CBSE Sample Papers for Class 12 Hindi Paper 5 are part of CBSE Sample Papers for Class 12 Hindi. Here we have given CBSE Sample Papers for Class 12 Hindi Paper 5.
CBSE Sample Papers for Class 12 Hindi Paper 5
Board | CBSE |
Class | XII |
Subject | Hindi |
Sample Paper Set | Paper 5 |
Category | CBSE Sample Papers |
Students who are going to appear for CBSE Class 12 Examinations are advised to practice the CBSE sample papers given here which is designed as per the latest Syllabus and marking scheme as prescribed by the CBSE is given here. Paper 5 of Solved CBSE Sample Paper for Class 12 Hindi is given below with free PDF download solutions.
समय :3 घंटे
पूर्णांक : 100
सामान्य निर्देश
- इस प्रश्न-पत्र के तीन खंड हैं-क, ख और ग।
- तीनों खंडों के प्रश्नों के उत्तर देना अनिवार्य है।
- यथासंभव प्रत्येक खंड के उत्तर क्रमशः दीजिए।
प्रश्न 1.
निम्नलिखित गद्यांश को ध्यानपूर्वक पढ़कर पूछे गए प्रश्नों के उत्तर दीजिए (15)
वर्तमान सांप्रदायिक संकीर्णता के विषम वातावरण में संत-साहित्य की उपादेयता बहुत है। संतों में शिरोमणि कबीरदास भारतीय धर्म निरपेक्षता के आधार पुरुष हैं। संत कबीर एक सफल साधक, प्रभावशाली उपदेशक, महान् नेता और युग-द्रष्टा थे। उनुका समस्त काव्य विचारों की भव्यता और हृदय की तन्मयता तथा औदार्य से परिपूर्ण है। उन्होंने कविता के सहारे अपने विचारों को और भारतीय धर्म-निरपेक्षता के आधार को युग-युगांतर के लिए अमरता प्रदान की। कबीर ने धर्म को मानव धर्म के रूप में देखा था। सत्य के समर्थक कबीर हृदय में विचार-सागर और वाणी में अभूतपूर्व शक्ति लेकर अवतरित हुए थे। उन्होंने लोक-कल्याण की कामना से प्रेरित होकर स्वानुभूति के सहारे काव्य रचना की।
वे पाठशाला या मकतबे की ड्योढ़ी से दूर जीवन के विद्यालय में ‘मुसि कागद छुयो नहिं’ की दशा में जीकर सत्य, ईश्वर-विश्वास, प्रेम, अहिंसा, धर्म-निरपेक्षता और सहानुभूति का पाठ पढ़ाकर अनुभूतिमूलक ज्ञान का प्रसार कर रहे थे। कबीर ने समाज में फैले हुए मिथ्याचारों और कुत्सित भावनाओं की धज्जियाँ उड़ा दीं। स्वकीय भोगी हुई वेदनाओं के आक्रोश से भरकर समाज में फैले हुए ढोंग और ढकोसलों, कुत्सित विचारधाराओं के प्रति दो टूक शब्दों में उन्होंने जो बातें कहीं, उनसे समाज की आँखें फटी-की-फटी रह गईं और साधारण जनता उनकी वाणियों से चेतना प्राप्त कर उनकी अनुगामिनी बनने को व्यग्र हो उठी। देश की सामाजिक, राजनीतिक, धार्मिक, आर्थिक एवं सांस्कृतिक, सभी प्रकार की समस्याओं का समाधान वैयक्तिक जीवन के माध्यम से प्रस्तुत करने का अनूठा प्रयत्न संत कबीर ने किया। उन्होंने बाँह उठाकर बलपूर्वक कहा
कबीरा खड़ा बजार में, लिए लुकाठी हाथ।
जो घर जारे आपना, चले हमारे साथ।
(क) प्रस्तुत गद्यांश के लिए सर्वाधिक उपयुक्त शीर्षक दीजिए। (1)
(ख) आज संत-साहित्य को उपयोगी क्यों माना गया है? (2)
(ग) प्रस्तुत गद्यांश में संत-शिरोमणि किसे माना गया है और क्यों? (2)
(घ) अनुभूतिमूलक ज्ञान किसे कहते हैं? कबीर ने इसका प्रसार किस प्रकार से किया था? (2)
(ङ) सामान्य जनता कबीर के बताए मार्ग पर चलने के लिए क्यों व्यग्र हुई? (2)
(च) अपने जीवन के माध्यम से कबीर ने किन समस्याओं का समाधान प्रस्तुत किया? (2)
(छ) ‘जो घर जारे आपना, चले हमारे साथ’ पंक्ति का आशय स्पष्ट कीजिए। (2)
(ज) गद्यांश का केंद्रीय भाव लगभग 20 शब्दों में लिखिए। (2)
प्रश्न 2.
निम्नलिखित काव्यांश को ध्यानपूर्वक पढ़कर पूछे गए प्रश्नों के उत्तर दीजिए (1 × 5= 5)
किस भाँति जीना चाहिए, किस भाँति मरना चाहिए,
सो सुब हमें निज पूर्वजों से ज्ञात करना चाहिए।
पद-चिह्न उनके यत्नपूर्वक खोज लेना चाहिए,
निज पूर्व गौरव-दीप को बुझने न देना चाहिए।।
आओ मिलें सब देश-बांधव हार बनकर देश के,
साधुक बुनें सब प्रेम से सुख-शांतिमय उद्देश्य के।
क्या सांप्रदायिक भेद से है ऐक्य मिट सकता, अहो,
बनती नहीं क्या एक माला विविध सुमनों की, कहो।।
प्राचीन हों कि नवीन, छोड़ो रूढ़ियाँ जो हों बुरी,
बुनकर विवेकी तुम दिखाओ हंस की-सी चातुरी।
प्राचीन बातें ही भूली हैं-यह विचार अलीक है,
जैसी अवस्था हो जहाँ, वैसी व्यवस्था ठीक है।।
मुख से न होकर चित्त से देशानुरागी हो सदा,
हैं सब स्वदेशी बंधु, उनके दुःख-भागी हो सदा।
देकर उन्हें साहाय्य भरसक सुब विपत्ति व्यथा हरो,
निज दुःख से ही दूसरों के दुःख का अनुभव करो।।
(क) अतीत का गौरव बनाए रखने के लिए कवि हमें क्या परामर्श देता है?
(ख) काव्यांश में प्रयुक्त काव्य-पंक्ति ‘मुख से न होकर चित्त से देशानुरागी हो सदा-से क्या आशय है?
(ग) विविध सुमनों की एक माला’ का उदाहरण कवि ने क्यों दिया है?
(घ) कवि ने हंस का उल्लेख किस संदर्भ में किया है?
(ङ) अपने देशवासियों के साथ हमारा व्यवहार कैसा होना चाहिए?
प्रश्न 3.
निम्नलिखित में से किसी एक विषय पर अनुच्छेद लिखिए
(क) जनसंख्या वृद्धि : एक विकराल समस्या
(ख) पर्यावरण प्रदूषण
(ग) साहित्य समाज का दर्पण
(घ) विद्यार्थी जीवन में समय प्रबंधन का महत्त्व
प्रश्न 4.
भारत के खेलमंत्री को पत्र लिखकर निवेदन कीजिए कि राष्ट्रमंडल खेलों के बाद वर्ष 2020 के ओलंपिक खेल भारत में आयोजित करवाए जाएँ।
अथवा
भारत सरकार के गृह मंत्रालय के सचिव की ओर से मुख्य सचिव, पंजाब राज्य को एक सरकारी पत्र लिखिए, जिसमें राज्य की कानून व्यवस्था की बिगड़ती हुई स्थिति पर चिंता व्यक्त की गई हो। (5)
प्रश्न 5.
निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर संक्षेप में दीजिए (1 × 5 = 5)
(क) एफ. एम. रेडियो प्रसारण से क्या समझते हैं? भारत में इसकी शुरुआत कब की गई?
(ख) ‘एडवोकेसी’ पत्रकारिता किसे कहते हैं?
(ग) संवाददाता किसे कहते हैं?
(घ) समाचार-पत्र को सबसे अधिक सशक्त जनसंचार माध्यम क्यों माना जाता है?
(ङ) जनसंचार के ‘लोक माध्यम’ कौन-कौन से हैं?
प्रश्न 6.
‘खाद्य पदार्थों की गुणवत्ता’ विषय पर आलेख लिखिए।
अथवा
हाल ही में पढ़ी गई किसी पुस्तक की समीक्षा लिखिए।
प्रश्न 7.
‘फेसबुक पर बच्चे’ अथवा ‘हमारे देश पर पड़ता विदेशी प्रभाव’ में से किसी एक विषय पर फ़ीचर लेखन तैयार कीजिए। (5)
प्रश्न 8.
निम्नलिखित काव्यांश को ध्यानपूर्वक पढ़कर पूछे गए प्रश्नों के उत्तर दीजिए (2 × 4 = 8)
इसलिए कि तुमसे ही परिवेष्टित आच्छादित
रहने का रमणीय यह उजेला अब
सहा नहीं जाता है।
नहीं सहा जाता है।
ममता के बादल की मँडराती कोमलता भीतर पिराती है।
कमज़ोर और अक्षम अब हो गई है आत्मा यह
छटपटाती छाती को भवितव्यता डराती है।
बहलाती सहलाती आत्मीयता बर्दाश्त नहीं होती है।।
(क) कवि किसे सहन नहीं कर पा रहा है?
(ख) कवि अपनी प्रिया की आत्मीयता को बर्दाश्त क्यों नहीं कर पा रहा है?
(ग) कवि भविष्य के प्रति आशंकित क्यों है?
(घ) प्रस्तुत काव्यांश का केंद्रीय भावे स्पष्ट कीजिए।
अथवा
अब अपलोकु सोकु तोरा। सहिहि निठुर कठोर उर मोरा।।
निज जननी के एक कुमारा। तात तासु तुम्ह प्रान अधारा।।
सौंपेसि मोहि तुम्हहि गहि पानी। सब बिधि सुखद परम हित जानी।।
उतरु काह देहउँ तेहि जाई। उठि किन मोहि सिखावहु भाई।।।
बहु बिधि सोचत सोच बिमोचन। स्रवत सलिल राजिव दल लोचन।।
उमा एक अखंड रघुराई। नुर गति भगृत कृपालु देखाई।।
सोरठी
प्रभु प्रलाप सुनि कान, बिकल भए बानर निकर।
आइ गयउ हनुमान, जिमि करुना मुँह बीर रस।।
(क) लक्ष्मण से संभावित वियोग का दुःख राम किस प्रकार प्रकट करते हैं?
(ख) राम अपने भाई लक्ष्मण की माता के विषय में क्या कहते हैं?
(ग) भगवान शंकर ने उमा से क्या कहा?
(घ) हनुमान के आगमन से क्या हुआ?
प्रश्न 9.
निम्नलिखित काव्यांश को ध्यानपूर्वक पढ़कर पूछे गए प्रश्नों के उत्तर लिखिए (2 × 3 = 6)
हार कर मैंने उसे कील की तरह
उसी जगह ठोक दिया।
ऊपर से ठीक ठाक
पर अंदर से
न तो उसमें कसाव था
नु ताकत
बात ने, जो एक शरारती बच्चे की तरह
मुझसे खेल रही थी,
मुझे पसीना पोंछते देख कर पूछा
क्या तुमने भाषा को
सहूलियत से बरतना कभी नहीं सीखा?”
(क) प्रस्तुत काव्यांश के शिल्प-सौंदर्य को स्पष्ट कीजिए।
(ख) काव्यांश के भाषा-सौंदर्य पर प्रकाश डालिए।
(ग) भाषा को “सहूलियत से बरतना” का भाव-सौंदर्य अपने शब्दों में लिखिए।
अथवा
नौरस गुंचे पंखड़ियों की नाजुक गिरहें खोले हैं
या उड़ जाने को रंगों-बू गुलशन में पर तोले हैं।
तारे आँखें झपकावे हैं ज़र्रा-ज़र्रा सोए हैं।
तुम भी सुनो हो यारो! शब में सन्नाटे कुछ बोले हैं।
हम हों या किस्मत हो हमारी दोनों को इक ही काम मिला
किस्मृतु हमको रो लेवे है हम किस्मृतु को रो लेते हैं।
(क) काव्यांश का भाव-सौंदर्य अपने शब्दों में लिखिए।
(ख) काव्यांश में प्रयुक्त उर्दू भाषा के शब्दों को छाँटकर लिखिए।
(ग) काव्यांश में कौन-सा रस प्रयुक्त हुआ है? स्पष्ट कीजिए।
प्रश्न 10.
निम्नलिखित में से किन्हीं दो प्रश्नों के उत्तर दीजिए (3 × 2 = 6)
(क) कैमरे में बंद अपाहिज कविता को आप करुणा की कविता मानते हैं या क्रूरता की? तर्कसम्मत उत्तर दीजिए।
(ख) “बहलाती सहलाती आत्मीयता बर्दाश्त नहीं होती है और कविता के शीर्षक सहर्ष स्वीकारा है’ में आप कैसा अंतर्विरोध पाते हैं? स्पष्ट कीजिए।
(ग) कविता के किन उपमानों को देखकर कहा जा सकता है कि ‘उषा’ कविता गाँव की सुबह का गतिशील शब्द-चित्र है?
प्रश्न 11.
निम्नलिखित गद्यांश को ध्यानपूर्वक पढ़कर पूछे गए प्रश्नों के उत्तर दीजिए (2 × 4= 8)
जैसे मेरे नाम की विशालता मेरे लिए दुर्वह है, वैसे ही लक्ष्मी की समृद्धि भक्तिन के कपाल की कुंचित रेखाओं में नहीं बँध सकी। वैसे तो जीवन में प्राय: सभी को अपने-अपने नाम का विरोधाभास लेकर जीना पड़ता है, पर भक्तिन बहुत समझदार है, क्योंकि वह अपना समृद्धि-सूचक नाम किसी को बताती नहीं। केवल जब नौकरी की खोज में आई थी, तब ईमानदारी का परिचय देने के लिए उसने शेष इतिवृत्त के साथ यह भी बता दिया, पर इस प्रार्थना के साथ कि मैं कभी नाम का उपयोग न करूं। उपनाम रखने की प्रतिभा होती, तो मैं सबसे पहले उसको प्रयोग अपने ऊपर करती, इस तथ्य को वह देहातिन क्या जाने!
(क) वह ‘देहातिन’ कौन थी? उसने लेखिका से अपने नाम का उपयोग न करने की प्रार्थना क्यों की?
(ख) ‘मेरे नाम की विशालता मेरे लिए दुर्वह है’-पंक्ति के आशय को स्पष्ट कीजिए।
(ग) “लक्ष्मी की समृद्धि कपाल की कुंचित रेखाओं में नहीं बँध सकी”-पंक्ति का अभिप्राय स्पष्ट कीजिए।
(घ) लेखिका को भक्तिन के वास्तविक नाम की जानकारी कब, किस तरह से हुई?
प्रश्न 12.
निम्नलिखित में से किन्हीं चार प्रश्नों के उत्तर दीजिए
(क) लेखक ने शिरीष के फूल की तुलना किन नेताओं से की है और क्यों?
(ख) “मानचित्र पर एक लकीर खींच देने भर से ज़मीन और जनता बँट नहीं जाती”-‘नमक’ कहानी के आधार पर उदाहरणों के ज़रिए प्रस्तुत पंक्ति की पुष्टि करें।
(ग) चार्ली चैप्लिन की फ़िल्मों में निहित त्रासदी, करुणा, हास्य का सामंजस्य भारतीय कला और सौंदर्यशास्त्र की परिधि में क्यों नहीं आता?
(घ) लाशों को बिना कफ़न के ही पानी में बहा देने की सलाह क्यों दी जा रही थी? ‘पहलवान की ढोलक’ कहानी के आधार पर स्पष्ट कीजिए।
(ङ) ‘काले मेघा पानी दे’ पाठ के लेखक की जीजी के तर्कों के आधार पर ‘त्याग’ के अर्थ को स्पष्ट कीजिए।
प्रश्न 13.
“काश! कोई तो ऐसा होता जो मेरी भावनाओं को गंभीरता से समझ पाता। अफ़सोस, ऐसा व्यक्ति मुझे अब तक नहीं मिला।” क्या आपको लगता है कि ऐन के इस कथन में उसके डायरी लेखन का कारण छिपा है? (5)
प्रश्न 14.
(क) “सिंधु सभ्यता के अवशेष तकनीकी सिद्धांत की अपेक्षा उसके आडंबरविहीन कला प्रेम को दर्शाते हैं, जो समाज से समर्थित हैं” स्पष्ट कीजिए। (5)
(ख) जूझ’ कहानी के शीर्षक का औचित्य सिद्ध कीजिए। (5)
उत्तर
उत्तर 1.
(क) प्रस्तुत गद्यांश का सर्वाधिक उपयुक्त शीर्षक ‘युग-द्रष्टा संत कबीर’ हो सकता है।
(ख) संत-साहित्य में प्रेम, भाईचारा एवं सद्भावना पर अत्यधिक ज़ोर दिया गया है। आज का सामाजिक वातावरण सांप्रदायिक संकीर्णता के कारण काफ़ी विषम हो गया है, इसी कारण आज संत-साहित्य को अधिक उपयोगी माना जाता है।
(ग) प्रस्तुत गद्यांश में कबीरदास को संतों में शिरोमणि माना गया है, क्योंकि वे धर्म-निरपेक्षता के आधार पुरुष होने के साथ-साथ एक सफल साधक, प्रभावशाली उपदेशक, महान् नेता एवं युग-द्रष्टा थे। उन्होंने अपनी कविता के माध्यम से मानवीय मूल्यों एवं धर्म-निरपेक्षता की भावना को युग-युगांतर के लिए अमरता प्रदान की।
(घ) जिस ज्ञान को अपने जीवन के अनुभवों से प्राप्त किया जाता है, उसे अनुभूतिमूलक ज्ञान कहते हैं। कबीर ने पाठशाला या मकतब से दूर जीवन के विद्यालय में ‘मसि कागद छुयो नहिं’ की दशा में जीकर सत्य, ईश्वर-विश्वास, प्रेम, अहिंसा, धर्म-निरपेक्षता और सहानुभूति का पाठ पढ़ाकर अनुभूतिमूलक ज्ञान का प्रसार किया था।
(ङ) कबीर ने समाज में व्याप्त मिथ्याचारों एवं कुत्सित भावनाओं, विचारों, ढोंग एवं ढकोसलों के प्रति स्पष्ट शब्दों में सभी को चुनौती देते हुए अपनी बातें कहीं, जिससे समूचा समाज आश्चर्यचकित हो गया और सभी लोग कबीर के बताए मार्ग पर चलने के लिए व्यग्र हो गए।
(च) अपने जीवन के माध्यम से कबीर ने समाज में फैली हुई कुरीतियों, अत्याचारों, बाह्याडंबरों का खुलकर विरोध किया अर्थात् कबीर ने | अपने जीवन के माध्यम से देश में व्याप्त सामाजिक, राजनीतिक, धार्मिक, आर्थिक एवं सांस्कृतिक सभी प्रकार की समस्याओं का समाधान प्रस्तुत किया है।
(छ) “जो घर जारे आपना चले हमारे साथ पंक्ति का आशय यह है कि जो व्यक्ति मेरी (कबीर) तरह सांसारिक मोह-माया के बंधन को तोड़ने, माया की नगरी को जलाने के लिए तैयार है, वही मेरे साथ चल सकता है, क्योंकि मैंने सांसारिक मोह-माया के बंधन और घर को पहले ही जला दिया है। अब मैं जलती हुई लकड़ी से दूसरों के मोह-माया के बंधन रूपी घर को जलाने अर्थात् सबको परमपिता परमेश्वर के वास्तविक स्वरूप से परिचित कराने के लिए तैयार हूँ।
(ज) प्रस्तुत गद्यांश के केंद्र में संत काव्य धारा के प्रमुख कवि कबीरदास हैं। यहाँ कबीरदास के विचारों को प्रस्तुत किया गया है। उन्होंने समाज में व्याप्त कुरीतियों, अत्याचारों, बाह्याडंबरों का खुलकर विरोध किया तथा सामाजिक, सांस्कृतिक, धार्मिक, राजनीतिक सभी प्रकार की समस्याओं का समाधान भी प्रस्तुत किया।
उत्तर 2.
(क) कवि परामर्श देते हुए कहता है कि हम पूर्वजों द्वारा दिखाए गए मार्ग पर चलकर अतीत का गौरव बनाए रख सकते हैं। इसके लिए हमें एकताबद्ध होकर सुख-शांति एवं प्रेम से रहना चाहिए।
(ख) प्रस्तुत काव्य पंक्ति मुख से न होकर चित्त से देशानुरागी हो सदा” से आशय यह है कि हमें अपनी देशप्रेम संबंधी भावना को केवल बोलकर नहीं, बल्कि अपनी सोच से एवं अपने चिंतन से, अपने कर्मों से व्यक्त करना चाहिए।
(ग) विविध सुमनों की एक माला’ से कवि का तात्पर्य भारत की सांस्कृतिक विविधता के बीच व्याप्त एकता की भावना से है। जिस प्रकार एक माला में भाँति-भाँति के विविध फूल गुंथे होते हैं, ठीक उसी प्रकार भारत रूपी माला में विभिन्न धर्मों, जातियों एवं समुदायों के रूप में अनेक पुष्प जुड़े हुए हैं।
(घ) हंस की विशेषता होती है कि वह पानी और दूध को पृथक् करके दूध को ग्रहण करता है और पानी को यूँ ही छोड़ देता है। काव्यांश में कवि उसके इसी गुण से सीख लेते हुए हमें अपने विवेक के सहारे प्राचीन अथवा नवीन, दोनों ही प्रकार की रूढ़ियों की पहचान कर उनका त्याग कर देने की चतुराई दिखाने की बात कह रहा है।
(ङ) हमें अपने देशवासियों को अपना भाई-बंधु मानकर, उनके सुख-दुःख में भागीदार बनकर उनके साथ प्रेम एवं सौहार्दपूर्ण व्यवहार करना चाहिए।
उत्तर 3.
(क) जनसंख्या वृद्धि: एक विकराल समस्या
सुप्रसिद्ध विचारक गार्नर का कहना है कि जनसंख्या किसी भी राज्य के लिए उससे अधिक नहीं होनी चाहिए, जितनी साधन-संपन्नता राज्य के पास है। जनसंख्या किसी भी देश के लिए वरदान होती है, परंतु जब अधिकतम सीमा-रेखा को पार कर जाती है, तब वही अभिशाप बन जाती है। वर्तमान में जनसंख्या की दृष्टि से भारत का विश्व में चीन के बाद दूसरा स्थान है। हमारे सामने अभी जनसंख्या-विस्फोट की समस्या अत्यधिक विकराल है। बढ़ती हुई जनसंख्या को अनुमान इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि स्वतंत्रता प्राप्ति के समय भारत की जनसंख्या मात्र 36 करोड़ थी, जो वर्ष 2011 की जनगणना के अनुसार, बढ़कर 121 करोड़ से भी अधिक हो गई है।
जनसंख्या वृद्धि के विभिन्न महत्त्वपूर्ण कारणों में जन्म एवं मृत्यु दर के बीच अधिक दूरी, विवाह के समय कम आयु, अत्यधिक निरक्षरता, परिवार नियोजन के प्रति धार्मिक दृष्टिकोण, निर्धनता (अधिक हाथ अधिक आमदनी का सिद्धांत), मनोरंजन के साधनों की कमी, संयुक्त परिवार, परिवारों में युवा दंपतियों में अपने बच्चों के पालन-पोषण के प्रति जिम्मेदारी में कमी आदि उल्लेखनीय हैं।
जनसंख्या वृद्धि का प्रत्यक्ष प्रभाव लोगों के जीवन-स्तर पर पड़ता है। यही कारण है कि स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद से कृषि एवं औद्योगिक क्षेत्रों में चामत्कारिक प्रगति के बावजूद यहाँ प्रति व्यक्ति आय में संतोषजनक वृद्धि नहीं हो पाई है।
भारत जैसे विकासशील देश में बढ़ती जनसंख्या पर नियंत्रण पाना अत्यंत आवश्यक है अन्यथा इसके परिणामस्वरूप देश में अशिक्षा, गरीबी, बीमारी, भुखमरी, बेरोज़गारी, आवासहीनता जैसी कई समस्याएँ उत्पन्न होंगी और देश का विकास अवरुद्ध हो जाएगा। अतः जनसंख्या को नियंत्रित करने के लिए केंद्र एवं राज्य सरकारों के साथ-साथ देश के प्रत्येक नागरिक को इस विकट समस्या से लड़ना होगा। जनसंख्या वृद्धि रोकने हेतु शिक्षा का व्यापक स्तर पर प्रचार-प्रसार अति आवश्यक है। महिलाओं के शिक्षित होने से विवाह की आयु बढ़ाई जा सकती है। मीडिया को भी इस कार्य में बढ़-चढ़कर हिस्सा लेने की आवश्यकता है। इन सब बातों पर ध्यान देकर जनसंख्या विस्फोट पर निश्चय ही नियंत्रण पाया जा सकता है।
(ख) पर्यावरण प्रदूषण
पृथ्वी पर गैसों का आनुपातिक संतुलन बिगड़ गया, जिससे विश्व की जलवायु पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा एवं प्रदूषण का स्तर इतना अधिक बढ़ गया कि यह अनेक जानलेवा बीमारियों का कारण बन गया। इस तरह पर्यावरण में प्रदूषकों (अपशिष्ट पदार्थों) का इस अनुपात में मिलना, जिससे पर्यावरण का संतुलन बिगड़ता है, प्रदूषण कहलाता है। पर्यावरण प्रदूषण के कई रूप हैं-जल प्रदूषण, वायु प्रदूषण, भूमि प्रदूषण, ध्वनि प्रदूषण इत्यादि। उद्योगों से निकलने वाले रासायनिक अपशिष्ट पदार्थ जल एवं भूमि प्रदूषण का तो कारण बनते ही हैं, साथ ही इनके कारण वातावरण में विषैली गैसों के फैलने से वायु भी प्रदूषित होती है। मनुष्य ने अपने लाभ के लिए जंगलों की तेज़ी से कटाई की है। पेड़ प्राकृतिक रूप से प्रदूषण नियंत्रक का काम करते हैं।
प्रौद्योगिकी में प्रगति के साथ ही मनुष्य की मशीनों पर निर्भरता बढ़ी है। मोटर, रेल, घरेलू मशीनें आदि से निकलने वाला धुआँ भी पर्यावरण के प्रदूषण के प्रमुख कारकों में से एक है। रासायनिक एवं चमड़े के उद्योगों के अपशिष्टों को नदियों में बहा दिया जाता है। इस कारण जल प्रदूषित हो जाता है एवं नदियों में रहने वाले जंतुओं पर भी प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। पर्यावरण प्रदूषण के कई दुष्परिणाम सामने आए हैं। इसका सर्वाधिक प्रतिकूल प्रभाव मानव के स्वास्थ्य पर पड़ा है। आज मनुष्य को शरीर अनेक बीमारियों का घर बनता जा रहा है। वातावरण में घुली विषैली गैसों एवं धुएँ के कारण शहरों में मनुष्य का साँस लेना भी मुश्किल होता जा रहा है।
पर्यावरण प्रदूषण को दूर करने के लिए हमें कुछ आवश्यक उपाय करने होंगे। मनुष्य स्वाभाविक रूप से प्रकृति पर निर्भर है। प्रकृति पर उसकी निर्भरता तो समाप्त नहीं की जा सकती, किंतु प्राकृतिक संसाधनों का उपयोग करते समय हमें इस बात का ध्यान रखना पड़ेगा कि इसको प्रतिकूल प्रभाव पर्यावरण पर न पड़ने पाए। इसके लिए हमें उद्योगों की बढ़ती संख्या के अनुपात में बड़ी संख्या में नए वृक्षों को लगाने की आवश्यकता है।
इसके अलावा पर्यावरण प्रदूषण को कम करने के लिए हमें जनसंख्या को स्थिर बनाए रखने की भी आवश्यकता है। यदि हम चाहते हैं। कि प्रदूषण कम हो एवं पर्यावरण की सुरक्षा के साथ-साथ संतुलित विकास भी हो, तो इसके लिए हमें नवीन प्रौद्योगिकी का प्रयोग करना होगा। प्राकृतिक संसाधनों की सुरक्षा तभी संभव है, जब हम इसका उचित प्रयोग करें।
(ग) साहित्य : अमाज का दर्पण
साहित्य में मानवीय समाज के सुख-दुःख, आशा-निराशा, साहस-भय और उत्थान-पतन का स्पष्ट चित्रण रहता है। साहित्य की इन्हीं विशेषताओं के कारण इसे ‘समाज का दर्पण’ कहा जाता है। मनुष्य के सहज स्वभाव के अनुसार, साहित्य भी परिवर्तित होता रहता है। इसका कारण यह है कि साहित्यकार समय की विचारधारा से अछूता नहीं रह सकता। जीवन की तरह साहित्य में भी संघर्ष और निरंतरता चलती रहती है। इसीलिए साहित्य समाज का दर्पण कहलाता है और कहलाए भी क्यों न, समय और परिस्थिति का प्रभाव साहित्य पर अनिवार्य रूप से जो पड़ता है। साहित्य ही वर्तमान को सामने रखकर भविष्य की रूपरेखा तय करता है। समाज की सुषुप्त विवेकशक्ति को जाग्रत करना साहित्य का बुनियादी लक्ष्य है।
अपने समय के सच को उजागर करने के साथ ही गुणात्मक साहित्य सदैव प्रासंगिक बना रहता है तथा जनमानस को आलोक स्तंभ के समान एक दिशा और प्रकाश देता है। कहने की आवश्यकता नहीं कि श्रेष्ठ साहित्य वही होता है, जो अपने भीतर-बाहर सार्वभौमिक मूल्यों, संदेशों एवं उद्देश्यों को समाए रहता है। मिसाल के तौर पर कबीरदास, रवींद्रनाथ टैगोर, शरतचंद्र, प्रसाद, रेणु, प्रेमचंद, शेक्सपीयर, होमर, मिल्टन आदि नामें मानव एवं समाज की चेतना में रच-बस चुके हैं। ये साहित्यकार मनुष्य की नियतिगत विवशताओं के सामने विकल्पों, प्रारूपों तथा संभावनाओं का मानचित्र खड़ा करके प्रतिरोधक बल की सिद्धि को मार्ग-प्रशस्त करते हैं। निःसंदेह साहित्यकार साहित्य का सृजन जीवन की ठोस सामग्री से करता है और जीवन को प्रेरित करने के लिए उस सामग्री को सुघड़ बनाता है।
साहित्य और समाज का संबंध अन्योन्याश्रित है। एक ओर न तो साहित्य समाज को समझे बगैर कुछ सीख सकता है और न ही कोई सीख दे सकता है, तो दूसरी ओर, यह भी उतना ही सत्य है कि कोई भी समाज साहित्यविहीन नहीं होता है और न ही हो सकता है। हर बड़ा रचनाकार कुल मिलाकर समाज-विशेष की देन होता है और उसी समाज-विशेष की भाषा, संस्कृति, परंपराओं और इतिहास के दायरे में उसकी रचनात्मकता अभिव्यक्ति पाती है। इसलिए जिस साहित्य का अपने समाज से जितना आदान-प्रदान होगा, वह साहित्य उतना ही जीवंत, संवेदनशील एवं प्रभावशाली होगा।
(घ) विद्यार्थी जीवन में अमय प्रबंधन का महत्त्व
समय को हमारे जीवन में महत्त्वपूर्ण स्थान है। खोया हुआ धन पुनः अर्जित किया जा सकता है, खोया वैभव पुनः प्राप्त किया जा सकता है, स्वास्थ्य उचित चिकित्सा से पाया जा सकता है, विद्या विस्तृत प्रयासों से पुनः अर्जित की जा सकती है, किंतु समय को एक बार खोने के बाद पुनः प्राप्त नहीं किया जा सकता। समय निरंतर गतिशील रहता है। समय का सदुपयोग कर जीवन को नई दिशा और उन्नति प्रदान की जा सकती है।
विद्यार्थी जीवन में यदि समय का सही प्रबंधन करके चलें, तो वह जीवन-पथ पर आशातीत प्रगति के अवसर पाता है। विद्यार्थियों को चाहिए कि वे हर कार्य को निश्चित समय या अवधि से पहले ही समाप्त कर लें, जिससे बचे हुए समय में दूसरे कामों को भी देखा जा सके और उनकी रूपरेखा बनाई जा सके।
खाली समय का भी ऐसा प्रबंधन करें कि वह भी उपयोगी हो। इस कार्य में विद्यार्थी अपने शिक्षकों या बड़ों की मदद ले सकते हैं। विद्यार्थी अपने खाने-पीने, खेलने-पढ़ने, सोने-जागने आदि के लिए एक तालिका का निर्माण कर समय को व्यवस्थित करें।
जीवन में वही लोग उन्नति एवं सफलता प्राप्त करते हैं, जो समय का मूल्य एवं महत्त्व जानते हैं। विद्यार्थियों के लिए तो एक-एक पल कीमती होता है।
विद्यार्थियों को चाहिए कि वे उन व्यक्तियों का अनुसरण करें, जीवन से प्रेरणा लें, जिन्होंने समय के सही उपयोग से सफलता अर्जित की है। टाटा, बिड़ला, सचिन तेंदुलकर, संजीव कपूर, धनराज पिल्लै आदि अनेकों नाम हैं, जिन्होंने समय की नब्ज़ पहचानकर उसे अपने हिसाब से चलने के लिए बाध्य कर दिया।
समय के लिए अंग्रेजी में एक उक्ति कही जाती है, “टाइम इज़ मनी’ अर्थात् ‘समय ही धन है।” जो विद्यार्थी इस धन को लापरवाही से यूँ ही लुटाता रहता है, वह एक दिन समय का रोना रोता है। इसलिए समय की बहुमूल्यता को जानकर विद्यार्थियों को इसका सही प्रबंधन सीखना चाहिए, क्योंकि तभी वे जीवन में सफल हो सकेंगे।
उत्तर 4.
परीक्षा भवन,
दिल्ली।
दिनांक 12 जून, 20××
सेवा में,
मंत्री महोदय,
खेल मंत्रालय,
भारत सरकार
विषय वर्ष 2020 के ओलंपिक खेल भारत में आयोजित करवाए जाने के संदर्भ में।
महोदय,
विगृत राष्ट्रमंडल खेलों में भारत का शानदार प्रदर्शन रहा है। इससे खेलों के साथ सभी देशों के बीच मैत्री भाव सुदृढ़ हुए हैं। भारत को विश्व स्तर पर अपनी क्षमता, आतिथ्य, खेल कौशल दिखाने का उचित अवसर मिला। इसलिए वर्ष 2020 में आयोजित होने वाले ओलंपिक खेल के संदर्भ में मैं चाहता हूँ कि इस बार यह खेल भारत में आयोजित किए जाएँ, जिससे भारत की गरिमा में चार चाँद लग सकें और हम भारतीयों का सिर गर्व से ऊँचा हो सके। आपसे पुनः निवेदन है कि मेरे पत्र की ओर अपना ध्यान अवश्य दें।
सधन्यवाद!
भवदीय
क.ख.ग.
अथवा
पत्र संख्या 1123/239/4514
प्रेषक
(सचिव) गृह मंत्रालय, भारत सरकार
दिनांक 14 सितंबर, 20××
सेवा में,
मुख्य सचिव,
पंजाब राज्य,
चंडीगढ़।
विषय राज्य में कानून तथा व्यवस्था की बिगड़ती स्थिति के संबंध में।
महोदय,
मुझे यह सूचना देने का निर्देश प्राप्त हुआ है कि पंजाब की बिगड़ती कानून व्यवस्था की स्थिति से केंद्र सरकार चिंतित है। सरकार ने इस स्थिति से दृढ़ता से निपटने का निश्चय किया है। इस संदर्भ में सूचित किया जाता है कि राज्य में कानून व्यवस्था बनाए रखने के लिए आवश्यक कार्रवाई की जाए। इस संबंध में केंद्र सरकार राज्य सरकार को सभी प्रकार की आवश्यक सहायता उपलब्ध कराएगी। अतः आशा की जाती है कि राज्य सरकार इस मामले को गंभीरता से लेकर यथासंभव इसका समाधान करेगी।
सधन्यवाद!
भवदीय
क.ख.ग.
उत्तर 5.
(क) एफ. एम. फ्रीक्वेंसी मॉड्यूल का संक्षिप्त रूप है। यह एक ऐसा रेडियो प्रसारण है, जिसमें आवृत्ति को प्रसारण ध्वनि के अनुसार मॉड्यूल किया जाता है। भारत में इसकी शुरुआत वर्ष 1993 में की गई।
(ख) किसी खास विचारधारा या उद्देश्य को उठाकर उसे आगे बढ़ाना तथा इसके लिए जनमत तैयार करने वाली पत्रकारिता ‘एडवोकेसी पत्रकारिता’ कहलाती है।
(ग) समाचारों को संकलित करने वाले व्यक्ति को संवाददाता कहा जाता है। संवाददाता पत्र-पत्रिकाओं एवं इलेक्ट्रॉनिक संचार माध्यमों के द्वारा लोगों तक समाचार पहुँचाता है।
(घ) समाचार-पत्र को सबसे अधिक सशक्त जनसंचार माध्यम इसलिए माना जाता है, क्योंकि इसमें वर्णित घटनाओं तथा समाचारों को स्थायी व संरक्षित रूप से रखा जा सके, जो किसी अन्य जनसंचार माध्यम द्वारा संभव नहीं है।
(ङ) जनसंचार के लोक माध्यमों के अंतर्गत गोष्ठियाँ, वार्ताएँ, कथाएँ, मेले, उत्सव एवं पर्व, लोकगीत, लोकनाट्य, शिलालेख आदि आते हैं।
उत्तर 6.
खाद्य पदार्थों की गुणवत्ता
बहुराष्ट्रीय कंपनी नेस्ले की मैगी में आवश्यकता से अधिक शीशे की मात्रा पाए जाने के बाद देशभर में बड़ी-बड़ी कंपनियों के सौजन्य से बाज़ार में बड़े पैमाने पर बेचे जा रहे डिब्बा बंद खाद्य पदार्थों की गुणवत्ता पर नए सिरे से प्रश्न उठने लगे हैं और ऐसा होना भी चाहिए, क्योंकि भोजन व जीवन शैली का सीधा प्रभाव हमारी मानसिक स्थिति तथा स्वास्थ्य पर पड़ता है। गलत खान-पान व असंतुलित जीवन-शैली का ही नतीज़ा है कि कल तक जो बीमारियाँ अधिक उम्र में हुआ करती थीं, आज यह बीमारियाँ छोटी-छोटी उम्र के बच्चों को भी अपना शिकार बना रही हैं। नूडल्स, चाउमिन, बर्गर, पिज़्ज़ा, चिप्स, कोल्ड ड्रिंक्स जैसे सुविधाजनक खाद्य पदार्थ आज हमारे रोज़मर्रा के आहार का हिस्सा बन गए हैं, जो मधुमेह, रक्तचाप, कोलेस्ट्रॉल सहित कई अन्य बीमारियों को भी खुलेआम न्योता दे रहे हैं।
वर्ष 2006 में भारतीय खाद्य और मानक अधिनियम के तहत खाद्य पदार्थों की गुणवत्ता की देख-रेख हेतु एफ.एस.एस.ए.आई. अर्थात् ‘फूड सेफ्टी एंड स्टेंडर्ट्स अथॉरिटी ऑफ इण्डिया’ का गठन किया गया था। स्वयं इस प्राधिकरण का ही कहना है कि वर्तमान समय में देशभर में 30% फूड सैंपल जाँच में फेल सिद्ध हो रहे हैं। वर्तमान समय में पूरे देश में फूड प्रोडक्ट्स बनाने वाली छोटी-बड़ी कंपनियों की संख्या लगभग 80 हज़ार है, किंतु प्रयोगशालाओं व अधिकारियों की कमी के कारण इन कंपनियों के असीमित फूड्स प्रोडक्ट्स में से कुछ के नमूने ही जाँच के लिए भेजे जाते हैं। ऐसे में यह प्रश्न उठना स्वाभाविक ही है कि देशवासियों की सेहत कितनी सुरक्षित है? ऐसे में खाद्य पदार्थों की गुणवत्ता को देखते हुए केंद्र सहित प्रत्येक राज्य सरकार का दायित्व बनता है कि वह आपसी सहयोग के आधार पर डिब्बा बंद सहित अन्य खाद्य पदार्थों की गुणवत्ता की ठीक प्रकार से जाँच करवाए, ताकि देश की जनता की सेहत से किसी भी प्रकार का खिलवाड़ न किया जा सके।
अथवा
आधुनिक हिंदी साहित्य के प्रवर्तक भारतेंदु हरिश्चंद्र
द्वारा लिखित नाटक ‘आँधेर नगरी’ की समीक्षा
आधुनिक हिंदी साहित्य के प्रवर्तक भारतेंदु हरिश्चंद्र द्वारा लिखित तथा वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली द्वारा प्रकाशित प्रसिद्ध नाटक ‘अँधेर नगरी’ तत्कालीन सामाजिक-राजनीतिक परिवेश का जीवंत दस्तावेज़ है। भारतेंदु का साहित्यिक व्यक्तित्व अपने पूर्ववर्ती कवियों तथा परवर्ती साहित्यकारों से भिन्न था। वे जनसामान्य के साहित्यकार थे। उन्हें अपने राष्ट्र, समाज तथा देशवासियों से सच्चा प्रेम था, अटूट लगाव था, उनकी चिंता थी। अतः उन्होंने अपने साहित्य में उन सभी शक्तियों पर प्रहार किया, उन तत्त्वों पर चोट की, जो समाज को विकृत कर रहे थे तथा समाज को पतन के गर्त में धकेल रहे थे। भारतेंदु ने ‘अँधेर नगरी’ में देश की राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक और धार्मिक विकृतियों एवं सांस्कृतिक संकीर्णता का सजीव चित्रण कर उनसे मुक्त होने का आह्वान किया है। छः दृश्यों वाले लगभग 20 पृष्ठों के छोटे आकार का प्रहसन ‘अँधेर नगरी’ में अपने युग की सामाजिक कुरीतियों एवं विकृतियों, सांस्कृतिक विघटन, आर्थिक दुर्दशा, धार्मिक पाखंड एवं बाह्याडंबर का संकेत मात्र है, लेकिन यह इतना सशक्त एवं प्रभावशाली है कि पाठकों एवं दर्शकों को चेतना के स्तर पर झकझोर देता है।
इसका उद्देश्य भारतीयों को आत्म-गौरव का बोध कराना तथा तत्कालीन कुरीतियों से मुक्त होने का उद्बोधन देना था। ‘अँधेर नगरी’ में सिर्फ एक पात्र (महंत) को छोड़कर शेष सब व्यावहारिक जीवन से ही लिए गए हैं। इसके पात्रों की सृष्टि यथार्थ चित्र को आँकने के लिए की गई है। ‘अँधेर नगरी’ के संवादों की भाषा पात्रानुरूप, सहज एवं सरल है, जो पात्रों को जीवंत बनाने में सहायता करती है। जनसुलभ, चलती हुई प्रवाहशील भाषा में शब्दावली एवं लहजा भी पात्रों के अनुरूप ही हैं। इस तरह कहा जा सकता है कि ‘अँधेर नगरी’ भारतेंदु की अद्वितीय प्रतिभा का निष्कर्ष है, जिसे तत्कालीन समाज को जानने में रुचि रखने वालों को अवश्य पढ़ना चाहिए।
उत्तर 7.
फेसबुक पर बच्चे
सोशल मीडिया साइट ‘फेसबुक’ भारत में कितना लोकप्रिय है, यह इस बात से स्पष्ट है कि भारत में इसके 10 करोड़ से भी ज्यादा सदस्य हैं। फेसबुक का अगला घोषित लक्ष्य है, भारत में 100 करोड़ सदस्य बनाना। हालाँकि व्यावहारिक रूप से यह लक्ष्य हासिल करना बहुत कठिन है और इसमें काफ़ी वक्त लगेगा। सूचना तकनीक में जितनी तेज़ी से बदलाव हो रहा है, उसे देखते हुए इस लक्ष्य के संभव या असंभव होने के बारे में कोई भी भविष्यवाणी असंभव है। वैसे 10 करोड़ सदस्य होना भी बहुत बड़ी उपलब्धि मानी जानी चाहिए। भारत की लगभग 8% आबादी फेसबुक के सहारे एक-दूसरे से जुड़ी हुई है, तो यह उल्लेखनीय है। फेसबुक ने कई पुराने मित्रों को फिर से जुड़ने का मौका दिया, कई नए मित्रों से संपर्क स्थापित किए, भिन्न प्रवृत्ति के लोगों को अभिव्यक्ति के मौके दिए, कई मुहिमों को कामयाब बनाया, ये सब फेसबुक की कामयाबी के सबूत हैं।
इसके बावजूद, सोशल मीडिया साइट के दुरुपयोग की आशंका भी होती है और ऐसे दुरुपयोग से बचने के लिए यह नियम भी है कि 13 वर्ष से कम उम्र के बच्चे फेसबुक पर नहीं आ सकते, लेकिन एसोचेम के एक सर्वेक्षण के मुताबिक, भारत में 13 वर्ष से कम उम्र के 73% शहरी बच्चे फेसबुक का इस्तेमाल करते हैं। फेसबुक का इस्तेमाल करने से बच्चों को इसलिए रोका जाता है कि सोशल मीडिया पर कई आपराधिक चरित्र के लोग भी सक्रिय होते हैं। इनमें आर्थिक धोखाधड़ी करने वालों से लेकर बच्चों का यौन शोषण करने वाले और उन्हें चाइल्ड पोर्न का शिकार बनाने वाले लोग तक शामिल हैं। यह सिर्फ आशंका और डर नहीं है, इस तरह के कई गिरोह सोशल मीडिया पर सक्रिय हैं, जिनका शिकार बच्चे बन चुके हैं।
बच्चों में इतनी समझ नहीं होती कि वे ऐसे चालबाज़ लोगों और उनके इरादों को पहचान सकें। इसलिए वे इन लोगों की गिरफ्त में आ सकते हैं। इस ख़बर को देखते हुए ही 13 वर्ष से कम उम्र के बच्चों पर फेसबुक में पाबंदी लगाई हुई है। इस दृष्टिकोण से हमें इस पर गंभीरता से विचार करना चाहिए कि सोशल मीडिया साइट पर बच्चों को कितनी स्वतंत्रता प्रदान की जानी चाहिए।
अथवा
हमारे देश पर पड़ता विदेशी प्रभाव
प्राचीनकाल से ही भारत ऋषि-मुनियों का देश रहा है। इनके द्वारा की गई वेदों आदि की रचनाओं ने तत्कालीन विश्व को शांति, अहिंसा एवं सहयोग का संदेश दिया। भारतीय संस्कृति न केवल अत्यंत प्राचीन है, बल्कि अत्यंत समृद्ध भी है। भारतीय संस्कृति का मूल तत्त्व ‘विविधता में एकता का रहा है। आज विश्व की अनेक प्राचीन संस्कृतियाँ नष्ट हो चुकी हैं, लेकिन भारतीय संस्कृति जीवित है और पूरे उत्साह एवं समृद्धि के साथ अपनी प्रासंगिकता को बनाए हुए है। भारतीय संस्कृति का मूल स्वरूप आध्यात्मिक रहा है, जहाँ भौतिकता को कम महत्त्व दिया गया है, लेकिन विगत् कुछ वर्षों में पाश्चात्य संस्कृति से प्रभावित होकर भारतीय संस्कृति भी अपने स्वरूप में परिवर्तन ला रही है। पाश्चात्य संस्कृति के रंग में रंगे हुए युवा पीढ़ी के कुछ सदस्य अपनी वास्तविक पहचान को भूलने लगे हैं, जिसका दुष्परिणाम नैतिकता के स्तर में गिरावट के रूप में दिखाई दे रहा है। कोई भी संस्कृति जब अपने मूल स्वरूप से कटने लगती है, तो उसमें गिरावट आती है। भारतीय संस्कृति के साथ भी ऐसा ही हो रहा है। इसका यह अर्थ कदापि नहीं है कि किसी संस्कृति को विश्व से अलग-थलग एकांतिक बने रहना चाहिए, बल्कि अन्य संस्कृतियों की अच्छाइयों को उसे अवश्य आत्मसात् करना चाहिए, लेकिन अंधानुकरण नहीं। आज हमारे देश पर विदेशी प्रभाव अधिक पड़ रहा है, क्योंकि वैश्वीकरण की प्रक्रिया में हम इससे बच नहीं सकते। इसके बावजूद, आज आवश्यकता इस बात की है कि हम ‘हंस की भाँति दूध को ग्रहण करके पानी को छोड़ दें’ अर्थात् अन्य संस्कृति की खूबियों को आत्मसात् करें और उनकी बुराइयों को छोड़ दें। ऐसा करके ही हम प्रासंगिक एवं समृद्ध बन सकते हैं।
उत्तर 8.
(क) कवि अपने चारों ओर व्याप्त प्रिया के व्यक्तित्व से उत्पन्न उजाले को सहन नहीं कर पा रहा है। वह अपनी प्रिया के द्वारा स्वयं के प्रति प्रेम को तथा आत्मीयता को सहन नहीं कर पा रहा है, क्योंकि उसे लगता है कि उसका व्यक्तित्व और अस्तित्व कहीं विलीन हो गया है।
(ख) कवि को लगता है कि प्रिया की कोमल भावनाएँ ममतारूपी बादल बनकर उसके भीतर मँडराती रहती हैं, जिससे उसकी आत्मा कमज़ोर हो गई है। वह अब यह सब सहने में अक्षम होता जा रहा है। इसी कारण वह अपनी प्रिया की आत्मीयता को भी बर्दाश्त नहीं कर पा रहा है।
(ग) कवि भविष्य के प्रति इसलिए आशंकित है, क्योंकि उसे भय है कि वह अपनी प्रिया के अभाव में चाहकर भी अकेला जी नहीं पाएगा। कवि की छाती में यानी हृदय में डरावने भविष्य को लेकर यह छटपटाहट है कि सर्वदा बहलाने, सहलाने वाली आत्मीयता व स्नेह न मिलने पर उसका क्या होगा?
(घ) प्रस्तुत काव्यांश का केंद्रीय भाव यह है कि निरंतर किसी का संरक्षण एवं किसी से अत्यधिक आत्मीयता भरा प्रेम वस्तुतः मानव के व्यक्तित्व को पूरी तरह विकसित नहीं होने देता है। यह व्यक्ति को आंतरिक स्तर पर कमज़ोर कर देता है, जिसके परिणामस्वरूप व्यक्ति संघर्ष का डटकर सामना करने में अक्षम हो सकता है।
अथवा
(क) लक्ष्मण से संभावित वियोग का दुःख प्रकट करते हुए राम कहते हैं कि हे भाई! मेरा हृदय अत्यंत कठोर एवं निष्ठुर है, जो तुम्हारी मृत्यु का शोक और भाई के प्राणों की बलि देने का अपयश, दोनों ही सहन करेगा। अयोध्या जाने पर मैं तुम्हारी माता को क्या उत्तर दूंगा, यह तुम उठकर मुझे क्यों नहीं समझाते?
(ख) राम, लक्ष्मण की माता के विषय में कहते हैं कि लक्ष्मण उनका एकमात्र पुत्र तथा उनके प्राणों का आधार है। सब प्रकार से सुख प्रदान करने वाला एवं परम हितकारी जानकर ही उन्होंने लक्ष्मण का हाथ पकड़कर मुझे सौंपा था। अब मैं उन्हें लक्ष्मण के बारे में क्या उत्तर दूंगा?
(ग) भगवान शंकर इस कथा के वाचक तथा उनकी पत्नी उमा अर्थात् पार्वती श्रोता के रूप में उपस्थित हैं। भगवान शंकर ने अपनी पत्नी उमा से कहा कि भगवान राम अद्वितीय एवं शोक रहित अर्थात् अखंड हैं, लेकिन मनुष्य की शोकाकुल अवस्था को दिखाने के लिए। मनुष्य के रूप में उन्होंने यह लीला रची है।
(घ) तुलसीदास जी लिखते हैं कि शोक संतृप्त राम एवं वानर दल के बीच संजीवनी लेकर लौट रहे हनुमान के आगमन से वहाँ प्रसन्नता का वातावरण बन गया, जैसे करुणा के बीच वीर रस आ गया हो।
उत्तर 9.
(क) प्रस्तुत काव्यांश में शरारती बच्चे के रूप में बात का मानवीकरण अत्यंत सुंदर ढंग से हुआ है। कवि का पसीना पोंछना बात के उलझने के परिणाम को स्पष्टता से प्रदर्शित करता है। ‘कील की तरह’, ‘शरारती बच्चे की तरह’ आदि में उपमा अलंकार का प्रयोग हुआ है। अनुप्रास अलंकार का प्रयोग भी ‘पसीना पोंछते’, ठीक ठाक’ आदि पदों में देखने योग्य है।
(ख) कवि ने भाषा की कृत्रिमता, जटिलता और बनावट पर कटाक्ष करने के लिए कील की तरह ठोक दिया, ऊपर से ठीक-ठाक जैसे शब्दों का सार्थक प्रयोग किया है। संवाद शैली के प्रयोग से काव्यांश में नाटकीयता आ गई है। कसाव, ताकत, शरारती, सहूलियत, बरतना आदि प्रचलित उर्दू के शब्दों के प्रयोग से कथ्य में जीवंतता आ गई है। परेशान होने की अभिव्यक्ति हेतु ‘पसीना पोंछना’ का मुहावरेदार प्रयोग है।
(ग) भाषा को सहूलियत से बरतने का भाव यह है कि भाषा को सुविधाजनक एवं सहज ढंग से प्रयोग में लाना चाहिए। व्यर्थ का शब्दजाल बुनने से लेखक को लिखने में और पाठक को समझने में परेशानी होती है। भाषा को सहूलियत से प्रयुक्त करने पर ही रचना भी सहजता से अपना अर्थ संप्रेषित करने में समर्थ होती है।
अथवा
(क) कवि कहता है कि फूलों ने अपनी पंखुड़ियाँ खोली हैं, जिससे चारों ओर सुगंध फैल गई है। रात के सन्नाटे में तारे आँखें झपकाते हैं। तथा सारी दुनिया सो रही होती है। इस स्थिति में सन्नाटा कुछ कह रहा है। कवि अपने लिए तथा अपनी किस्मत के लिए एक ही काम निर्धारित मानता है, जो इस प्रकार है-कवि अपनी किस्मत पर रोता है, तो किस्मत भी उस पर रोती है।
(ख) नाजुक, गुंचे, गिरहें, गुलशन, ज़र्रा आदि उर्दू भाषा के शब्द हैं, जो काव्यांश में प्रयुक्त हुए हैं। उर्दू भाषा से गज़ल की संप्रेषणीय क्षमता का विकास हुआ है, जो उसके सौंदर्य को विकसित कर रही है।
(ग) प्रस्तुत काव्यांश में वियोग श्रृंगार रस का प्रयोग किया गया है। प्रस्तुत गज़ल के माध्यम से कवि ने अपनी आंतरिक अनुभूतियों यानी पीड़ा को स्वर दिया है।
उत्तर 10.
(क) कैमरे में बंद अपाहिजे कविता में दूरदर्शन चैनल वाले कमज़ोर व लाचार व्यक्ति के दुःख की मार्केटिंग करते हैं। उन्हें उनकी सहायता से कोई मतलब नहीं होता, वे तो केवल अपना मतलब साधते हैं। अपाहिज व्यक्ति को बार बार अपना दुःख बताने के लिए दूरदर्शन चैनल वाले मज़बूर करते हैं, जिसका प्रमुख उद्देश्य मात्र अपने चैनल की लोकप्रियता बढ़ाना और पैसा कमाना है, जिसके लिए वे बेहूदे प्रश्न पूछने से भी नहीं हिचकिचाते हैं। वे अपाहिजों के दर्द को बढ़ा-चढ़ा कर पूछते हैं। यह कार्य असामाजिक है। अतः हमारे मत से यह कविता क्रूरता की कविता है।
(ख) प्रस्तुत दोनों बातों में गहरा अंतर्विरोध है। एक ओर तो कवि सब कुछ सहर्ष स्वीकार करता है, तो वहीं दूसरी ओर उसको बहलाती, सहलाती आत्मीयता बर्दाश्त भी नहीं होती। वास्तविकता तो यह है कि अत्यधिक आत्मीयता के कारण कवि अपनी क्षमताओं एवं संभावनाओं का पूर्ण विकास नहीं कर पा रहा है। इसलिए वह अपने स्वतंत्र अस्तित्व के लिए छटपटा रहा है और इसे छटपटाहट में वह गहन अंधकार को भी स्वीकार करने को तैयार है। इसी संदर्भ में कवि ने ‘सहर्ष स्वीकारा है’ कहा है। इस अंतर्विरोध में कवि की लाचारी एवं उसका द्वंद्व छिपा हुआ है। लाचारी सब कुछ स्वीकार करने में है और द्वंद्व प्रिया की आत्मीयता, उसके प्रेम से छुटकारा पाने की इच्छा में है, क्योंकि प्रिया की कृपा का भार अब उससे सहन नहीं हो पा रहा है।
(ग) ‘उषा’ कविता में कवि शमशेर बहादुर सिंह ने ग्रामीण उपमानों का प्रयोग कर गाँव की सुबह के गतिशील शब्द-चित्र को सामने लाने का प्रयास किया है। कविता में नीले रंग के प्रातःकालीन आकाश को ‘राख से लीपा हुआ चौका’ कहा गया है। ग्रामीण परिवेश में ही गृहिणी भोजन बनाने के बाद चौके (चूल्हे) को राख से लीपती है, जो प्रायः काफ़ी समय तक गीला ही रहता है। दूसरा बिंब काले सिल का है। काला सिल अर्थात् पत्थर के काले टुकड़े पर केसर पीसने का काम भी गाँव की महिलाएँ ही करती हैं। तीसरा बिंब काले स्लेट पर लाल खड़िया चाके से लिखने वाली क्रिया नन्हे ग्रामीण बालकों द्वारा की जाती है। इन बिंबात्मक चेतनाओं में गतिशील शब्द-चित्र भी मौजूद हैं। गतिशीलता इस अर्थ में भी है कि तीनों शब्द-चित्र स्थिर न होकर किसी-न-किसी क्रिया के अभी-अभी समाप्त होने के सूचक हैं।
उत्तर 11.
(क) वह देहातिन अर्थात् भक्तिन, लेखिका महादेवी वर्मा के यहाँ काम करने वाली एक सेविका थी। उसने लेखिका से अपने वास्तविक नाम ‘लक्ष्मी’ को प्रयोग न करने की प्रार्थना की थी, क्योंकि उसकी स्थिति अपने नाम के अनुरूप नहीं थी। उसका नाम समृद्धिसूचके था और वह गरीब थी। वह सोचती थी कि लक्ष्मी नाम सुनकर लोग उसका मज़ाक उड़ाएँगे।
(ख) “मेरे नाम की विशालता मेरे लिए दुर्वह है” पंक्ति का आशय यह है कि लेखिका का नाम ‘महादेवी’ है, जिसका अर्थ है देवियों में महान्। परंतु लेखिका का मानना है कि वह एक सामान्य-सी स्त्री है और उसकी दुनिया काफ़ी छोटी है। अतः उसका नाम उसके अनुकूल नहीं रखा गया।
(ग) लक्ष्मी के भाग्य में जीवनभर गरीबी में रहना ही लिखा है, यद्यपि उसका नाम लक्ष्मी है। प्रस्तुत पंक्ति से यही आशय निकलता है कि जो उसकी किस्मत में लिखा है, वह उसका नाम नहीं बदल सकता। वह अपने नाम के अनुरूप अपनी किस्मत को समृद्धिशाली नहीं बना सकती।
(घ) जब भक्तिन नौकरी की तलाश में लेखिका के पास आई थी, तब उसने लेखिका को अपने जीवन से जुड़ी सारी बातें सुनाने के क्रम में अपने वास्तविक नाम ‘लछमिन’ अर्थात् लक्ष्मी से भी अवगत कराया था। लेखिका के अनुसार ऐसा उसने ईमानदारी जताने के लिए किया था।
उत्तर 12.
(क) शिरीष के फूल की विशेषता होती है कि वे नए फूलों के आने के पश्चात् भी पेड़ से गिरने का नाम नहीं लेते, पेड़ पर अपनी मज़बूत पकड़ बनाए रखते हैं। वे पेड़ से तब तक नहीं झड़ते, जब तक नए-नए फल-पत्ते मिलकर उन्हें धकियाते हुए ज़मीन पर न गिरा दें। वसंत के आगमन पर भी शिरीष के पुराने फल खड़े-खड़ करते हुए पेड़ पर झूलते रहते हैं। शिरीष के फल की इसी विशेषता के कारण लेखक ने इसकी तुलना उन नेताओं से की है जो समय की माँग अनसुनी कर राजनीति में तब तक जमे रहते हैं, जब तक नई पीढी के लोग उन्हें धक्का देकर बाहर का रास्ता न दि दिखा दें।
(ख) ‘नमक’ कहानी भारत-पाकिस्तान विभाजन के बाद सीमा के दोनों तरफ़ के विस्थापित लोगों के दिलों को टटोलती कहानी है। लोगों का धार्मिक आधार पर बँटवारा तो कर दिया गया, पर लोगों के मन की भावनाएँ पृथक् न हो पाईं। जनता का लगाव मूल स्थान से बना ही रहता है। पाकिस्तानी कस्टम अधिकारी तथा भारतीय कस्टम अधिकारी क्रमशः दिल्ली तथा ढाका को आज भी अपना वतन मानते हैं। अतः यह स्पष्ट हो जाता है कि मानचित्र पर एक लकीर खींच देने भर से ज़मीन और जनता नहीं बँट जाती।
(ग) भारतीय फ़िल्मों में त्रासदी, करुणा, हास्य सब हैं, पर तीनों का एक साथ आना कभी प्रचलन में नहीं रहा। करुणा और हास्य का मिश्रित हो जाना या करुणा का हास्य में बदल जाना, भारतीय फ़िल्म कला का सिद्धांत नहीं बन पाया। ‘रामायण’ तथा ‘महाभारत’ में हास्य स्वयं पर नहीं, बल्कि दूसरों पर है और अधिकतर वह परसंताप से प्रेरित है। चार्ली चैप्लिन की फ़िल्मों में त्रासदी, करुणा एवं हास्य का सामंजस्य मिलता है। भारत में यह स्थिति रस सिद्धांत के अनुकूल नहीं है। भारतीयों का स्वभाव दुःख में हँसना या हँसी में करुणा देखने का नहीं है। अतः चार्ली की फ़िल्मों में निहित त्रासदी, करुणा व हास्य का सामंजस्य भारतीय कला और सौंदर्यशास्त्र की परिधि में नहीं आ सका।
(घ) फणीश्वरनाथ ‘रेणु’ कृत ‘पहलवान की ढोलक’ एक मार्मिक कहानी है। इस कहानी में लेखक ने गाँव की उस चिरपरिचित अवस्था का भावपूर्ण चित्रण किया है, जिसमें गाँववासी अपनी भावनाओं से ही एक-दूसरे की सहायता कर पाते हैं, क्योंकि आर्थिक रूप से वे उतने समर्थ नहीं होते कि किसी की आर्थिक सहायता कर सकें। जब महामारी से लगातार घरों में एक-दो लाशें निकलने लगीं, तो वे मानसिक और आर्थिक रूप से इतने टूट गए कि कफ़न तक के लिए भी सोचना पड़ रहा था। अतः लाशें बिना कफ़न ही बहा देने की सलाह दी जा रही थी।
(ङ) त्याग वही सही होता है, जिससे दूसरों का हित हो। यदि हमारे पास दस हज़ार रुपये हैं और हम उसमें से एक या दो रुपये दान भी कर देते हैं, तो यह कोई महान् काम नहीं है जीजी के अनुसार, त्याग उसी वस्तु का महत्त्वपूर्ण माना जाता है, जो आपके पास भी बहुत कम मात्रा में हो। सच्चा दान भी वही कहलाता है। इस प्रकार, ‘काले मेघा पानी दे’ पाठ के लेखक की जीजी के तर्कों के आधार पर त्याग का स्वरूप बहुत ही सीधा, सरल व अर्थपूर्ण है।
उत्तर 13.
ऐन की डायरी से पता चलता है कि ऐन एक साधारण लड़की है। वह अपने आप से ही बातें किया करती है, क्योंकि उसकी भावनाओं को समझने वाला कोई नहीं है। वह अपने मन की बात करने के लिए अपनी गुड़िया किट्ट्टी को चुनती है। यदि उसकी बात समझने वाला कोई व्यक्ति होता, तो शायद ऐन को डायरी लिखने की आवश्यकता ही न पड़ती। हर विषय के लिए वह अपने ही मन में तर्क करके अपनी धारणा बनाती है। फिर चाहे वह नारी की स्थिति हो या फिर मिस्टर डसेल का व्यक्तित्व। उसकी अपनी सोच है, उसका अपना विश्लेषण है, जिसे वह किसी से कह नहीं पाती और उसे व्यक्त करने के लिए अपनी डायरी का सहारा लेती है। इसलिए यह कहना उचित ही है कि यदि कोई उसकी बातों को सुनने या समझने वाला होता, तो शायद ऐन को डायरी लिखने की आवश्यकता ही नहीं पड़ती।
उत्तर 14.
(क) मुअनजोदड़ो की सभ्यता साधन संपन्न थी। यहाँ के लोगों की रुचि कला से जुड़ी थी। यहाँ से प्राप्त पत्थर की मूर्तियाँ, मृद्भांड, पशु-पक्षियों का चित्रांकन, सुनिर्मित मुहरें, खिलौने, केश विन्यास, आभूषण इत्यादि सिंधु सभ्यता को तकनीकी रूप से अधिक सिद्ध करने की अपेक्षा उसके कला प्रेम को अधिक दर्शाते हैं। यह सभ्यता धर्म-तंत्र या राज-तंत्र की ताकत का प्रदर्शन करने वाले महलों, उपासना स्थलों आदि का निर्माण नहीं करती थी। सिंधु सभ्यता समाज-पोषित संस्था का समर्थन करती थी। इस सभ्यता में आडंबर को स्थान प्राप्त नहीं था, अपितु चारों ओर से सुंदरता ही दिखाई देती थी। समाज में सौंदर्य-बोध था, न कि कोई राजनीतिक या धार्मिक आडंबर। सभ्यता के केंद्र में समाज को प्राथमिक महत्त्व दिया गया है। इसमें न किसी राजा का प्रभाव था और न ही किसी धर्म विशेष का इतना अवश्य है कि कोई-न-कोई राजा अवश्य रहा होगा, लेकिन यह सभ्यता राजा पर आश्रित नहीं थी। इन्हीं बातों के आधार पर हम कह सकते हैं कि सिंधु सभ्यता के अवशेष समाज-समर्थित आडंबरविहीन कला प्रेम को दर्शाते हैं।
(ख) ‘जूझ’ कहानी को शीर्षक पाठ के अनुरूप ही है। इसमें एक बालक की गरीबी, पिता के स्वभाव के कारण मिलने वाले दुःख, उसके स्कूल जाने पर बच्चों द्वारा खिल्ली उड़ाए जाने और दिन का ज्यादातर समय खेतों में काम करने इत्यादि का वर्णन है। उसके पिता ने ही उसके संघर्षों को और बढ़ा दिया। पहले तो उसे पाठशाला नहीं जाने दिया जाता था, पर जब दत्ता जी राव के कहने पर पाठशाला भेजा गया, तो भी उसे पिता की शर्तों का पालन करना पड़ता था। यदि खेतों में काम अधिक होता था, तो पाठशाला से छुट्टी भी करनी पड़ती थी।
इस प्रकार जूझने की प्रवृत्ति लेखक के जीवन की हर घटना में सर्वत्र रूप से व्याप्त है। अपने जीवन में लेखक ने संघर्षों से जूझते हुए अपने लक्ष्य को प्राप्त किया। उसका लक्ष्य था, बड़ा होकर एक शिक्षक बनना, जो उसने कठिन परिस्थितियों में भी कर दिखाया। अतः इन सब बातों से सिद्ध होता है कि लेखक अपने बालपन में हमेशा परेशानियों से जूझता ही रहा है।
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