले लेने से व्यक्तियों के आपसी संबंध बिगड़ जाते हैं।
(ज) आलोचनात्मक टिप्पणी की सारगर्भिता का सही आकलन परिपक्वता और विकास की दिशा में उठा पहला कदम है तथा जो आलोचना कमियों को दूर कर व्यक्तित्व में निखार लाने तथा सुधार लाने के उद्देश्य से की जाती है, उसे सकारात्मक आलोचना कहते हैं।
उत्तर 2.
(क) काव्यांश में आए मेघ, विद्युत, सागर की गर्जना और ज्वालामुखी जीवन में आने वाली विघ्न-बाधाओं के प्रतीक हैं। इनका सामना होने पर प्राणी भयभीत हो जाते हैं। अत: प्रतीकात्मक रूप में इनका प्रयोग किया गया है।
(ख) “शूलों के बदले फूलों का किया न मैंने कभी चयन”-पंक्ति के माध्यम से कवि कहना चाहता है कि अपने जीवन में उसने ऐश्वर्य का चयन न करके जीवन की कठिनाइयों को चुना और सतत कर्मशील रहकर उनका सामना किया।
(ग) “युग की प्राचीर’ से कवि का तात्पर्य समाज में युगों-युगों से चली आ रही सड़ी-गली मान्यताओं से है, जो प्रगति के मार्ग में दीवार बनकर खड़ी रहती हैं।
(घ) कवि अपने तन-मन में व्याप्त उन्माद की बात इसलिए करता है, क्योंकि इसी के सहारे वह कर्म पथ पर निरंतर गतिशील है। इस उन्माद के कारण ही उसे सम्मुख आई बाधाओं से तनिक भी डर नहीं लग रहा है।
(ङ) प्रस्तुत काव्यांश से कवि का जीवन के प्रति जुझारू एवं सकारात्मक दृष्टिकोण झलकता है। वह जीवन में आने वाली सभी बाधाओं का सामना करते हुए दृढ़निश्चयी बनकर जीवन के मार्ग पर निरंतर अग्रसर रहना चाहता है। इस प्रकार कवि साहसी और कर्मशील होने के साथ-साथ आशावादी भी है।
उत्तर 3.
(क) शिक्षा के क्षेत्र में आधारभूत चुनौतियाँ
प्रायः कहा जाता है कि शिक्षा ही जीवन है। शिक्षा ही वह अमूल्य निधि है, जो मनुष्य को अन्य प्राणियों से अलग कर श्रेष्ठ एवं विवेकशील सामाजिक प्राणी के रूप में जीवन जीने के योग्य बनाती है। हमारे देश में शिक्षा के क्षेत्र में पहली तथा मुख्य चुनौती है—बच्चों तथा माता-पिता के मन में शिक्षा के प्रति उदासीनता की प्रवृत्ति को समाप्त करना। बच्चे प्रायः दंड या मार के भय से विद्यालय जाना पसंद नहीं करते और यदि किसी तरह विद्यालय चले भी जाते हैं, तो वे स्वयं को विद्यालयी वातावरण से जोड़ नहीं पाते। इसका मुख्य कारण कभी भाषा होती है, तो कभी अध्यापकों द्वारा किया जाने वाला व्यवहार। इसी प्रकार अशिक्षित माता-पिता भी शिक्षा के महत्त्व को समझ ही नहीं पाते।
शिक्षा के व्यापक विस्तार में दूसरी मुख्य चुनौती है-संसाधनों का अभाव। यदि माता-पिता किसी तरह अपने बच्चों को स्कूल भेज भी देते हैं, तो विद्यालयों की परिस्थितियाँ देखकर मन क्षुब्ध हो उठता है। ग्रामीण परिवेश में स्थित सरकारी स्कूलों की बात तो छोड़िए, महानगरों के सरकारी स्कूलों में भी मूलभूत सुविधाओं का घोर अभाव होता है। कई स्कूलों की तो अपनी इमारत भी नहीं होती, जिससे विद्यार्थियों को दिनभर खुले मैदान में बैठने के लिए विवश होना पड़ता है। इसी का परिणाम है कि उच्च कक्षाओं तक पहुँचते-पहुँचते, लगभग 30-40% विद्यार्थी स्कूल छोड़ देते हैं और घर बैठ जाते हैं। शिक्षा के क्षेत्र में तीसरी गंभीर चुनौती है-शिक्षा की गुणवत्ता। प्राचीन समय में शिक्षा का स्तर उच्च था। दूर-दूर से विद्यार्थी नालंदा विश्वविद्यालय, विक्रमशिला विश्वविद्यालय, तक्षशिला विश्वविद्यालय जैसे विश्व प्रसिद्ध शिक्षण संस्थानों में शिक्षा ग्रहण करने जाते थे, परंतु पराधीनता ने भारतीय शिक्षा प्रणाली में विकार उत्पन्न कर दिए। फलस्वरूप आज हमारी शिक्षा-पद्धति गुणहीन होकर रह गई है।
इस प्रकार हम यह महसूस करते हैं कि प्रारंभिक, माध्यमिक और उच्च स्तर पर शिक्षा तंत्र में अनेक कमियाँ तथा बाधाएँ हैं। इन्हें दूर करने के लिए सरकार को प्रत्येक स्तर पर ध्यान देना होगा और प्रारंभिक शिक्षा से लेकर उच्च स्तर तक की शिक्षा में सुधार करना होगा।
(ख) डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन
डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन का जन्म 5 सितंबर, 1888 को मद्रास शहर (चेन्नई) से लगभग 50 किमी दूर तमिलनाडु राज्य के तिरुतनी नामक गाँव में हुआ था। उनके पूर्वजों का गाँव ‘सर्वपल्ली’ था, जिसके कारण उन्हें अपने नाम के आगे ‘सर्वपल्ली विरासत में मिला। 20वीं सदी की शुरुआत में जब वैज्ञानिक प्रगति अपने चरम पर थी, तब विश्व को अपने दर्शन से विमुग्ध करने वाले महान् आध्यात्मिक नेताओं में डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन सर्वप्रमुख थे। राधाकृष्णन ने अपने जीवनकाल में कई राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय संगठनों तथा शिष्टमंडलों का नेतृत्व किया। 21 वर्ष की अल्पायु में ही वर्ष 1909 में वे मद्रास के प्रेसीडेंसी कॉलेज में दर्शनशास्त्र के अध्यापक नियुक्त हुए।
इसके अतिरिक्त, काशी विश्वविद्यालय में भी उन्होंने कुलपति के पद को सुशोभित किया। वर्ष 1939 में उन्हें ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय में प्राच्य धर्म और आचार विभाग का विभागाध्यक्ष बना दिया गया। वर्ष 1967 में राष्ट्रपति पद छोड़ने के बाद वे संन्यासी दार्शनिक के रूप में एकांतवास करने लगे थे। 16 अप्रैल, 1975 को डॉ. राधाकृष्णन की मृत्यु हो गई। डॉ. राधाकृष्णन ने दर्शन और संस्कृति पर अनेक ग्रंथों की रचना की, जिनमें ‘द फ़िलॉसफी ऑफ़ द उपनिषद्स’, ‘भगवद्गीता’, ‘ईस्ट एंड वेस्ट-सम रिफ्लेक्शंस’ इत्यादि प्रमुख हैं। उनकी उपलब्धियों को देखते हुए भारत तथा विश्व के अनेक विश्वविद्यालयों ने डॉ. राधाकृष्णन को मानद् उपाधियाँ प्रदान कीं। दुनियाभर के सौ से अधिक विश्वविद्यालयों ने उन्हें डॉक्टरेट की मानद् उपाधि से सम्मानित किया। भारत सरकार ने उन्हें वर्ष 1954 में भारत के सर्वोच्च सम्मान ‘भारत रत्न’ से सम्मानित किया। ‘भारत रत्न’ से सम्मानित किए जाने वाले वह भारत के प्रथम तीन गौरवशाली व्यक्तियों में से एक थे।
डॉ. राधाकृष्णन एक महान् शिक्षाविद् भी थे और शिक्षक होने का उन्हें गर्व था। यही कारण है कि उनके जन्मदिन 5 सितंबर को शिक्षक दिवस’ के रूप में मनाया जाता है। भारत सरकार ने शिक्षा जगत में सुधार लाने के लिए उनकी अध्यक्षता में राधाकृष्णन आयोग का गठन किया। वे आज हमारे बीच नहीं हैं, पर उनका ज्ञानालोक सदा हमारा मार्ग प्रदीप्त करता रहेगा।
(ग) वृक्षारोपण
मनुष्य के सुखद भविष्य के लिए वृक्षों के महत्त्व को पहचानते हुए पर्यावरणविद् एवं वैज्ञानिक आजकल वृक्षारोपण पर अत्यधिक ज़ोर दे रहे हैं। उनका कहना है कि पर्यावरण संतुलन एवं मानव की वास्तविक प्रगति के लिए वृक्षारोपण आवश्यक है। वृक्ष हमारे लिए कई प्रकार से लाभदायक होते हैं। इस तरह मनुष्य, जन्म लेने के बाद वृक्षों एवं उनसे प्राप्त होने वाली विभिन्न प्रकार की वस्तुओं पर निर्भर रहता है। वृक्षों से होने वाले इन्हीं लाभों के कारण मनुष्य ने उनकी तेज़ी से कटाई की है। मनुष्य अपने लाभ के लिए कारखानों की संख्या में तो वृद्धि करता रहा, किंतु उसके अनुपात में उसने पेड़ों को लगाने की ओर ध्यान नहीं दिया।
वनोन्मूलन के कारण पिछले कुछ वर्षों में जलवायु परिवर्तन की समस्या उत्पन्न हो गई है। सामान्य मौसमी अभिवृत्तियों में किसी खास स्थान पर होने वाले विशिष्ट परिवर्तन को जलवायु परिवर्तन कहा जाता है। मौसम में अचानक परिवर्तन, फ़सल-चक्र का परिवर्तित होना, वनस्पतियों की प्रजातियों का लुप्त होना आदि ऐसे सूचक हैं, जिनसे जलवायु परिवर्तन की परिघटना का पता चलता है। वातावरण में ग्रीन हाउस गैसों का होना अच्छा है, किंतु जब इनकी मात्रा बढ़ जाती है, तो तापमान में वृद्धि होने लगती है। वृक्षारोपण के माध्यम से इस समस्या का काफ़ी हद तक समाधान किया जा सकता है। विश्व में आई औद्योगिक क्रांति के बाद से ही प्राकृतिक संसाधनों का दोहन शुरू हो गया था, जो 19वीं एवं 20वीं शताब्दी में अपनी चरम सीमा को पार कर गया। भारत सरकार भी विभिन्न राज्यों में वृक्षारोपण के लिए विभिन्न प्रकार की योजनाओं पर कार्य कर रही है। इसके अतिरिक्त, विभिन्न प्रकार के गैर-सरकारी संगठन भी वृक्षारोपण का कार्य कर रहे हैं।
वृक्षारोपण के कार्यक्रमों को प्रोत्साहन देने के लिए लोगों को वृक्षों से होने वाले लाभ से अवगत कराकर पेड़ लगाने के लिए प्रेरित करना होगा। यदि हम चाहते हैं कि प्रदूषण कम हो एवं पर्यावरण की सुरक्षा के साथ सामंजस्य रखते हुए संतुलित विकास की ओर हम अग्रसर हों, तो इसके लिए हमें अनिवार्य रूप से वृक्षारोपण का सहारा लेना होगा।
(घ) एकहि साधे अब अधे, अब मधे अब जाय
महान् क्रांतिकारी संत एवं युग प्रवर्तक कवि कबीर ने लिखा है।
एकहि साधे सब सधे, सब साधे सब जाय।
माली सींचे मूल को, फूलै फले अघाय।।”
कहने का तात्पर्य है कि जिस तरह माली के द्वारा पौधे की जड़ को सींचने से पूरे पेड़ की सिंचाई हो जाती है और समूचा पेड़ हरा-भरा होकर खूब फलता-फूलता है, ठीक उसी तरह व्यक्ति यदि अपने मूल लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए अपना तन-मन-धन समर्पित कर दे, तो मूल लक्ष्य की प्राप्ति होते ही उसे अन्य सभी अनुषंगी लक्ष्य स्वयं ही हासिल हो जाते हैं।
सफलता प्राप्त करने के लिए आवश्यक है कि व्यक्ति अपने तन, मन एवं धन को किसी बिंदु-विशेष यानी लक्ष्य-विशेष के लिए पूरी तरह समर्पित कर दे, वह अपनी समूची एकाग्रता एवं निष्ठा को उस लक्ष्य की प्राप्ति से जोड़ दे, लेकिन यदि लक्ष्य ही अनेक होंगे, तो निश्चित रूप से एकाग्रता एवं निष्ठा भी विभाजित होगी और यह लक्ष्य प्राप्ति को संदेहास्पद बना देगी। एक ही समय में अनेक कार्यों को प्रारंभ करने से कोई भी कार्य पूर्णता तक नहीं पहुँच पाता, परिणामस्वरूप हमारे सभी कार्य अधूरे रह जाते हैं, इसलिए हमें अतिशय व्यग्रता न दिखाते हुए एक समय में कोई एक काम ही पूरी तल्लीनता एवं निष्ठा के साथ करना चाहिए, ताकि हम एकाग्रचित्त होकर उसमें सफलता प्राप्त कर सकें।
कहा भी गया है कि एक-साथ दो नावों में पैर रखने वाला व्यक्ति कभी भी किनारे तक नहीं पहुँच सकता। उसका बीच रास्ते में ही नदी में गिरना अवश्यंभावी है। दूसरी ओर, एक ही नाव में सवार होकर सफ़र करने वाला व्यक्ति निश्चित रूप से नदी को पार कर लेता है। जिस तरह, बिना सोच-विचार किए किसी कार्य को करना विपत्तियों को आमंत्रण देना है, ठीक उसी तरह एक-साथ कई कार्यों को प्रारंभ करना किसी भी कार्य के प्रति पूर्ण निष्ठा के अभाव को दर्शाता है।
इसलिए एक ही कार्य को करना, एक ही लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए पूरी तरह एकाग्रचित्त हो जाना एवं संपूर्ण निष्ठा एवं समर्पण से उसे प्राप्त करने की कोशिश करना महत्त्वपूर्ण है। स्वामी विवेकानंद ने भी कहा है-“एक समय में एक काम करो और ऐसा करते समय अपनी पूरी आत्मा उसमें डाल दो और बाकी सब कुछ भूल जाओ।”
उत्तर 4.
परीक्षा भवन,
दिल्ली।
दिनांक 15 जून, 20××
सेवा में,
श्रीमान् प्रधानाचार्य,
केंद्रीय विद्यालय,
समस्तीपुर।
विषय विद्यार्थियों की धूम्रपान की समस्या से अवगत कराने हेतु।
महोदय,
मैं आपके विद्यालय की कक्षा बारहवीं का छात्र हूँ। जुलाई में आयोजित होने वाले वार्षिकोत्सव की संध्या पर इस बार विद्यालय विकास समिति ने नाटक प्रस्तुत करने का निर्णय लिया है, जिसकी स्वीकृति आप पहले ही दे चुके हैं। कल संध्या के समय जब नाटक का पूर्वाभ्यास चल रहा था, तब मैंने दो विद्यार्थियों, सौरभ तथा सुमित को प्रेक्षागृह के बाहर धूम्रपान करते देखा। यह देखकर मुझे अत्यधिक चिंता हुई कि हमारे आदर्श विद्यालय में इस प्रकार के लड़के भी मौजूद हैं। यदि इन लड़कों पर कोई अनुशासनात्मक कार्रवाई नहीं की गई, तो इनका प्रभाव अन्य विद्यार्थियों पर भी पड़ सकता है।
यदि अभी उन्हें कुछ सांकेतिक दंड मिल जाए, तो उनके सुधरने की आशा है, वरना उनका भविष्य तथा स्वास्थ्य दोनों के नष्ट होने की आशंका है। अतः आपसे अनुरोध है कि छात्रावास में रहने वाले इन छात्रों पर आवश्यक निगरानी रखते हुए उचित कार्रवाई का निर्देश दें।
सधन्यवाद!
भवदीय
क.ख.ग.
अथवा
परीक्षा भवन,
दिल्ली।
दिनांक 15 अप्रैल, 20××
सेवा में,
सूचना एवं प्रसारण मंत्री
भारत सरकार
नई दिल्ली।।
विषय अंधविश्वास तथा तं-मंत्र से संबंधित कार्यक्रम दिखाने के संबंध में।
महोदय,
सविनय निवेदन यह है कि आजकल टेलीविज़न पर अंधविश्वास तथा तं-मंत्र बढ़ाने वाले अनेक कार्यक्रम प्रसारित किए जा रहे हैं, जो समाज के लिए अत्यंत घातक हैं। इन कार्यक्रमों के कारण जनसामान्य का दृष्टिकोण संकुचित होता है। इसका बच्चों एवं अशिक्षित लोगों पर अत्यधिक दुष्प्रभाव पड़ता है। उनके मस्तिष्क का विकास वैज्ञानिक एवं आधुनिक दृष्टिकोण के साथ नहीं हो पाता। इसके अतिरिक्त, समाज के लोगों के बीच अनेक भ्रांतियाँ भी फैलती हैं। वे इन अंधविश्वासों में पड़कर ऐसे कार्य करते हैं, जिससे न सिर्फ उन्हें, बल्कि उनके साथ रहने वालों को भी अत्यधिक नुकसान उठाना पड़ता है। आज 21वीं सदी में दूरदर्शन के चैनलों द्वारा इस प्रकार के अंधविश्वासों व तंत्र-मंत्र को बढ़ावा देने वाले कार्यक्रम दिखाना अत्यंत शर्मनाक एवं मूर्खतापूर्ण है। अतः मेरा आपसे निवेदन है कि ऐसे कार्यक्रम दिखाने वाले चैनलों को इसके विरुद्ध आवश्यक निर्देश दिए जाएँ या उन्हें पूरी तरह प्रतिबंधित कर दिया जाए।
सधन्यवाद!
भवदीय
क.ख.ग.
उत्तर 5.
(क) संचार शब्द की उत्पत्ति ‘चर्’ धातु से हुई है, जिसका अर्थ है-चलना या एक स्थान से दूसरे स्थान तक पहुँचना। किंतु मीडिया के क्षेत्र में संचार का अर्थ है-सूचनाओं का आदान-प्रदान करना।
(ख) समाचार का सीधा अर्थ है – सूचना। मनुष्य के आस-पास घटने वाली घटनाओं की सूचना प्राप्त करना या देना ही समाचार है।
(ग) बिल्वर प्रेम के अनुसार, “संचार अनुभवों की साझेदारी है।”
(घ) रिपोर्ट का महत्त्व सामयिक होता है, जबकि रिपोर्ताज का महत्त्व शाश्वत होता है। रिपोर्ताज में भावात्मकता, सजीवता, मार्मिकता, सरसता तथा रोचकता अपेक्षाकृत अधिक होती हैं।
(ङ) समाचार माध्यमों में किसी समाचार को प्रकाशित या प्रसारित होने के लिए पहुँचने की अंतिम समय-सीमा को ‘डेडलाइन’ कहा जाता है।
उत्तर 6.
गाँवों से शहरों की ओर बढ़ रहा पलायन
वर्तमान में ‘गाँवों से शहरों की ओर पलायन’ की प्रवृत्ति बढ़ती जा रही है। कभी रोज़गार की तलाश, कभी चकाचौंध और ग्लैमर के प्रति झुकाव, तो कभी अहम् संतुष्टि के लिए भी गाँवों के व्यक्ति शहरों की ओर पलायन कर रहे हैं।
किसी भी व्यक्ति का गाँव से महानगरों की ओर पलायन करना एक स्वाभाविक प्रवृत्ति है। प्रत्येक व्यक्ति उन्नति करना चाहता है, जिसके लिए वह महानगरों की ओर पलायन करता है। महानगरों में उन्नति पाने के अवसरों की कोई कमी नहीं है। स्वयं को बड़े महानगरों से जुड़ा देखना प्रतिष्ठा का प्रतीक (स्टेटस सिंबल) समझा जाता है। महानगरों में पढ़ाई, नौकरी, व्यवसाय, विकास और मनोरंजन के अनेक साधन हैं, जिन्हें अपनाकर व्यक्ति न केवल आर्थिक उन्नति कर सकता है, वरन् व्यक्तित्व विकास भी कर सकता है। इसीलिए अवसर मिलते ही गाँवों, कस्बों या छोटे नगरों से लोग महानगरों की ओर बढ़ जाते हैं। यहाँ अनेक प्रकार के कष्ट सहकर रहने में भी उन्हें कोई परेशानी नहीं होती।
महानगरों की साफ़ चौड़ी सड़कें, चमक-दमक भरे बाज़ार, मॉल, यातायात आदि उन्हें रोमांचित करते हैं। इनकी तुलना में गाँव-कस्बे आदि फीके और पिछड़े दिखाई देते हैं। इस पलायन ने महानगरों की समस्याओं में वृद्धि की है। वहाँ भीड़ बहुत बढ़ गई है, जिसकी वजह से वहाँ-भोजन, पानी, बिजली, यातायात के संसाधन कम पड़ने लगे हैं या उनमें कमियाँ आने लगी हैं। सरकार को चाहिए कि छोटे शहरों में भी रोज़गार के अवसर और शैक्षिक संस्थानों में बढ़ोतरी के प्रयास करे। मनोरंजन और विकास के साधनों को भी बढ़ाया जाए, जिससे महानगरों की ओर होता पलायन किसी हद तक नियंत्रित किया जा सकता है।
अथवा
हिंदी के आधुनिक युग के प्रवर्तक भारतेंदु हरिश्चंद्र द्धाय
लिखित नाटक ‘आत दुर्दशा की समीक्षा
आधुनिक हिंदी साहित्य के पुरोधा भारतेंदु हरिश्चंद्र द्वारा लिखित तथा राजकमल प्रकाशन द्वारा प्रकाशित नाटक ‘भारत-दुर्दशा’ में 19वीं सदी में ब्रिटिश शासन द्वारा भारत पर किए जा रहे अत्याचारों, भारत में व्याप्त निर्धनता, दयनीयता, अज्ञानता, बीमारियाँ, अंधविश्वासों आदि को प्रतीकात्मक रूप से चित्रित किया गया है। देशोद्धार के प्रयत्न असंगठित एवं अपरिपक्व रूप में सत्ता के कोप के भय से अत्यंत सीमित थे। आपसी मेल-जोल के सम्मेलनों को भी राजद्रोह करार देने वाली ब्रिटिश नीति के भयानक परिणामों से त्रस्त जनता संगठित होने का साहस नहीं कर पाती थी। इस कारण समग्र भारत की स्थिति अत्यंत दयनीय हो गई थी। वस्तुतः’ भारत-दुर्दशा की विषय-वस्तु 19वीं सदी के अंतिम चरण में भारत पर किए जा रहे अंग्रेज़ी शासन के अन्याय, अत्याचारों की व्यथा-कथा है। तत्कालीन सामाजिक अंधविश्वासों, अज्ञानता, अंध-धार्मिकता एवं सत्ता-कोप को लेखक ने प्रतीक पात्रों के माध्यम से व्यक्त किया है तथा तत्कालीन वातावरण एवं सामाजिक, राजनीतिक, धार्मिक एवं आर्थिक परिवेश को उजागर कर दिया है।
हिंदी के प्रथम नाटककार भारतेंदु की भाषा को इस नाटक में परिमार्जित खड़ीबोली कहा जा सकता है। पात्रों की भाषा मुहावरेदार प्रचलित खड़ीबोली है, किंतु गीतों में सामान्यतया ब्रजभाषा का ही प्रयोग हुआ है। कुल मिलाकर ‘भारत-दुर्दशा’ की भाषा सरल, सहज, पात्रानुकूल एवं प्रभावशाली है। नाटक के संवाद भाव-संप्रेषणीय तथा मार्मिक हैं।
‘भारत-दुर्दशा’ में अतीत के गौरव की चमकदार स्मृति है, आँसू भरा वर्तमान है और भविष्य निर्माण की भव्य प्रेरणा है। भारतेंदु के साहित्य से रुचि तथा तत्कालीन सामाजिक परिवेश को ठीक से समझने की इच्छा रखने वाले पाठकों को इसे अवश्य पढ़ना चाहिए।
उत्तर 7.
क्रेच एवं डे-बोर्डिंग स्कूल का बच्चों पर प्रभाव
इधर कुछ वर्षों से देश में मध्यम वर्ग, खासतौर पर कामकाजी एकल परिवारों में अपने बच्चों को क्रेच या डे-बोर्डिंग स्कूल में भेजने की प्रवृत्ति बढ़ी है। इन घरों में अर्थात् क्रेच में छह वर्ष तक के बच्चों को उनकी उम्र के अनुसार माहौल उपलब्ध कराने का प्रयास किया जाता है। तीन वर्ष तक की आयु के बच्चों को प्ले वे लर्निंग के माध्यम से तथा उसके बाद उन्हें किताबी ज्ञान से रू-ब-रू कराया जाता है। इन संस्थाओं द्वारा बड़ी रकम वसूलने के बाद भी उनमें बच्चों के हितों से जुड़े कायदे-कानूनों की अनदेखी आम बात हो गई है। किसी भी प्रकार की निगरानी तंत्र न होने से वहाँ दो प्रकार के नुकसान दिख रहे हैं। एक तो यह कि बच्चों में कितना गुणात्मक विकास हो रहा है, इसकी जानकारी न तो इन संस्थाओं के पास है और न ही बच्चों के माता-पिता के पास। दूसरा यह कि बच्चे माँ-बाप के नैसर्गिक प्रेम से वंचित हो रहे हैं। बाल मनोवैज्ञानिक बताते हैं कि पाँच वर्ष तक की उम्र बच्चों के विकास की सबसे संवेदनशील अवधि होती है। इसी अवस्था में बच्चा परिवार व दुनिया की जिंदगी में तालमेल बैठाता है। यही वह समय है जब परिवार, समाज, प्रकृति, सामाजिक संबंध इत्यादि उसके भविष्य की दिशा तय करते हैं। ये संस्थाएँ कामकाजी परिवारों को एक समाधान तो देती हैं, पर ऐसे माहौल में पलने वाले बच्चों की सामाजिक, सांस्कृतिक और भावनात्मक नींव कमज़ोर हो रही है।
हाल ही में ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस की ओर से कराए गए एक शोध के नतीज़ों से यह बात सामने आई है कि जो माँ-बाप अपने बच्चों से सीधे संवाद नहीं रखते, ऐसे बच्चों की पढ़ाई बाधित होती है। साथ ही, वे कामयाबी की दौड़ में भी कमतर रह जाते हैं, परंतु आज की स्थिति यह है कि नगरों व महानगरों के कामकाजी परिवार नौकरी व काम के लंबे घंटों से उपजे तनाव से जूझ रहे हैं, जिसके कारण उनके पास बच्चों से संवाद करने का समय ही नहीं बचता।
भविष्य की वैश्विक ज़रूरतों और वर्तमान की प्रतिस्पर्धा को ध्यान में रखते हुए बाल मनोविज्ञान को समझना बहुत ज़रूरी है। आज वक्त की ज़रूरत यह है कि कामकाजी माँ-बाप बच्चे के समाजीकरण की प्रक्रिया में खुद को पिरोएँ। साथ ही, उनसे संवाद बनाकर उन्हें अपने भावनात्मक आँचल व वात्सल्य का आवरण प्रदान करें। ये आधुनिक क्रेच या डे-बोर्डिंग स्कूल हमारी ज़रूरत भले ही पूरी करते हों, लेकिन हमें कई तरह की समस्याएँ भी देते हैं। वहाँ बच्चों को वह भावनात्मक माहौल नहीं मिलता, जिसमें बचपन पलता और सँवरता है।
अथवा
आधुनिक या एकल परिवारों में बुजुर्गों की स्थिति
वर्तमान में संयुक्त परिवार की परंपरा टूट रही है और एकल परिवारों का प्रचलन बढ़ रहा है। आज का जीवन ‘एक मैं और एक तुम बस, इसी दायरे में सिमटकर रह गया है। ‘मैं’ का तो सबको पता है, परंतु ‘एक तुम’ की परिभाषा बदलती रहती है। यह बात बच्चा कभी अपनी माँ को कहता है, कभी जिगरी दोस्त, कभी प्रेयसी, कभी पत्नी को और गाना यहीं खत्म हो जाता है। विवाह सूत्र में बँधते ही पति-पत्नी सिर्फ अपने लिए ही रह जाते हैं। उनके दायरे में घर के बुजुर्ग या माता-पिता का कोई स्थान नहीं रहता है, उनके लिए ये लोग बेगाने हो जाते हैं।
यह विडंबना ही है कि आज एकल परिवार इतने छोटे और तंगदिल हो गए हैं कि उनमें माँ-बाप और बड़े-बुजुर्ग बाहरी व्यक्ति हो गए हैं। वे घर के केंद्र में नहीं, हाशिए पर खड़े हैं। भीष्म साहनी की कहानी ‘चीफ़ की दावत’ में माँ को मेहमानों के सामने पड़ने से बचाने के लिए स्टोर रूम में बंद कराने से लेकर घर के बाहर तक भेजने के प्रबंध सोचे जाते हैं। पुत्र डरता है कि कहीं उसका बॉस उसकी बूढी माँ को देखकर उसे असभ्य और आँवार न समझ बैठे। बाहर के सौ व्यक्ति घर में दावत खाते हैं, मगर बूढ़ी माँ के लिए निरामिष भोजन की भी व्यवस्था नहीं। वह भूखी खुद के अस्तित्व को बचाने को बाध्य है। एकल परिवारों की महत्त्वाकांक्षाएँ बढ़ी-चढ़ी होती हैं। सब अपनी चिंताओं-योजनाओं में खोए रहते हैं। ऐसे में बुजुर्गों की आवश्यकताओं की सुध कौन ले? बुजुर्ग लोगों की स्थिति दिनों-दिन नौकर-नौकरानियों से भी बदतर हो जाती है, न कोई उनका हालचाल पूछता है, न ही दवा और न ही खाने-पीने आदि का ख्याल रखता है। अधिकांश बुजुर्ग मन-ही-मन घुटते रहते हैं। उनका अपना रचा हुआ प्यारा संसार ही उनके लिए कारावास बन जाता है।
उत्तर 8.
(क) रुबाई’ के शायर का नाम रघुपति सहाय ‘फिराक गोरखपुरी’ है। रुबाई उर्दू भाषा का छंद है, जिसकी पहली, दूसरी तथा चौथी पंक्तियाँ तुकांत होती हैं।
(ख) माँ अपने बच्चे को स्वच्छ, छलकते अर्थात् एकदम पारदर्शी साफ़ जल से नहला रही है। यहाँ माँ के वात्सल्य रूप का वर्णन कवि ने किया है। कवि द्वारा किया गया यह चित्रण एकदम जीवंत प्रतीत होता है।
(ग) उलझे हुए गेसुओं’ पद में गेसू का अर्थ बाल होता है। नहाने के बाद भीगे होने की वजह से बच्चे के बाल उलझ गए हैं, जिन्हें माँ कंघी से सँवारती है।
(घ) प्रस्तुत काव्यांश में माँ-बच्चे के प्रेम का सहज चित्रण हुआ है, जिसकी अभिव्यक्ति माँ के मुँह को बच्चे द्वारा देखने में निहित है। माँ बच्चे को निर्मल जल से नहलाकर उसके केश सँवारती है। घुटनों में कपड़े पहनाती माँ को बच्चा बड़े प्यार से देखता है।
अथवा
(क) कवि स्वयं एवं अपनी ‘प्रिया’ के बीच के संबंध को ‘अनकहा संबंध मानता है। वह इसे कोई नाम नहीं देना चाहता। इस’अनाम’ संबंध की गहराई को वह स्वयं महसूस करता है और कहता है कि उसकी प्रिया का प्रेम उस अनंत निर्झर के समान है, जिसका मीठा पानी बार-बार उसे पूरी तरह भिगोता रहता है।
(ख) कवि अपनी प्रिया को अपने जीवन में चाँद के समान अनुभव करता है, जो अपनी स्नेहरूपी चाँदनी से उसे आच्छादित कर देती है। वह अपनी चाँदनी से अपने प्रिय को शीतलता, सौम्यता प्रदान करती है।
(ग) कवि अपनी ‘प्रिया’ से अत्यधिक प्रेम करता है। वह अपनी प्रिया की प्यारी प्रत्येक चीज़ को हर्ष के साथ स्वीकार करता है। कवि को लगता है कि उसकी ‘प्रिया’ को भी उससे असीम प्रेम है। इसीलिए वह उससे जुड़ी हर चीज़ से प्रेम करती है, चाहे वह उसकी ‘गरीबी’ ही क्यों न हो?
(घ) यहाँ कवि ने अपने जीवन के समस्त खट्टे-मीठे अनुभवों एवं दुःखों को इसलिए स्वीकार किया है, क्योंकि वे सभी उसकी प्रिया से जुड़े हुए हैं। वह उन्हें उसी की देन मानता है। जीवन के संघर्षों के मध्य कवि के मन-मस्तिष्क पर उसकी प्रिया की स्मृति, उसकी सूरत उसी प्रकार छाई हुई है, जैसे अँधेरी रात में धरती पर चाँद छाया रहता है अर्थात् धरती पर चाँदनी बिखेरकर उसे आलोकित करता रहता है।
उत्तर 9.
(क) प्रस्तुत काव्यांश में तुलसीदास ने भ्रातृशोक में विलाप करते राम के व्यक्तित्व का करुण चित्रण किया है। राम, लक्ष्मण की मूच्र्छा के कारण शोकग्रस्त होकर विलाप करते हुए एक साधारण मनुष्य की भाँति असहाय एवं दीन दिखाई देते हैं। वे लक्ष्मण से उस प्रेम के लिए जाग उठने को कहते हैं, जिसके कारण वनवास का आदेश मिलने पर लक्ष्मण ने सहर्ष भाव से उनकी सहायता के लिए राजमहल और परिवार के सुखों का परित्याग कर वन चलना स्वीकार किया और हर क्षण उनकी सेवा के लिए तत्पर रहे। आधी रात तक हनुमान के ‘संजीवनी’ लेकर न लौटने के कारण राम का मन शंकाओं से घिर गया है। वे अधीर होकर लक्ष्मण को हृदय से लगा रहे हैं।
(ख) काव्यांश की भाषा अवधी है। यहाँ चौपाई छंद द्वारा भावाभिव्यक्ति की गई है। पूरे काव्यांश में करुण एवं वात्सल्य रस की प्रधानता है। काव्य में संगीतात्मकता एवं गेयता का गुण विद्यमान है। भाषा की सहजता प्रेम व करुणा की अभिव्यक्ति में सहायक है। अलंकारों के बिना भी भाषा प्रवाहमयी है।
(ग) प्रस्तुत काव्यांश में चौपाई छंद का प्रयोग है। चौपाई छंद 16-16 मात्राओं का मात्रिक छंद है। इसकी चार पंक्तियों में समरूप से 16 मात्राओं का नियोजन किया जाता है।
अथवा
(क) प्रस्तुत काव्यांश में कवि ने कविता अथवा समग्र रूप से साहित्य को अलौकिक बताते हुए उसे अमृत के समान एवं अनंतकाल तक स्थायी बना रहने वाला बताया है। साहित्य रस का अक्षय पात्र है और कविता उसकी सर्वाधिक हृदयग्राही अंतर्वस्तु प्रत्येक साहित्यिक कृति या रचना अपने प्रभाव से उसका आस्वाद करने वाले को आनंदित एवं जीवन रस से सिक्त करती रहती है, फिर भी उसका महत्त्व घटता नहीं, अपितु समय के साथ नए भाव एवं अर्थ को ग्रहण करती हुई वह आने वाले समय के संदर्भ में भी मूल्यवान एवं प्रासंगिक बनी रहती है।
(ख) काव्यांश की भाषा सरल, सहज एवं प्रभावोत्मक है, जिसमें देशज शब्दों के साथ तत्सम शब्दों का भी प्रयोग हुआ है। काव्यांश छंद के बंधन से मुक्त है। इसका सौंदर्य अर्थलय में निहित है। मुक्त छंद में होने के बावजूद काव्यांश में गेयता को गुण विद्यमान है।
(ग) प्रस्तुत पंक्ति में रस का अक्षय पात्र से कवि का भाव कागज़ के खेत से है, जिससे कभी न समाप्त होने वाले अनंत जीवन रस से युक्त साहित्य रूपी अन्न उपजता है।
उत्तर 10.
(क) ‘दिन जल्दी-जल्दी ढलता है’ की आवृत्ति के द्वारा कविता में समय की अबाध गति की ओर संकेत किया गया है। दूसरे शब्दों में कहें तो ‘दिन के जल्दी-जल्दी ढलने की बात की बार-बार पुनरावृत्ति कर कवि ने यह स्पष्ट करना चाहा है कि समय तेज़ी से भाग रहा है। इसकी गति किसी के रोकने से नहीं रुकती। अतः हम सबको अपने सारे कार्य समय पर पूर्ण कर लेने चाहिए अन्यथा समय बीत जाने पर हम सिर्फ पछताते रह जाएँगे, क्योंकि बीता हुआ समय फिर से लौटकर नहीं आता। इन्हीं बातों को समझाने के लिए कवि ने मानव और चिड़ियों का उदाहरण दिया है कि रात अर्थात् अँधेरा हो जाने की आशंका में घर में प्रतीक्षारत परिजनों को यादकर थके-हारे पथिक तेज़ी से अपने घरों की ओर लौटने को व्यग्र हो जाते हैं, उसी समान चिड़ियाँ भी संध्या के समय तेज़ी से उड़कर अपने घोंसलों में लौट जाना चाहती है।
(ख) भादो वर्षा ऋतु का अंतिम महीना होता है। इस मास में बहुत वर्षा होती है। आकाश में हमेशा बादल घिरे रहते हैं। अतः चारों ओर अंधकार का साम्राज्य रहता है। वर्षा की झड़ी लगी रहती है, किंतु यहाँ उस समय का वर्णन किया जा रहा है जब वर्षा की ऋतु बीत गई है और शरद आ गया है। इस समय समस्त वातावरण स्वच्छ हो जाता है। सारी धूल-मिट्टी धुल जाती है। आसमान साफ़ हो जाता है। अब आकाश में बादल नहीं घिरते। अंधकार के स्थान पर अब चारों ओर प्रकाश फैल जाता है। इस स्वच्छ वातावरण में जब सुबह-सुबह सूरज आता है, तो आसमान पर लालिमा छा जाती है। प्रातःकालीन चमकीले आकाश की लाली कवि को खरगोश की आँखें याद दिला जाती हैं। वर्षा ऋतु के बाद प्रकृति में हुए इन्हीं परिवर्तनों का कवि ने वर्णन किया है।
(ग) ‘बात सीधी थी पर’ कविता में कवि भाषा के चक्कर में पड़ने के कारण बात के दुरूह और निरुद्देश्य हो जाने से परेशान है। उसने बात की सार्थकता को बचाए रखने के लिए भाषा को उल्टा-पलटा, तोड़-मरोड़ा लेकिन भाषा कठिन होती चली गई। अंततः बात की चूड़ी मर गई अर्थात् बात का महत्त्व समाप्त हो गया और उसने बात को कील की तरह ठोक दिया। इस कविता में कवि के साथ बात शरारती बच्चे की तरह खेल रही है। कवि कहना चाहता है कि बात रूपी पेंच को इतना नहीं घुमाना चाहिए कि उसकी चूड़ी रूपी भावना ही नष्ट हो जाए।
उत्तर 11.
(क) “कालिदास वज़न ठीक रख सकते थे’ पंक्ति से तात्पर्य यह है कि कालिदास अपनी रचनाओं में सुंदरता आदि का वर्णन करने के क्रम में विभिन्न पक्षों के महत्त्व को संतुलित रख सकते थे। वे वज़न ठीक रखने में सक्षम थे, क्योंकि वे अनासक्त योगी की स्थिर-प्रज्ञता और विदग्ध प्रेमी का हृदय पा चुके थे।
(ख) लेखक कहता है कि वह तो मुग्ध और विस्मय-विमूढ़ होकर कालिदास के एक-एक श्लोक को देखकर हैरान हो जाता है। सभी कवि कालिदास के समान नहीं हो सकते, क्योंकि कालिदास अनासक्त योगी की स्थिर-प्रज्ञता और विदग्ध प्रेमी का हृदय पा चुके थे। अतः उनकी कविताएँ और रचनाएँ भी अन्य कवियों से अलग होती थीं।
(ग) शकुंतला बहुत सुंदर थी और वह कालिदास के सुंदर हृदय से निकली थी। विधाता की ओर से भी किसी प्रकार की कमी नहीं थी और कवि की ओर से भी। राजा दुष्यंत भी उनके अच्छे प्रेमी थे। इसलिए शकुंतला के सौंदर्य वर्णन में सभी प्रकार के गुण निहित थे।
(घ) दुष्यंत ने शकुंतला का जो चित्र बनाया, उसमें उन्हें कुछ कमी-सी लगी। बहुत देर बाद उन्हें समझ आया कि शकुंतला के कानों में वे शिरीष का फूल और गले में सफ़ेद मृणाल का हार देना भूल गए हैं।
उत्तर 12.
(क) गली-मोहल्ला, गाँव-शहर हर जगह लोग गर्मी के कारण बेहाल थे। जेठ मास के बीतने के बाद आषाढ़ के भी 15 दिन बीत चुके थे, पर बारिश होने के कोई लक्षण नहीं थे। कुएँ सूखने लगे थे, नलों में पानी नहीं आता था। खेत की मिट्टी सूख-सूखकर पत्थर हो गई थी और पपड़ी पड़कर अब खेतों में दरारें भी पड़ने लगी थीं। झुलसा देने वाली लू चल रही थी। ढोर-डंगर प्यासे मर रहे थे, पर प्यास बुझाने के लिए पानी कहीं भी उपलब्ध नहीं था। अब ग्रामीण लोगों के पास कोई उपाय न होने के कारण वे पूजा-पाठ में लग गए थे। अंततः इंदर सेना भी इस उद्देश्य से निकल पड़ी थी।
(ख) लुट्टन पहलवान ने बचपन से ही कसरत करनी शुरू कर दी थी, किंतु उसने किसी भी गुरु से पहलवानी या कसरत की शिक्षा नहीं ली थी और न ही किसी से कुश्ती के दाँव-पेंच सीखे थे। उसने किसी को भी अपना गुरु नहीं माना था। वह अपनी शक्ति और दाँव-पेंच की परीक्षा ढोलक की आवाज़ के आधार पर लेता था। ढोलक की आवाज़ उसके शरीर में उमंग व स्फूर्ति भर देती थी। वह अखाड़े में उतरने से पहले ढोलक को प्रणाम करता था, क्योंकि उसने अपने गुरु का स्थान ढोलक को दे रखा था।
(ग) संतरा व माल्टा नामक दो फलों को मिलाकर एक नया फल कीनू पैदा किया जाता है। संतरा भारतीय परिवेश का फल है और माल्टा पाकिस्तानी परिवेश का। इन दोनों फलों के संकरण से उत्पन्न फल कीनू, माल्टे की ही तरह मीठा और रंगीन होता है तथा संतरे की तरह नाजुक होता है, इसलिए सफ़िया के दोस्त ने उचित ही कहा कि कीनू हिंदुस्तान और पाकिस्तान की एकता का मेवा है।
(घ) लेखक के अनुसार, ‘दासता’ की परिभाषा वह है, जिसमें किसी को किसी प्रकार की स्वतंत्रता न हो। यहाँ तक कि वह अपना व्यवसाय भी स्वयं न चुन सके। इसका सीधा अर्थ यह निकलता है कि उसे ‘दासता’ की जकड़ में रखा जाता है। ‘दासता केवल कानूनी पराधीनता को ही नहीं कहा जाता, बल्कि दासता में वह स्थिति भी शामिल है, जिसमें कुछ व्यक्तियों को दूसरे लोगों द्वारा निर्धारित व्यवहार एवं कर्तव्य का पालन करने के लिए विवश होना पड़ता है। कानूनी पराधीनता न होने पर भी यह स्थिति पाई जा सकती है। इस प्रकार की स्थिति में भी व्यक्ति को अपना जीवन विवश होकर जीना पड़ता है। जिसके फलस्वरूप वह मानसिक रूप से संतुष्टि का जीवन व्यतीत नहीं कर पाता।
(ङ) भक्तिन रात को भी लेखिका को अकेले नहीं छोड़ती थी। यदि लेखिका अपने सिरहाने रखे रैक की ओर देखती, तो भक्तिन आवश्यक पुस्तक का रंग पूछती, यदि वह कलम उठाती है, तो भक्तिन स्याही उठा लाती और यदि लेखिका कागज़ सरका देती, तो भक्तिन दूसरी फाइल टटोलती। सुबह में भक्तिन हमेशा ही लेखिका से पहले जाग जाती थी। बदरीनाथ जी व केदारनाथ जी के ऊँचे-नीचे रास्तों और तंग पहाड़ी रास्तों में वह हठ करके लेखिका के आगे-आगे चलती, जबकि गाँव की धूल-भरी पगडंडी पर वह लेखिका के पीछे चलना नहीं भूलती। किसी भी समय कहीं भी जाने के लिए लेखिका भक्तिन को अपनी छाया के समान साथ ही पाती थी।
उत्तर 13.
इल्या इहरनबुर्ग की यह टिप्पणी युद्ध की विभीषिका की इतनी अंतरंग अनुभूति है, जो न तो किसी संत की हो सकती है और न किसी कवि की। इन अनुभवों द्वारा हमें सत्य के दर्शन होते हैं। ऐन फ्रैंक अपनी पूरी ईमानदारी से अपने अनुभवों को प्यारी किट्टी के लिए डायरी में लिखती है। सभी यहूदी यातना सहने के लिए मजबूर थे, जबकि उनकी जनसंख्या 60 लाख थी। किसी में भी विरोध करने का साहस नहीं था, लेकिन ऐन फ्रैंक ने साहस किया, जबकि वह केवल 13 वर्ष की ही है।
इस डायरी में ऐन ने नाज़ियों की क्रूरता का वर्णन किया है। इसे पढ़कर हमें पता चलता है कि सामान्य लोगों पर भी युद्ध का कितना भयानक प्रभाव पड़ता है। यह (युद्ध) लोगों के जीवन को नरक बना देता है। किस तरह सारी क्षमताओं को जंग लग जाता है और निर्दोष नागरिकों को यातनागृहों में विवशता के साथ जीवन बिताना पड़ता है। सचमुच यह डायरी 60 लाख लोगों की ऐतिहासिक आवाज़ है।
उत्तर 14.
(क) जूझ’ कहानी का नायक पढ़ने में रुचि रखता है, जबकि उसके पिता आलसी तथा आवारा प्रवृत्ति के व्यक्ति हैं। वे उससे खेती का काम करवाना चाहते हैं, परंतु लेखक पढ़ना चाहता है। वह अपना लक्ष्य पाने के लिए संघर्ष करता है और गाँव के जमींदार की कृपा से उसकी पढ़ाई पुनः प्रारंभ होती है। उसे विद्यालय में अपने कपड़ों के कारण सहपाठियों के उपहास का पात्र बनना पड़ता है, परंतु इसे वह सहन कर लेता है तथा लेखक पढ़ाई की ओर ही ध्यान देता है। उसकी रुचि कविता लेखन में है और अपने मराठी शिक्षक की सहायता से वह धीरे-धीरे अच्छी कविताएँ लिखने में समर्थ हो जाता है। लेखक में विपरीत परिस्थितियों से जूझने की शक्ति है। और इसी शक्ति के कारण वह अपने लक्ष्य को पाने में सफल होता है।
वास्तव में, लेखक ने कहानी का शीर्षक ही नायक की समस्याओं से जूझने की प्रवृत्ति के कारण रखा है। इसलिए कथानायक के चरित्र की सर्वप्रथम विशेषता यही है। इसके अतिरिक्त, उसमें कठिन परिश्रम एवं लगनशीलता या दृढ़ संकल्प संबंधी चारित्रिक विशेषताएँ भी उल्लेखनीय हैं। वह पढ़ने के लिए किसी भी स्तर का परिश्रम करने को सहर्ष तैयार है और अपनी धुन में रमने की प्रवृत्ति यानी लगनशीलता के कारण ही वह उच्चस्तर का कवि बन सका।
(ख) यशोधर बाबू यह चाहते थे कि अब उनके बच्चे घर-गृहस्थी की ज़िम्मेदारी उठा लें, परंतु ऐसा होता नहीं है। उनके बड़े बेटे भूषण ने उन्हें उनकी शादी की 25वीं सालगिरह पर ड्रेसिंग ऊनी गाउन तो भेंट किया, पर साथ-ही-साथ यह भी कहा कि सुबह दूध लेने जब जाएँ, तो इसे अवश्य पहनकर जाएँ। भूषण ने यह नहीं कहा कि दूध मैं ही ले आऊँगा, आप ठंड में बाहर नहीं जाइएगा। इसी कारण यशोधर बाबू की आँखों में नमी आ गई। एक पिता को अपने पुत्र से सहयोग एवं आत्मीयता की अपेक्षा होती है। भूषण ऐसी किसी भी प्रकार की आत्मीयता प्रदर्शित नहीं करता है, इसी कारण यशोधर बाबू की आँखें भर आईं।
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