दहेज प्रथा सामाजिक अभिशाप संकेत बिंदु:
- दहेज क्या है
- दहेज देने का कारण
- दहेज का क्रूर रूप
- सामाजिक परिवर्तन करें
साथ ही, कक्षा 1 से 10 तक के छात्र उदाहरणों के साथ इस पृष्ठ से विभिन्न हिंदी निबंध विषय पा सकते हैं।
दहेज प्रथा पर निबंध | Essay on Dowry System In Hindi
विवाह के समय कन्या के माता-पिता द्वारा दी जाने वाली वस्तुएँ, आभूषण और धन आदि को दहेज कहते हैं। यह परंपरा सैकड़ों वर्षों से चली आ रही है। इस प्रथा के पीछे कन्या के माता-पिता का स्नेह भाव रहता था। वे अपनी पुत्री के गृहस्थ जीवन को सुख-समृद्धिपूर्ण बनाने के लिए दहेज के रूप में अपना योगदान करते थे। आधुनिक युग में यह प्रथा अभिशाप के रूप में परिवर्तित हो गई है।
आधुनिक युग को सभ्यता के विकास का चरम काल माना जाता है। स्वतंत्रता के पश्चात शिक्षा का अभूतपूर्व प्रचार-प्रसार हआ है। बालक-बालिकाओं के लिए शिक्षा के समान अवसर उपलब्ध हो जाने के कारण भारतीय समाज शनैः-शनैः सुशिक्षितों का समाज बनता जा रहा है। ऐसी आशा थी कि शिक्षा के प्रचार-प्रसार से भारतीय समाज में व्याप्त कुरीतियों का भी अंत हो जाएगा परंतु ऐसा नहीं हुआ। स्वतंत्रता के पश्चात् दहेज की कुरीति ने इतना भयंकर रूप ले लिया है कि वर पक्ष की ओर से नवविवाहिताओं तक की नृशंस हत्याएँ केवल इसलिए कर दी जाती हैं क्योंकि दुल्हन अपने साथ कम दहेज लेकर आती है।
आज का समाज स्वयं को सभ्य समाज कहता है। इसी समाज में राक्षसी प्रवृत्ति के धनलोलुप नरभक्षी, गृहस्थी बसाने के सपने संजोकर आई युवतियों को जीवित जला देते हैं। उनके लिए मानव जीवन से अधिक महत्व वस्तुओं का होता है। रेफ्रीजरेटर, टेलीविज़न फ़र्नीचर, स्कूटर, कार, आभूषण और धन को महत्व देने वाले माता-पिता के घर में लाड़-प्यार से पली युवती को भाँति-भाँति की अमानवीय यातनाएँ देते रहते हैं। समाचार-पत्र इन समाचारों से भरे रहते हैं। अनेक दहेज लोभियों को कठोर कारावास का दंड दिया जा चुका है। उनके विरुद्ध सामाजिक संस्थाएँ विरोध प्रदर्शन तक करती हैं। इतना होने पर भी यह समस्या अपनी विकरालता बनाए हुए है।
पत्नी जीवन भर चले, पति को मान सुहाग।
घरवाले फिर क्यों उसे, लगा रहे हैं आग॥
सरकार की ओर से कानून बनाए गए हैं। इन कानूनों के द्वारा महिलाओं को अनेक संरक्षण प्रदान किए गए हैं। उन्हें मानसिक अथवा शारीरिक रूप से प्रताडित किए जाने पर कठोर कार्यवाही की जाती है। इस समस्या का सामाजिक पक्ष पूर्णतया भिन्न है। युवतियों के संस्कार उन्हें पुलिस तक जाने से रोक लेते हैं। वे पति और उसके परिवारजन के तीखे व्यंग्यबाण सहती रहती हैं। वह उनके द्वारा शारीरिक रूप से प्रताड़ित होने पर भी उफ़ तक नहीं करती। इसका कारण है कि पुलिस और न्यायालयों की प्रक्रियाएँ अत्यंत जटिल होती हैं।
अधिकांश भ्रष्ट पुलिस अधिकारियों का दृष्टिकोण अमानवीय होता है। न्यायालयों में मुकद्दमे वर्षों तक चलते रहते हैं। वकीलों की भारी-भरकम फ़ीस जुटाने के लिए कन्या पक्षवालों के पास धन के अंबार नहीं होते। महंगी एवं जटिल न्याय-व्यवस्था युवतियों को भयभीत करती रहती है। वे आर्थिक रूप से बोझ तले दबे माता-पिता को न्यायालयों के खर्च के बोझ के नीचे दबाना नहीं चाहतीं। इसलिए अधिकांश युवतियाँ दहेज के लोभी नर-राक्षसों के अत्याचार सहती रहती हैं।
इस समस्या का सबसे दुखद पक्ष यह है कि दहेज के अधिकांश मामलों में युवतियों को प्रताड़ित करने वाली महिलाएँ ही होती हैं। समाचार-पत्रों के आँकड़े दर्शाते हैं कि अधिकांश युवतियों की हत्याएँ उनकी सासों या ननदों ने की है। यह कैसी विडंबना है कि दहेज के मामले में नारी ही नारी की शत्रु बन जाती है। जिस सास को अपनी बहू का हृदय खोलकर स्वागत करना चाहिए, जिस सास को उसे माँ-सा स्नेह देना चाहिए वही उसके कोमल हृदय को विषैले व्यंग्य-बाणों से छलनी-छलनी कर देती है।
उसे इस पर भी संतोष नहीं होता तो मिट्टी का तेल डालकर उसकी हत्या कर देती है। आज प्रत्येक माता-पिता का परम कर्तव्य हो जाता है कि वे अपनी पुत्रियों को शिक्षित करें। उन्हें आर्थिक रूप से स्वावलंबी बनाएँ। यदि युवतियाँ नौकरी करेंगी तो वे दहेज लोभी पति और उसके परिवारजन के अत्याचार न सहकर स्वतंत्र जीवन व्यतीत कर लेंगी।
वे जीवन से निराश होकर आत्महत्या जैसा कठोर पग न उठाएँगी। लड़कियों की शिक्षा के पाठ्यक्रम ऐसे होने चाहिएजिनसे उनमें आत्मविश्वास पनपे। उनमें संघर्ष की शक्ति विकसित हो। उन्हें नौकरियों के अधिक अवसर मिलें। अत्याचारी पतियों के चंगुल से मुक्त होकर वे माता-पिता पर आश्रित होने के स्थान पर स्वावलंबी बन सकें।
पुरुष प्रधान-समाज में नारी की स्थिति में परिवर्तन होने तो लगे हैं। अभी ये परिवर्तन क्रांतिकारी रूप नहीं ले सके हैं। इसके लिए सामाजिक चिंतन में परिवर्तन आवश्यक है। नई पीढ़ी के युवकों में चेतना जाग्रत करनी चाहिए कि वे दहेज लेकर विवाह नहीं करेंगे। उनमें स्वाभिमान होना चाहिए कि वे पत्नी के माता-पिता द्वारा दी गई वस्तुओं पर आश्रित नहीं होंगे। दूसरों के द्वारा दी गई वस्तुएँ भिक्षा का रूप होती हैं।
वे भिखारी न बनें। उन्हें अपने श्रम से घर की एक-एक वस्तु बनानी चाहिए। युवकों के माता-पिता में मानवीय संवेदनाएँ जीवित रहनी चाहिए। उन्हें कुछ वस्तुओं से अधिक महत्व उस युवती को देना चाहिए जो उनके पुत्र की जीवन-संगिनी बनकर आती है। वही युवती उनके वंश में वृद्धि करने वाली होती है। उसका स्वागत गृहलक्ष्मी के समान किया जाना चाहिए। यह चिंतन, यह क्रांतिकारी परिवर्तन ही दहेज के अभिशाप से समाज को मुक्ति दिला सकेगा।