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NCERT Solutions for Class 11 Hindi Core – जनसंचार माध्यम और लेखन – फीचर, रिपोर्ट, आलेख लेखन

NCERT Solutions for Class 11 Hindi Core – जनसंचार माध्यम और लेखन – फीचर, रिपोर्ट, आलेख लेखन

NCERT Solutions for Class 11 Hindi Core – जनसंचार माध्यम और लेखन – फीचर, रिपोर्ट, आलेख लेखन provide comprehensive guidance and support for students studying Hindi Core in Class 11. These NCERT Solutions empower students to develop their writing skills, enhance their language proficiency, and understand official Hindi communication.

(अ) फीचर लेखन

फीचर का स्वरूप
समकालीन घटना या किसी भी क्षेत्र विशेष की विशिष्ट जानकारी के सचित्र तथा मोहक विवरण को फीचर कहा जाता है। इसमें मनोरंजक ढंग से तथ्यों को प्रस्तुत किया जाता है। इसके संवादों में गहराई होती है। यह सुव्यवस्थित, सृजनात्मक व आत्मनिष्ठ लेखन है, जिसका उद्देश्य पाठकों को सूचना देने, शिक्षित करने के साथ मुख्य रूप से उनका मनोरंजन करना होता है।
फीचर में विस्तार की अपेक्षा होती है। इसकी अपनी एक अलग शैली होती है। एक विषय पर लिखा गया फीचर प्रस्तुति विविधता के कारण अलग अंदाज प्रस्तुत करता है। इसमें भूत, वर्तमान तथा भविष्य का समावेश हो सकता है। इसमें तथ्य, कथन व कल्पना का उपयोग किया जा सकता है। फीचर में आँकड़ें, फोटो, कार्टून, चार्ट, नक्शे आदि का उपयोग उसे रोचक बना देता है।

फीचर व समाचार में अंतर

  1. फीचर में लेखक के पास अपनी राय या दृष्टिकोण और भावनाएँ जाहिर करने का अवसर होता है, जबकि समाचार लेखन में वस्तुनिष्ठता और तथ्यों की शुद्धता पर जोर दिया जाता है।
  2. फीचर लेखन में उलटा पिरामिड शैली का प्रयोग नहीं होता है। इसकी शैली कथात्मक होती है।
  3. फीचर लेखन की भाषा सरल, रूपात्मक व आकर्षक होती है, परंतु समाचार की भाषा में सपाटबयानी होती है।
  4. फीचर में शब्दों की अधिकतम सीमा नहीं होती। ये आमतौर पर 250 शब्दों से लेकर 500 शब्दों तक के होते हैं, जबकि समाचारों पर शब्द-सीमा लागू होती है।
  5. फीचर का विषय कुछ भी हो सकता है, समाचार का नहीं।

फीचर के प्रकार
फीचर के प्रकार निम्नलिखित हैं-

  1. समाचार फीचर
  2. घटनापरक फीचर
  3. व्यक्तिपरक फीचर
  4. लोकाभिरुचि फीचर
  5. सांस्कृतिक फीचर
  6. साहित्यिक फीचर
  7. विश्लेषण फीचर
  8. विज्ञान फीचर

फीचर संबंधी मुख्य बातें

  1. फीचर को सजीव बनाने के लिए उसमें उस विषय से जुड़े लोगों की मौजूदगी जरूरी है।
  2. फीचर के कथ्य को पात्रों के माध्यम से बतलाना चाहिए।
  3. कहानी को बताने का अंदाज ऐसा हो कि पाठक यह महसूस करे कि वे खुद देख और सुन रहे हैं।
  4. फीचर मनोरंजक व सूचनात्मक होना चाहिए।
  5. फीचर शोध रिपोर्ट नहीं है।
  6. इसे किसी बैठक या सभा के कार्यवाही विवरण की तरह नहीं लिखा जाना चाहिए।
  7. फीचर का कोई-न-कोई उद्देश्य होना चाहिए। उस उद्देश्य के इर्द-गिर्द ही सभी प्रासंगिक सूचनाएँ तथ्य और विचार गुंथे होने चाहिए।
  8. फीचर तथ्यों, सूचनाओं और विचारों पर आधारित कथात्मक विवरण और विश्लेषण होता है।
  9. फीचर लेखन का कोई निश्चित ढाँचा या फार्मूला नहीं होता। इसे कहीं से भी अर्थात् प्रारंभ, मध्य या अंत से शुरू किया जा सकता है।
  10. फीचर का हर पैराग्राफ अपने पहले के पैराग्राफ से सहज तरीके से जुड़ा होना चाहिए तथा उनमें प्रारंभ से अंत तक प्रवाह व गति रहनी चाहिए।
  11. पैराग्राफ छोटे होने चाहिए तथा एक पैराग्राफ में एक पहलू पर ही फोकस करना चाहिए।

उदाहरण

1. ‘सफलता और आत्मसम्मान’ विषय पर फीचर लिखिए।

सफलता के लिए जरूरी है आत्मसम्मान

उतार और चढ़ाव जीवन के हिस्से हैं और यह स्वाभाविक भी है। इनमें खुद को प्रभावित न होने दें। सिचुएशन चाहे जितनी नेगेटिव हो, अपने बारे में हमेशा हाई ओपनियन रखें। आप देखेंगे कि जो भी करेंगे, उसमें आपको निश्चित ही सफलता मिलेगी। जिन लोगों की सेल्फ इमेज पुअर होती है, उनमें लो सेल्फ इस्टीम (आत्मसम्मान) की भावना होती है और यह आमतौर पर बचपन से ही निर्मित हो जाती है। जो लोग बचपन से ही बुराई से घिरे होते हैं, स्कूल या खेल में जिनसे कुछ बन नहीं पाता है, वे आमतौर पर आलोचना के शिकार होते हैं। इससे उनमें पूअर सेल्फ इस्टीम की भावना घर कर जाती है।

कमजोर की बजाए ताकत पर दें ध्यान
सबसे पहले आपको बिना किसी शर्त के खुद से प्यार करना होगा। पिछली गतिविधियों को सोचकर अपने-आप को कोसने की बजाय माफ कर दीजिए या उसे भूल जाइए। अपनी कमजोरी की बजाए अपनी ताकत पर ध्यान दीजिए। याद रखें कि सभी में कुछ-न-कुछ कमजोरियाँ होती हैं। अपने-आप से अच्छी तरह से बातें करना आरंभ करें। आपकी उपलब्धियाँ चाहे जितनी छोटी क्यों न हों, उसे बड़ी मानें। प्रत्येक सफलता को सेलिब्रेट करें और अपनी एनर्जी का उपयोग करते हुए पॉजिटिवली सोचें।

नेगेटिव थिकिग से दूर रहें
अपनी सेल्फ इस्टीम से पाई सफलता आपके पिछले निगेटिव एक्सपीरियंस को पीछे छोड़ देगी।’निगेटिव थिर्किग का । आपकी जिंदगी में कोई काम नहीं है। अपने आपको पोषित करने का अभियान आरंभ करें। सबसे पहले हेल्थ से शुरूआत करें। अच्छी तरह से आराम करें, व्यायाम करें और इंपॉर्टेट न्युट्रिएंट सप्लीमेंट लेना आरंभ कर दें। अपने बिजी लाइफ में एंज्वॉय और रिलेक्स करने के लिए समय निकालिए और कुछ अच्छी स्मृतियाँ बनाइए, जिसे याद करने पर आनंद का अहसास हो। डिफिकल्ट टास्क को हैंडल करने के लिए खुद को कॉम्प्लिमेंट दें, बजाए खुद को कोसने के। अपने प्रति संवेदना दिखाएँ। अगर आप दूसरों को कुछ दे सकते हैं, तो फिर खुद को भी दे सकते हैं। आप इसके लिए डिजर्व करते हैं। सफलता के लिए अपनी केयर खुद करना अत्यधिक महत्वपूर्ण है।

सुने अपने अंदर की आवाज
खुद को संभावनाओं के संसार में उतारें। अपनी इच्छाओं के बारे में विचार करें। इसे भूल जाएँ कि लोग आपके बारे में क्या सोचते हैं। अपनी इच्छाओं को पूरी करने के लिए कार्य करें। जब आप खुद को जज करने या क्रिटिसाइट करने के लिए अपने अंदर की आवाज को सुनना आरंभ करेंगे, तो अपने नेगेटिव थिकिग को दूर कर पॉजिटिव एनर्जी लंकर सामने आएँगे।

अपनी क्षमताओं को पहचानें
ऐसे स्थान, जहाँ सफलता की संभावना अधिक हो, वहाँ खुद को रखने की कोशिश करें। यह कल्पना करें कि आप सीढ़ी-दर-सीढ़ी सक्सेस की तरफ आगे बढ़ रहे हैं। और जब ऐसा करते हुए खुद एंज्वॉय करेंगे तो आपके लिए लिए सक्सेस का एक्सपीरियंस भी अच्छा रहेगा। अपने गुणों पर जोर देकर क्षमता को बढ़ाएँ और उस बात पर फोकस करें कि आप क्या हासिल कर सकते हैं। अपनी सीमाओं को एक्सेप्ट करना भी सीखें।

2. ‘दक्षिण का कश्मीर-तिरुवनंतपुरम् विषय पर फौचर लिखिए।

दक्षिण का कश्मीर-तिरुवनंतपुरम्

दक्षिण भारत में तिरुवनंतपुरम् को प्राकृतिक सुंदरता के कारण दक्षिण का कश्मीर कहा जाता है। केरल की इस सुंदर राजधानी को इसकी प्राकृतिक सुंदरता, सुनहरे समुद्र तटों और हरे-भरे नारियल के पेड़ों के कारण जाना जाता है। आपको भी ले चलें इस बार तिरुवनंतपुरम् की सैर पर. भारत के दक्षिणी छोर पर स्थित तिरुवनंतपुरम् (जिसे पहले त्रिवेंद्रम के नाम से जाना जाता था) को अरब सागर ने घेर रखा है। इसके बारे में कहा जाता है कि पौराणिक योद्धा भगवान परशुराम ने अपना फरसा फेंका था जो कि यहाँ आकर गिरा था। स्थानीय भाषा में त्रिवेंद्रम का अर्थ होता है, कभी न खत्म होने वाला साँप।

एक ओर जहाँ यह शहर अपनी प्रकृतिक सुंदरता और औपनिवेशिक पहचान को बनाए रखने के लिए जाना जाता है, वहीं दूसरी ओर इसे मंदिरों के कारण पहचाना जाता है। ये सारे मंदिर बहुत ही लोकप्रिय हैं। इन सबमें पद्मनाभस्वामी का मंदिर सर्वाधिक प्रसिद्ध है। शाब्दिक अर्थ में पद्मनाभस्वामी का अर्थ है-कमल की सी नाभि वाले भगवान का मदिर। तिरुवनंतपुरम् के पास ही जनार्दन का भी मंदिर है। यहाँ से 25,730 किलोमीटर दूर शिवगिरि का मंदिर है जिसे एक महान समाज सुधारक नारायण गुरु ने स्थापित किया था। उन्हें एक धर्मनिरपेक्ष समाज सुधारक के तौर पर याद किया जाता है। शहर के बीचोंबीच एक पालयम स्थित है जहाँ एक मंदिर, मस्जिद और गिरजाघर को एक साथ देखा जा सकता है।

शहर के महात्मा गाँधी मार्ग पर जाकर कोई भी देख सकता है कि आधुनिक तिरुवनंतपुरम् भी कितना पुराना है। इस इलाके में आज भी ब्रिटिश युग की छाप देखी जा सकती है। इस मार्ग पर दोनों ओर औपनिवेशिक युग की शानदार हमरतें मौजूद हैं पब्लिक लाइब्रेरी, काँलेज आफ फ़ाईन आर्ट्स, विक्टोरिया जुबिली टाउनहाल और सचिवालय इसी मार्ग पर स्थित हैं।

इनके अलावा नेपियर म्यूजियम एक असाधारण इमारत है, जिसकी वास्तु-शैली में भारतीय और यूरोपीय तरीकों का मेल साफ दिखता है। यह म्यूजियम (संग्रहालय) काफी बड़े क्षेत्र में फैला है जिसमें श्रीचित्र गैलरी, चिड़ियाघर और वनस्पति उद्यान हैं। पर संग्रहालय में सबसे ज्यादा देखने लायक बात राजा रवि वर्मा के चित्र हैं। राजा रवि वर्मा का मुख्य कार्यकाल वर्ष 1848-1909 के बीच का रहा है। उनके चित्रों की सबसे बड़ी विशेषता हिंदू महाकाव्यों और धर्मग्रंथों पर बनाए गए चित्र हैं।

तिरुवनंतपुरम् कुछ वैज्ञानिक और तकनीकी संस्थानों का भी केंद्र है, जिनमें विक्रम साराभाई स्पेस सेंटर, सेंटर फॉर अर्थसाइंस स्टडीज और एक ऐसा संग्रहालय है जो कि विज्ञान और प्रोद्योगिकी के सभी पहलुओं से साक्षात्कार कराता है। भारत के अंतरिक्ष अनुसंधान के प्रारंभिक प्रयासों का केंद्र थुबा यहाँ से ज्यादा दूर नहीं है।

शहर का पुराना बाजार क्षेत्र चाला बाजार अभी भी अपनी परंपरागत मोहकता के लिए जाना जाता है। वाणकोर रियासत के दौरान जेवरात, कपड़े की दुकानें, ताजा फलों और सब्जियों की दुकानें और दैनिक उपयोग की वस्तुएँ यहीं एक स्थान पर मिल जाया करती थीं।

तिरुवनंतपुरम् दक्षिण भारत का बड़ा पर्यटन केंद्र है और देश के अन्य किसी शहर में इतनी प्राकृतिक सुंदरता, इतने अधिक मंदिर और सुंदर भवनों का मिलना कठिन है। यहाँ पहुँचना भी मुश्किल नहीं है। केरल राज्य की यह राजधानी जल, थल और वायु मार्ग से देश के सभी क्षेत्रों से जुड़ी है।

3. ‘बस्ते का बढ़ता बोझ’ विषय पर फीचर लिखिए।

बस्ते का बढ़ता बोझ

आज जिस भी गली, मोहल्ले या चौराहे पर सुबह के समय देखिए, हर जगह छोटे-छोटे बच्चों के कंधों पर भारी बस्ते लदे हुए दिखाई देते हैं। कुछ बच्चों से बड़ा उनका बस्ता होता है। यह दृश्य देखकर आज की शिक्षा-व्यवस्था की प्रासंगिकता पर प्रश्नचिहन लग जाता है। क्या शिक्षा नीति के सूत्रधार बच्चों को किताबों के बोझ से लाद देना चाहते हैं। वस्तुत: इस मामले पर खोजबीन की जाए तो इसके लिए समाज अधिक जिम्मेदार है। सरकारी स्तर पर छोटी कक्षाओं में बहुत कम पुस्तकें होती हैं, परंतु निजी स्तर के स्कूलों में बच्चों के सर्वागीण विकास के नाम पर बच्चों व उनके माता-पिता का शोषण किया जाता है। हर स्कूल विभिन्न विषयों की पुस्तकें लगा देते हैं। ताकि वे अभिभावकों को यह बता सकें कि वे बच्चे को हर विषय में पारंगत कर रहे हैं और भविष्य में वह हर क्षेत्र में कमाल दिखा सकेगा। अभिभावक भी सुपरिणाम की चाह में यह बोझ झेल लेते हैं, परंतु इसके कारण बच्चे का बचपन समाप्त हो जाता है। वे हर समय पुस्तकों के ढेर में दबा रहता है। खेलने का समय उसे नहीं दिया जाता। अधिक बोझ के कारण उसका शारीरिक विकास भी कम होता है। छोटे-छोटे बच्चों के नाजुक कंधों पर लदे भारी-भारी बस्ते उनकी बेबसी को ही प्रकट करते हैं। इस अनचाहे बोझ का वजन विद्यार्थियों पर दिन-प्रतिदिन बढ़ता जा रहा है जो किसी भी दृष्टि से उचित नहीं है।

4. ‘महानगर की ओर पलायन की समस्या’ विषय पर फीचर लिखिए।

महानगर की ओर पलायन की समस्या

महानगर सपनों की तरह है मनुष्य को ऐसा लगता है मानो स्वर्ग वही है। हर व्यक्ति ऐसे स्वर्ग की ओर खींचा चला आता है। चमक-दमक, आकाश छूती इमारतें, सब कुछ पा लेने की चाह, मनोरंजन आदि न जाने बहुत कुछ जिन्हें पाने के लिए गाँव का सुदामा’लालायित हो उठता है और चल पढ़ता है महानगर की ओर। आज महानगरों में भीड़ बढ़ रही है। हर ट्रेन, बस में आप यह देख सकते हैं। गाँव यहाँ तक कि कस्बे का व्यक्ति भी अपनी दरिद्रता को समाप्त करने के ख्वाब लिए महानगरों की तरफ चल पड़ता है। शिक्षा प्राप्त करने के बाद रोजगार के अधिकांश अवसर महानगरों में ही मिलते हैं। इस कारण गाँव व कस्बे से शिक्षित व्यक्ति शहरों की तरफ भाग रहा है। इस भाग-दौड़ में वह अपनों का साथ भी छोड़ने को तैयार हो जाता है। दूसरे, अच्छी चिकित्सा सुविधा, परिवहन के साधन, मनोरंजन के अनेक तरीके, बिजली-पानी की कमी न होना आदि अनेक आकर्षक महानगर की ओर पलायन को बढ़ा रहे हैं। महानगरों की व्यवस्था भी चरमराने लगी है। यहाँ के साधन भी भीड़ के सामने बौने हो जाते हैं। महानगरों का जीवन एक ओर आकर्षित करता है तो दूसरी ओर यह अभिशाप से कम नहीं है। सरकार को चाहिए कि वह विकास कोंगों में भ करे इना क्षेत्र में शिया स्वास्य पिरहान रोग आद की सुवथा हनेस पालन कि सकता हैं।

5. ‘फुटपाथ पर सोते लोग’ विषय पर फीचर लिखिए।

फुटपाथ पर सोते लोग

महानगरों में सुबह सैर पर निकलिए, एक तरफ आप स्वास्थ्य लाभ करेंगे तो दूसरी तरफ आपको फुटपाथ पर सोते हुए लोग नजर आएँगे। महानगर जिसे विकास का आधार-स्तंभ माना जाता है, वहीं पर मानव-मानव के बीच इतना अंतर है। यहाँ पर दो तरह के लोग हैं- एक उच्च वर्ग जिसके पास उद्योग, सत्ता, धन है, जो हर सुख भोगता है, जिसके पास बड़े-बड़े भवन हैं तथा जो महानगर के जीवनचक्र पर प्रभावी है। दूसरा वर्ग वह है जो अमीर बनने की चाह में गाँव छोड़कर आता है तथा यहाँ आकर फुटपाथ पर सोने के लिए मजबूर हो जाता है। इसका कारण उसकी सीमित आर्थिक क्षमता है। महँगाई, गरीबी आदि के कारण इन लोगों को भोजन ही मुश्किल से नसीब होता है। घर इनके लिए एक सपना होता है। इस सपने को पूरा करने के लिए अकसर छला जाता है यह वर्ग। सरकारी नीतियाँ भी इस विषमता के लिए दोषी हैं। सरकार की तमाम योजनाएँ भ्रष्टाचार के मुँह में चली जाती है और गरीब सुविधाओं की बाट जोहता रहता है।

6. ‘आतंकवाद की समस्या’ या ‘आतंकवाद का घिनौना चेहरा’ विषय पर फीचर लिखिए।

आतंकवाद की समस्या या आतंकवाद का धिनौना चेहरा

सुबह अखबार खोलिए-कश्मीर में चार मरे, मुंबई में बम फटा, दो मरे, ट्रेन में विस्फोट। इन खबरों से भारत का आदमी सुबह-सुबह साक्षात्कार करता है। उसे लगता है कि देश में कहीं शांति नहीं है। न चाहते हुए भी व आतंक के फोबिया से ग्रस्त हो जाता है। आतंकवाद एक विश्वव्यापी समस्या बन गया है। यह क्रूरतापूर्ण नरसंहार का एक रूप है। यह , 20 वीं सदी की देन है। आतंकवाद के उदय के अनेक कारण हैं। कहीं यह एक वर्ग द्वारा दूसरे वर्ग के शोषण का परिणाम है तो कहीं यह विदेशी राष्ट्रों की करतूत है। कुछ विकसित देश धर्म के नाम पर अविकसित देशों में लड़ाई करवाते हैं। आतंकवाद की जड़ में अशिक्षा, बेरोजगारी, पिछड़ापन है। सरकार का ध्यान ऐसे क्षेत्रों की तरफ तभी जाता है जब वहाँ हिंसक घटनाएँ शुरू हो जाती हैं। देश के कुछ राजनीतिक दल भी अपनी सत्ता बनाए रखने के लिए आतंक के नाम पर दंगे करवाते रहते हैं। इस समस्या को सामूहिक प्रयासों से ही समाप्त किया जा सकता है। आतंकवादी भय का माहौल पैदा करके अपने उद्देश्यों में सफल होते हैं। जनता को चाहिए कि वह ऐसे तत्वों का डटकर मुकाबला करें। आतंक से संबंधित व्यक्तियों के खिलाफ सख्त कानूनी कार्रवाई करनी चाहिए। सरकार के भी ऐसे क्षेत्रों में विकास योजनाएँ शुरू करनी चाहिए ताकि इन क्षेत्रों के युवक गरीबी के कारण गलत हाथों का खिलौना न बने।

7. ‘चुनावी वायदे’ विषय पर फीचर लिखिए।

चुनावी वायदे

‘अगर हम जीते तो बेरोजगारी भत्ता दो हजार रुपये होगा।”
“किसानों को बिजली मुफ्त, पानी मुफ्त।”
“बूढ़ों की पेंशन डबल”
जब भी चुनाव आते हैं तो ऐसे नारों से दीवारें रंग दी जाती हैं। अखबार हो, टी०वी० हो, रेडियो हो या अन्य कोई साधन, हर जगह मतदाताओं को अपनी तरफ खींचने के लिए चुनावी वायदे किए जाते हैं। भारत एक लोकतांत्रिक देश है। यहाँ हर पाँच वर्ष बाद चुनाव होते हैं तथा सरकार चुनने का कार्य संपन्न किया जाता है। चुनावी बिगुल बजते ही हर राजनीतिक दल अपनी नीतियों की घोषणा करता है। वह जनता को अनेक लोकलुभावने नारे देता है। जगह-जगह रैलियाँ की जाती हैं। भाड़े की भीड़ से जनता को दिखाया जाता है कि उनके साथ जनसमर्थन बहुत ज्यादा है। उन्हें अपने-अपने क्षेत्र की समस्याओं का पता होता है। चुनाव-प्रचार के दौरान वे इन्हीं समस्याओं को मुद्दा बनाते हैं तथा सत्ता में आने के बाद इन्हें सुलझाने का वायदा करते हैं। चुनाव होने के बाद नेताओं को न जनता की याद आती है और न ही अपने वायदे की, फिर वे अपने कल्याण में जुट जाते हैं। वस्तुत: चुनावी वायदे कागज के फूलों के समान हैं जो कभी खुशबू नहीं देते। ये केवल चुनाव जीतने के लिए किए जाते हैं। इनका वास्तविकता से कोई संबंध नहीं होता। अत: जनता को नेताओं के वायदों पर यकीन नहीं करना चाहिए तथा विवेक तथा देशहित के मद्देनजर अपने मत का प्रयोग करना चाहिए।

8. ‘सर्दी में पानी की जरूरत’ विषय पर एक फीचर तैयार कीजिए।

बिना प्यास के भी पीएँ पानी

सर्दी के मौसम में वैसे तो सब कुछ हजम हो जाता है, इसलिए जो मर्जी खाएँ। इसके अलावा सर्दी के मौसम में पानी पीना शरीर के लिए बहुत जरूरी होता है। गर्मी के दिनों में तो बार-बार प्यास लगने पर व्यक्ति पर्याप्त मात्रा में पानी पी लेता है, लेकिन सर्दी के मौसम में वह इस चीज को नजरअंदाज कर देता है। ऐसा नहीं होना चाहिए, क्योंकि मौसम चाहे सर्दी का हो या फिर गर्मी का, शरीर को पानी की जरूरत होती है। जब तक शरीर को पानी पर्याप्त मात्रा में नहीं मिलेगा. तब तक शरीर का विकास भी सही नहीं हो पाएगा। माना कि सर्दी में प्यास नहीं लगती, लेकिन हमें बिना प्यास के भी पानी पीना चाहिए। पानी पीने से एक तो शरीर की अंदर से सफाई होती रहती है। इसके अलावा पथरी की शिकायत भी अधिक पानी पीने से दूर हो जाती है। पानी पीने से शरीर की पाचन-शक्ति भी सही बनी रहती है तथा पाचन रसों का स्राव भी जरूरत के अनुसार होता रहता है। बिना पानी के शरीर अंदर से सूख जाता है, जिससे शारीरिक क्रियाओं में व्यवधान उत्पन्न हो जाता है। विज्ञान में पानी को हाइड्रोजन और ऑक्सीजन का मिश्रण माना गया है और ऑक्सीजन हमारे जीवन के लिए सबसे जरूरी गैस है। इसी वजह से पानी को भी शरीर के लिए जरूरी माना गया है, चाहे सर्दी हो या फिर गर्मी।

9. ‘बच्चों को प्रोत्साहन’ विषय पर एक फीचर लिखिए।

अच्छे काम पर बच्चों को करें एप्रिशिऐट

हर कोई गलतियों से सबक लेता है, जब गलती ही अच्छे कार्य के लिए प्रेरित करती है तो बच्चों को भी गलती करने पर दोबारा अच्छे कार्य के लिए प्रेरित किया जाना चाहिए। अच्छा काम करने पर बच्चों को एप्रिशिऐट करना जरूरी है, जब हम बच्चों को प्रोत्साहित करेंगे, तो वे आगे भी बेहतर करने को उत्सुक होंगे। लोकनायक जयप्रकाश अस्पताल के चाइल्ड स्पेशलिस्ट डॉ. तनुज के मुताबिक आम तौर पर दो वर्ष के बच्चे का 90 प्रतिशत दिमाग सीखने समझने के लिए तैयार हो जाता है और पाँच वर्ष तक वह पूर्ण रूप से सीखने, बोलने लायक हो जाता है। यही वह उम्र होती है, जब बच्चा तेजी से सीखता है। ऐसे में माहौल भी इस तरह का हो कि बच्चा अच्छा सीखे। गलती करने पर यदि प्यार से समझाया जाए तो वह उसे समझेगा। उसे गलत करने पर टोकना जरूरी हो जाता है। वरना वह गलती को दोहराता रहेगा। बच्चों को बेहतर करने के लिए प्रोत्साहन दिया जाना चाहिए। डॉ. तनुज कहते हैं कि बच्चों को यह नहीं पता होता है कि वे जो कर रहे हैं, वह सही या गलत। उसे बताया जाए कि जो उसने किया है, वह गलत है, क्योंकि जब तक बच्चों को बताया नहीं जाएगा, उन्हें गलती के बारे में पता नहीं चलेगा। यदि एक बार उसकी गलती के बाबत उसे बताते हैं तो वह दोबारा नहीं करेगा। दूसरे बच्चों के सामने व्यवहार वैसा ही हो, जैसा हम खुद के लिए अपेक्षा करते हैं। बच्चों को प्यार दुलार की ज्यादा जरूरत होती है।

(ब) रिपोर्ट लेखन

रिपोर्ट-किसी योजना, परियोजना या कार्य के नियोजन एवं कार्यन्वयन के नियोजन के पश्चात् उसके ब्यौरे के प्रस्तुतीकरण की रिपोर्ट कहते हैं।
रिपोर्ट किसी घटना अथवा समारोह की भी होती है। आजकल यह रेडियो, टीवी तथा अखबार की विशिष्ट विधा है।

रिपोर्ट के गुण
रिपोर्ट का आकार संक्षिप्त होना चाहिए। उसमें निष्पक्षता का भाव बेहद जरूरी है। उसमें पूर्णता व संतुलन होना चाहिए।

विशेष रिपोर्ट
किसी विषय पर गहरी छानबीन, विश्लेषण और व्याख्या के आधार पर बनने वाली रिपोर्टों को विशेष रिपोर्ट कहते हैं। इन्हें तैयार करने के लिए किसी घटना, समस्या या मुद्दे की गहरी छानबीन की जाती है। उससे संबंधित तथ्यों को एकत्रित किया जाता है। तथ्यों के विश्लेषण से उसके नतीजे, प्रभाव और कारणों का स्पष्ट किया जाता है।

विशेष रिपोर्ट के प्रकार
ये कई प्रकार की होती हैं जो निम्नलिखित हैं-

  1. खोजी रिपोर्ट-इसमें रिपोर्टर मौलिक शोध व छानबीन के जरिए ऐसी सूचनाएँ या तथ्य सामने लाता है जो सार्वजनिक तौर पर पहले उपलब्ध नहीं थीं। उसका प्रयोग आमतौर पर भ्रष्टाचार, अनियमितताओं और गड़बड़ियों को उजागर करने के लिए किया जाता है।
  2. इन-डेप्थ रिपोर्ट-इसमें सार्वजनिक तौर पर उपलब्ध तथ्यों, सूचनाओं और आँकड़ों की गहरी छानबीन की जाती है। छानबीन के आधार पर किसी घटना, समस्या या मुद्दे से जुड़े महत्वपूर्ण पहलुओं को सामने लाया जाता है।
  3. विश्लेषणात्मक रिपोर्ट-इसमें किसी घटना या समस्या से जुड़े तथ्यों के विश्लेषण और व्याख्या पर जोर दिया जाता है।
  4. विवरणात्मक रिपोर्ट-इसमें किसी घटना या समस्या का विस्तृत और बारीक विवरण प्रस्तुत किया जाता है।

विशेष रिपोर्ट लेखन की शैली
सामान्यत: विशेष रिपोर्ट को उल्टा पिरामिड शैली में ही लिखा जाता है, परंतु कई बार इन्हें फीचर शैली में भी लिखा जाता है। इस तरह की रिपोर्ट आमतौर पर समाचार से बड़ी होती है, इसलिए पाठक की रुचि बनाए रखने के लिए कई बार उलटा पिरामिड और फीचर दोनों शैलियों को मिलाकर इस्तेमाल किया जाता है। यदि रिपोर्ट बड़ी हो तो उसे श्रृंखलाबद्ध करके कई दिन तक किस्तों में छापा जाता है।

उदाहरण

1. देश के महानगरों में पानी की गंभीर समस्या है। इसके कारणों के बारे में रिपोर्ट तैयार कीजिए।

…बिन पानी सब सुन

श्रीलता मेनन
नई दिल्ली, 20 दिसंबर
देश के सबसे अमीर स्थानीय निकाय बृहनमुबई नगर निगम (बीएमसी) को भी देश की आर्थिक राजधानी के बाशिंदों को पानी देने में हाथ तंग करना पड़ रहा है। बीएमसी पहले ही पानी की आपूर्ति में 15 फीसदी की कटौती कर चुका है और इस हफ्ते इस बात पर फैसला लेगा कि मुंबईवालों को हफ्ते के सभी दिन पानी दिया जाए या किसी एक दिन उससे महरूम रखा जाए। इस साल बारिश की बेरुखी से केवल मुंबई का हाल ही बेहाल नहीं है, बल्कि देश के लगभग सभी प्रमुख शहरों में इस दफे पानी का रोना रोया जा रहा है।

शहरों का आकार जैसे-जैसे बड़ा हो रहा है पानी की उनकी जरूरत भी बढ़ती जा रही है। शहरों के स्थानीय प्रशासनों को पानी की लगातार बढ़ती माँग से तालमेल बिठने के लिए खासी मशक्कत करनी पड़ रही है। दिल्ली, भोपाल, चंडीगढ़, कोलकाता, मुंबई, चेन्नई और बंगलुरू में से केवल बंगलुरू में ही हालात कुछ बेहतर है। इसकी सीधी सी वजह है वर्षा जल-संरक्षण के मामले में देश की यह आईटी राजधानी दूसरे शहरों के लिए मिसाल है। वहीं दूसरे शहरों में खास तौर से दिल्ली में बैठे जिम्मेदार लोग ‘बाहरी लोगों के दबाव’ को बदइंतजामी की वजह बताते हुए ठीकरा उनके सर फोड़ते हैं।

चेन्नई में अभी तक मीटर नहीं है। बारिश के पानी का इस्तेमाल करने के लिए मुंबई को अभी बंदोबस्त करना बाकी है। इन शहरों की नीतियों में भी पारदर्शिता की कमी झलकती है। बड़े शहरों में केवल बंगलुरू में ही 90 फीसदी मीटर काम कर रहे हैं, जबकि राष्ट्रीय राजधानी में केवल आधी आबादी की आपूर्ति ही मीटर के जरिए होती है। बीएमसी के अधिकारी कहते हैं कि निगम पानी की बर्बादी रोकने के लिए कदम उठा रहा है, लेकिन जमीनी स्तर पर कुछ होता नहीं नजर आ रहा है। देश में बड़े पैमाने पर भूजल का दोहन हो रहा है, लेकिन इंदौर को छोड़कर किसी अन्य शहर में भूजल के बेजा इस्तेमाल पर जुर्माना नहीं है। मध्य प्रदेश के इस प्रमुख वाणिज्यिक शहर में इस साल पानी के मामले में आपातकाल जैसे हालात हैं। पूरब के महानगर कोलकाता में भी पानी देने वाली हुगली नदी को नजरअंदाज किया जा रहा है।

2. खेती योग्य जमीन खराब होती जा रही है। इस संदर्भ में रिपोर्ट तैयार कीजिए।

… सरकार कब लेगी माटी की सुध

पंकज कुमार पांडेय,
नई दिल्ली, 15 सितंबर
खेती योग्य जमीन के लगातार घटते रकबे से खाद्य सुरक्षा को लेकर नयी चुनौतियाँ सामने आ रही हैं। साथ ही, केंद्र की तमाम योजनाओं की सुस्त रफ़्तार और लापरवाही के कारण बंजर भूमि विकसित करके उसे खेती योग्य बनाने की मुहिम परवान नहीं चढ़ पा रही है। ग्रामीण विकास मंत्रालय की संसदीय स्थायी समिति की रिपोर्ट में साफ कहा गया है कि अगर देश में खाद्य सुरक्षा का लक्ष्य हासिल करना है तो सूखाग्रस्त और खराब भूमि को विकसित करने का काम तेजी से करना होगा। समिति ने बीते 20 वर्षों में बड़ी-बड़ी योजनाओं के नाम पर हजारों करोड़ रुपये खर्च करने के बावजूद देश में करीब 5.53 करोड़ हेक्टेयर भूमि बंजर बने रहने पर नाखुशी का इजहार किया है। योजनाओं की बदहाली को बयान करते हुए रिपोर्ट में बताया गया है कि एकीकृत बंजर भूमि विकास कार्यक्रम, सूखा संभावित क्षेत्र कार्यक्रम, मरुभूमि विकास कार्यक्रम व अन्य योजनाओं के लिए केंद्र ने 2013-18 के लिए 17205 करोड़ रुपये का इंतजाम किया है। इस क्रम में 30 अक्टूबर, 2009 तक कुल आवंटित राशि का 30 प्रतिशत ही खर्च हो पाया है। पैसा कहाँ जा रहा है? समिति ने इस बात पर भी आपत्ति जताई कि देश में भूमि स्रोत के लिए सातवीं योजना से अब तक करीब 12,000 करोड़ रुपये खर्च होने के बावजूद इसका आकलन नहीं किया गया कि इस राशि से कृषि और रोजगार में कितना रिटर्न मिला। हालाँकि समिति को तमाम रिपोर्टों के हवाले से बताया गया है कि वाटरशेड प्रोग्राम जैसी योजनाओं के अध्ययन के मुताबिक ग्रामीण आय में 58 प्रतिशत और कृषि क्षेत्र में 35 प्रतिशत आय बढ़ी है।

3. मुंबई पर हमले के संबंध में सरकारी लापरवाही कितनी रही? इस संबंध में रिपोर्ट तैयार करें।

खुलासा मुबई पर हमले के सबंध में रियोट पेश
कमजोर थे हम

मुंबई आतंकी हमले की जाँच करने वाली प्रधान समिति ने मुंबई के तत्कालीन पुलिस कमिश्नर हसन गफूर के पक्ष से गंभीर चूक पाई है। समिति ने अपनी रिपोर्ट में कहा है कि गफूर आतंकी हमले के दौरान शहर में फैली युद्ध जैसी स्थिति से निपटने में नाकाम रहे। रिपोर्ट में राज्य व शहर के आला अधिकारियों पर हमले के दौरान सामान्य कार्यप्रणाली (एसओपी) का पालन न करने का आरोप लगाया गया है। इसमें पुलिस फोर्स के तत्काल उन्नयन व लगातार समीक्षा के सुझाव भी दिए गए हैं। छह माह पहले महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री अशोक चव्हाण की सौंपी जा चुकी इस रिपोर्ट का मराठी अनुवाद गृहमंत्री आरआर पाटील ने सोमवार को विधानसभा पटल पर रखा। इस रिपोर्ट में दिए गए तथ्यों की जानकारी स्वयं पाटील ने सदन को दी। इस रिपोर्ट को पूर्व गवर्नर आरडी प्रधान की अध्यक्षता में गठित दो सदस्यीय समिति ने तैयार किया था।

पाटील ने सदन को बताया कि मुख्यमंत्री को मिलाकर गठित 16 सदस्यीय दल इस रिपोर्ट के सभी पहलुओं का अध्ययन करेगा। साथ ही मीडिया में इसके लीक होने की भी जाँच की जाएगी। उन्होंने स्वीकार किया कि महाराष्ट्र सरकार को दी गई रिपोर्ट और लीक हुई रिपोर्ट एक जैसी थी। विधानसभा में विपक्ष के नेता एकाथखडसे ने रिपोर्ट के मीडिया में लीक होने की सीबीआई जाँच की माँग की। उन्होंने इस मामले में सरकार पर लापरवाही बरतने का आरोप लगाया। मुद्दे पर विपक्ष ने सदन से वाकआउट कर दिया। खडसे ने कहा है कि इस रिपोर्ट की जानकारी सिर्फ मुख्यमंत्री, गृहमंत्री, मुख्य सचिव व अतिरिक्त मुख्य सचिव (गृह) को ही थी। उन्होंने कहा कि सरकार को डर है कि जाँच हुई तो उसमें इन्हीं में से कोई दोषी निकलेगा।
4. नेपाल में बड़ी संख्या में लोग तपेदिक के शिकार हैं। इस संदर्भ में रिपोर्ट तैयार करें।

नेपाल के 45 प्रतिशत लोग तपेदिक से संक्रमित

काठमांडू (एजेंसी)। एक अनुमान के अनुसार नेपाल की करीब 45 प्रतिशत आबादी तपेदिक से संक्रमित है। इनमें से 60 प्रतिशत संख्या उत्पादक आयु समूह की है। नेपाल के स्वास्थ्य और जनसंख्या विभाग ने शनिवार को 56 वें राष्ट्रीय तपेदिक दिवस पर जारी एक रिपोर्ट में कहा कि तपेदिक से हर वर्ष करीब 5,000 से 7000 लोगों की मौत होती है। स्थानीय अखबार हिमालयन टाइम्स के अनुसार नेपाल के तपेदिक विरोधी एसोसिएशन के अध्यक्ष देवेंद्र बहादुर प्रधान ने कहा कि सरकार को तपेदिक के प्रति अधिक चिंतित होनी चाहिए और इसकी रोकथाम के लिए प्रभावी कार्यक्रम शुरू करना चाहिए। राष्ट्रीय तपेदिक कार्यक्रम की निदेशक पुष्पामाला ने कहा कि तपेदिक के इलाज के लिए ‘डायरेक्टली आब्जब्र्ड ट्रीटमेंट’ (डॉट) की रणनीति अपनाई गई है। उन्होंने कहा कि डॉट कार्यक्रम को तपेदिक के इलाज और रोकथाम में काफी प्रभावी पाया गया है। नेपाल में विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यू०एच०ओ०) के सहयोग से वर्ष 1996 में डॉट कार्यक्रम की शुरूआत की गई।

लघूत्तरात्मक प्रश्न

प्रश्न 1:
‘रिपोर्ताज’ शब्द की उत्पत्ति किस भाषा से मानी जाती है?
उत्तर –
फ्रेंच भाषा से।

प्रश्न 2:
रिपोर्ताज की परिभाषा दीजिए।
उत्तर –
किसी घटना का अपने सत्य रूप में वर्णन जो पाठक के सम्मुख घटना का चित्र सजीव रूप में उपस्थित कर उसे प्रभावित कर सके, रिपोर्ताज कहलाता है।

प्रश्न 3:
रिपोर्ताज लेखन में क्या आवश्यक हैं?
उत्तर –
संबंधित घटनास्थल की यात्रा, साक्षात्कार, तथ्यों की जाँच।

प्रश्न 4:
रिपोर्ताज की मुख्य विशेषताएँ बताइए।
उत्तर –
तथ्यता, कलात्मकता, रोचकता।

प्रश्न 5:
हिदी में रिपोर्ताज प्रकाशित करने का श्रेय किस पत्रिका को है?
उत्तर –
हंस।

प्रश्न 6:
रिपोर्ट की परिभाषा दीजिए।
उत्तर –
किसी योजना, परियोजना या कार्य के नियोजन एवं कार्यान्वयन के पश्चात् उसके ब्यौरे के प्रस्तुतीकरण को रिपोर्ट कहते हैं।

प्रश्न 7:
विशेष रिपोर्ट किसे कहते हैं?
उत्तर –
किसी विषय पर गहरी छानबीन, विश्लेषण और व्याख्या के आधार पर बनने वाली रिपोर्टो को विशेष रिपोर्ट कहते हैं।

प्रश्न 8:
विशेष रिपोर्ट के दो प्रकारों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर –
खोजी रिपोर्ट, इन-डेप्थ रिपोर्ट।

प्रश्न 9:
विशेष रिपोर्ट के लेखन में किन बातों पर अधिक बल दिया जाता है?
उत्तर –
विशेष रिपोर्ट के लेखन में घटना, समस्या या मुद्दे की गहरी छानबीन की जाती है तथा महत्वपूर्ण तथ्यों को इकट्ठा करके उनका विश्लेषण किया जाता है।

प्रश्न 10:
रिपोर्ट व रिपोर्ताज में अंतर स्पष्ट करो।
उत्तर –
रिपोर्ट में शुष्कता होती है, रिपोर्ताज में नहीं। रिपोर्ट का महत्व सामयिक होता है, जबकि रिपोर्ताज का शाश्वत।

प्रश्न 11:
खोजी रिपोर्ट का प्रयोग कहाँ किया जाता है?
उत्तर –
इस रिपोर्ट का प्रयोग आमतौर पर भ्रष्टाचार, अनियमितताओं और गड़बड़ियों को उजागर करने के लिए किया जाता है।

प्रश्न 12:
इन-डेप्थ रिपोर्ट क्या होती है?
उत्तर –
इस रिपोर्ट में सार्वजनिक तौर पर उपलब्ध तथ्यों, सूचनाओं और आँकड़ों की छानबीन करके महत्वपूर्ण मुद्दों को बताया जाता है।

प्रश्न 13:
विशेषीकृत रिपोर्टिंग की एक प्रमुख विशेषता लिखिए।
उत्तर –
इसमें घटना या घटना के महत्व का स्पष्टीकरण किया जाता है।

प्रश्न 14:
रिपोर्ट लेखन की भाषा की दो विशेषताएँ बताइए।
उत्तर –
रिपोर्ट लेखन की भाषा सरल व सहज होनी चाहिए। उसमें संक्षिप्तता का गुण भी होना चाहिए।

(स) आलेख लेखन

किसी एक विषय पर विचारप्रधान, गद्य प्रधान अभिव्यक्ति को ‘आलेख’ कहा जाता है। यह एक प्रकार के लेख होते हैं जो अधिकतर संपादकीय पृष्ठ पर ही प्रकाशित होते हैं। इनका संपादकीय से कोई संबंध नहीं होता। ये लेख किसी भी क्षेत्र से संबंधित हो सकता है; जैसे-खेल, समाज, राजनीति, अर्थ, फिल्म आदि। इनमें सूचनाओं का होना अनिवार्य है।

आलेख के मुख्य अंग
आलेख के मुख्य अंग हैं–
भूमिका, विषय का प्रतिपादन, तुलनात्मक चर्चा व निष्कर्ष सर्वप्रथम शीर्षक के अनुकूल भूमिका लिखी जाती है। यह बहुत लंबी न होकर संक्षेप में होनी चाहिए। विषय के प्रतिपादन में विषय का वर्गीकरण, आकार, रूप व क्षेत्र आते हैं। इसमें विषय का क्रमिक विकास किया जाता है। विषय में तारतम्यता व क्रमबद्धता अवश्य होनी चाहिए। तुलनात्मक चर्चा में विषयवस्तु का तुलनात्मक विश्लेषण किया जाता है और अंत में, विषय का निष्कर्ष प्रस्तुत किया जाता है।

आलेख रचना के संबंध में प्रमुख बातें–

  1. लेख लिखने से पूर्व विषय का चिंतन-मनन करके विषयवस्तु का विश्लेषण करना चाहिए।
  2. विषयवस्तु से संबंधित आँकड़ों व उदाहरणों का उपयुक्त संग्रह करना चाहिए।
  3. लेख में श्रृंखलाबद्धता होना जरूरी है।
  4. लेख की भाषा सरल, बोधगम्य व रोचक होनी चाहिए। वाक्य बहुत बड़े नहीं होने चाहिए। एक परिच्छेद में एक ही भाव व्यक्त करना चाहिए।
  5. लेख की प्रस्तावना व समापन में रोचकता होनी जरूरी है।
  6. विरोधाभास, दोहरापन, असंतुलन, तथ्यों की असंदिग्धता आदि से बचना चाहिए।

उदाहरण
1. असम में उल्फा
-ओ. पी. पाल ( नई दिल्ली)

पूर्वोत्तर में शांति बहाली के लिए केंद्र सरकार या तो अलगाववादी संगठनों के साथ बातचीत करे या युद्ध स्तरीय कार्रवाई करे। सरकार का दोहरा रवैया आतंकियों के हौसले बुलंद कर रहा है। भारत के पूर्वोत्तर राज्यों के सबसे बड़े एवं मजबूत अलगाववादी संगठन यूनाईटेड लिबरेशन फ्रट ऑफ असम यानी उल्फा अभी कमजोर नहीं है, यही दिखाने के लिए उल्फा आतंकवादियों ने असम के नलबाड़ी जिले में धमाके किए हैं। उल्फा आतंकवादियों की इस आतंकी कार्यवाही में सरकार पर यह दबाव बनाने का भी एक बड़ा संकेत है कि बांग्लादेश में गिरफ्तार दो कमांडों की रिहाई बिना शर्त की जाए। विशेषज्ञों का मानना है कि पूर्वोत्तर में शांति बहाल करने के लिए सरकार समग्र सोच के साथ अलगाववादी संगठनों से वार्ता करे या इन संगठनों के साथ युद्ध स्तरीय कार्यवाही करे।

पूर्वोत्तर राज्यों में भारत सरकार नक्सलवाद और अलगाववाद से निपटने के लिए जहाँ ठोस उपाय करने का दावा करती है, वहीं इन आतंकी संगठनों से वार्ता करने की भी पेशकश करती है। सरकार का यह दोहरा रवैया ही देश के अंदर पनपे इन आतंकवादी संगठनों के हौसले बुलंद कर रहे हैं। रविवार को असम के नलबाड़ी जिले में थाने के निकट बारी-बारी से किए दो धमाकों में फिर से निदोष लोगों को काल का ग्रास बनाया गया है, इससे पहले 13 जुलाई, 2009 को उल्फा आतंकियों द्वारा बालीपारा के जंगल में बिछाई बारूदी सुरंग की चपेट में आकर सेना के कमांडर एसएम थिरूमल व उनकी जीप का चालक मौत का शिकार हो गया था।

असम में ताजा बम विस्फोट ऐसे समय किया गया है जब भारत सरकार उल्फा नेताओं को सुरक्षा देने की तैयारी के लिए अपनी योजना बना रही है। सरकारी सूत्रों की मानें तो सरकार उल्फा से बातचीत के लिए तैयार है और सरकार का यह भी दावा है कि उन्होंने बांग्लादेश में मौजूद उल्फा के शीर्ष नेताओं परेश बरुआ और राजखोवा को भारत आने के लिए सुरक्षित मार्ग देने की पेशकश की है, लेकिन सरकार उल्फा से उसी शर्त पर वार्ता को तैयार है कि वह पूवोत्तर राज्यों में हिंसा को बंद कर दे।

उधर बांग्लादेश की शेख हसीना सरकार द्वारा आतंकवादियों के खिलाफ कार्रवाई की प्रतिबद्धता के साथ गत 5 नवंबर को पकड़े गए दो शीर्ष उल्फा कमांडरों शशधर चौधरी और चित्राबेन हजारिका को बी०एस०एफ० के जरिए भारत को सौंप दिया है। बताया जा रहा है कि शशधर चौधरी नलबाड़ी जिले का ही रहने वाला है। इसलिए माना जा रहा है कि यह बम धमाके इन दोनों उल्फा नेताओं की गिरफ्तारी के विरोध में हुए हैं। उल्फा आतंकवादी संगठन का चूँकि 27 नवंबर को स्थापना दिवस भी है उससे पहले इस बम धमाके को अंजाम देकर अलगाववादी संगठनों ने सरकार को चेता दिया है कि उनका संगठन अभी भी अपनी पूरी ताकत में है और उसे कमजोर न समझा जाए।

सरकार द्वारा उल्फा के खिलाफ जहाँ सेना की कार्रवाई की जा रही थी वहीं उनसे वार्ता की रणनीति भी बनाई जा रही थी, जिस पर गत 26 अक्टूबर को उल्फा के चेयरमैन अरविंद राजखोवा ने केंद्र सरकार पर आरोप लगाया था कि वह बातचीत करने में बाधक बनी हुई है, जबकि उल्फा सरकार से बातचीत करने को तैयार है, लेकिन हथियार डालकर नहीं। उनके निशाने पर नेशनल फ्रट बोडोलैंड है जिसने अक्टूबर में ही गैर-बोडो समुदायों पर हमले भी किए थे।

2. कॉमनवेल्थ गेम्स

कॉमनवेल्थ गेम्स यानी वह खेल प्रतियोगिता, जिसमें केवल कॉमनवेल्थ देश की टीमें ही हिस्सा लेती हैं। कॉमनवेल्थ के सदस्य वे देश हैं, जो कभी ब्रिटिश साम्राज्य के उपनिवेश रहे थे। इस विशाल संगठन की सबसे खास बात है कि इसके सदस्य देश आपस में एक ऑफिशियल भाषा और कॉमन वैल्यूज से जुड़े होते हैं। अंग्रेजी इन सभी देशों की ऑफिशियल लैंग्वेज है। जाहिर है, एक भाषा के कारण सदस्य देशों की टीमों को घुलने-मिलने में ज्यादा सहूलियत होती है। निश्चित तौर पर इससे एकजुटता बढ़ती है और दुनिया में मित्रता का संदेश पहुँचता है।

कॉमनवेल्थ गेम्स का सबसे पहला प्रस्ताव दिया था, वर्ष 1891 में ब्रिटिश नागरिक एस्ले कूपर ने। उन्होंने ही एक स्थानीय समाचार-पत्र में इस खेल प्रतियोगिता का प्रारंभिक प्रारूप पेश किया था। इसके अनुसार, यदि कॉमनवेल्थ के सदस्य देश प्रत्येक चार वर्ष के अंतराल पर इस तरह की खेल प्रतियोगिताओं का आयोजन करें, जो उनकी गुडविल तो बढ़ाएगा ही, आपसी एकजुटता में भी खूब इजाफा होगा। फिर क्या था, ब्रिटिश साम्राज्य को कूपर का यह प्रस्ताव बेहद पसंद आया और उसके साथ ही शुरू हो गया खेलों का यह महोत्सव।

पहली बार कॉमनवेल्थ गेम्स आयोजित करने की कोशिश हुई वर्ष 1911 में। यह अवसर था किंग जॉर्ज पंचम के राज्याभिषेक का। यह एक बड़ा उत्सव था, जिसमें अन्य सांस्कृतिक आयोजनों के अलावा, इंटर एंपायर चैंपियनशिप भी संपन्न हुई। इसमें ऑस्ट्रेलिया, कनाडा, साउथ अफ्रीका और यूके की टीमें शामिल हुई थीं। इसमें विजेता टीम थी कनाडा, जिसे दो फीट और छह इंच की सिल्वर ट्रॉफी से नवाजा गया था। काफी समय तक कॉमनवेल्थ गेम्स के शुरूआती प्रारूप में कोई बदलाव नहीं हुआ। वर्ष 1928 में जब एम्सटर्डम ओलपिक आयोजन हुआ, तो फिर ब्रिटिश साम्राज्य ने इसे शुरू करने का निर्णय लिया। हैमिल्टन, ओटेरिया कनाडा में शुरू हुए पहले कॉमनवेल्थ गेम्स।

हालाँकि इसका नाम उस समय था ब्रिटिश एंपायर गेम्स। इसमें ग्यारह देशों ने हिस्सा लिया था। ब्रिटिश एंपायर गेम्स की सफलता कॉमनवेल्थ गेम्स को नियमित बनाने के लिहाज से एक बड़ी प्रेरणा थी। वर्ष 1930 से ही यह प्रत्येक चार वर्षों के अंतराल पर आयोजित होने लगा। वर्ष 1930-1950 तक यह ब्रिटिश एंपायर गेम्स के नाम से ही जाना जाता था, फिर वर्ष 1966 से 1974 तक इसे ब्रिटिश कॉमनवेल्थ गेम्स के रूप में जाना जाने लगा। इसके चार वर्ष बाद यानी वर्ष 1978 से यह कॉमनवेल्थ गेम्स बन गया।

3. बढ़ती आबादी-देश की बरबादी

आधुनिक भारत में जनसंख्या बड़ी तेजी से बढ़ रही है। देश के विभाजन के समय यहाँ लगभग 42 करोड़ आबादी थी, परंतु आज यह एक अरब से अधिक है। हर वर्ष यहाँ एक आस्ट्रेलिया जुड़ रहा है। भारत के मामले में यह स्थिति अधिक भयावह है। यहाँ साधन सीमित है। जनसंख्या के कारण अनेक समस्याएँ उत्पन्न हो रही हैं। देश में बेरोजगारी बढ़ती जा रही है। हर वर्ष लाखों पढ़े-लिखे लोग रोजगार की लाइन में बढ़ रहे हैं। खाद्य के मामले में उत्पादन बढ़ने के बावजूद देश का एक बड़ा हिस्सा भूखा सोता है। स्वास्थ्य सेवाएँ बुरी तरह चरमरा गई हैं। यातायात के साधन भी बोझ ढो रहे हैं। कितनी ही ट्रेनें चलाई जाए या बसों की संख्या बढ़ाई जाए, हर जगह भीड़-ही-भीड़ दिखाई देती है।

आवास की कमी हो गई है। इसका परिणाम यह हुआ कि लोगों ने फुटपाथों व खाली जगह पर कब्जे कर लिए हैं। आने वाले समय में यह स्थिति और बिगड़ेगी जनसंख्या बढ़ने से देश में अपराध भी बढ़ रहे हैं, क्योंकि जीवन-निर्वाह में सफल न होने पर युवा अपराधियों के हाथों का खिलौना बन रहे हैं। देश के विकास के कितने ही दावे किए जाए, सच्चाई यह है कि आम आदमी का जीवन स्तर बेहद गिरा हुआ है। आबादी को रोकने के लिए सामूहिक प्रयास किए जाने चाहिए। सरकार को भी सख्त कानून बनाने होंगे तथा आम व्यक्ति को भी इस दिशा में स्वयं पहल करनी होगी। यदि जनसंख्या पर नियंत्रण नहीं किया गया हम कभी भी विकसित देशों की श्रेणी में नहीं खड़े हो पाएँगे।

4. बचपन की पढ़ाई शिखर की चढ़ाई
—अजीम प्रेमजी

एक बच्चा अपने शुरूआती वर्षों के दौरान जो अनुभव पाता है, जो क्षमताएँ विकसित करता है, उसी से दुनिया को लेकर उसकी समझ निर्धारित होती है और यह तय होता है कि वह आगे चलकर कैसा इनसान बनेगा। भारत में कई तरह के स्कूली विकल्प हैं। ऐसे में यह तय करना मुश्किल है कि आमतौर पर एक बच्चे के स्कूल के संबंध में क्या अनुभव रहते हैं, लेकिन मैं अलग-अलग तरह के स्कूलों से इतर भारत के स्कूल जाने वाले बच्चों के अनुभवों में एक खास तरह की समानता देखता हूँ। मैं स्कूली अनुभवों के तीन महत्वपूर्ण पहलुओं पर ध्यान दिलाना चाहूँगा, जिनसे यह निर्धारित होता है कि एक बच्चा बड़ा होकर किस तरह का इंसान बनेगा। पहली बात, एक इंसान के तौर पर बच्चे का अनुभव, दूसरी बात, पठन-पाठन की प्रक्रिया, तीसरा स्कूल के दुनिया के साथ जुड़ाव को बच्चा किस तौर पर लेता है। इस आधार पर हम यह देखने की कोशिश करते हैं कि हमारे ज्यादातर स्कूलों की वास्तविकता क्या है।

स्कूल का वातावरण
बच्चा दिन में एक नियत अवधि के दौरान ही स्कूल में रहता है। मोटे तौर पर देखा जाए तो स्कूल एक कंक्रीट की बनी इमारत होती हैं, जहाँ कमरों में डेस्क और बेंच एक के पीछे एक करीने से सजी होती है। हालाँकि कुछ कम सौभाग्यशाली बच्चे ऐसे स्कूलों में भी जाते हैं, जहाँ शायद उन्हें यह बुनियादी व्यवस्था न मिले, लेकिन जगह का आकार और इसका इस्तेमाल वहाँ भी इसी तरीके से होता है।

बच्चा दिन का जितना समय स्कूल में गुजारता है, उसे पीरियड्स में बाँट दिया जाता है। हर पीरियड किसी खास विषय के लिए निर्धारित होता है और हफ्ते में एक-दो पीरियड ऐसे भी हो सकते हैं, जिनमें बच्चा खेलकूद या दूसरी गतिविधियों में हिस्सा ले सकता है। उससे खास तरह के परिधान में स्कूल आने की उम्मीद की जाती है। हर समय उसे यह बताया जाता है वह कहाँ पहुँच सकता है, उससे क्या करने की उम्मीद है और वह इसे कैसे कर सकता है।

किसी कारणवश यदि वह कुछ अलग करने की सोचता है, चाहे वह पड़ोसी लड़के से बातचीत करना चाहता हो या क्लास से बाहर जाना चाहता हो, तो इसके लिए उसे इजाजत लेनी पड़ती है। अलग-अलग स्कूलों की प्रवृत्ति के अनुसार इन नियमों के उल्लंघन पर अध्यापकों द्वारा अलग-अलग सजा निर्धारित होती है। इसके लिए या तो उसको मार पड़ सकती है या जोरदार डाँट पिलाई जा सकती है अथवा और कुछ नहीं तो उसके माता-पिता को एक नोट भेजा जा सकता है। संक्षेप में कहें तो बच्चे के लिए स्कूल एक ऐसी जगह है जहाँ उसे कठोर अनुशासन व नियम-कायदों का पालन करना होता है। बच्चा दुनिया के बारे में शुरूआती पाठों में से एक यह सबक भी सीखता है कि दुनिया कुछ नियम-कायदों से नियंत्रित होती है। बच्चे से यह उम्मीद की जाती है कि वह बिना कोई सवाल किए इनका पालन करे। यदि वह इनमें से किसी नियम को तोड़े तो सजा के लिए तैयार रहे। आप सफल हैं यदि इन सभी नियमों को बिना किसी परेशानी से पालन कर सकते हैं।

पठन-पाठन प्रक्रिया
छात्र स्कूल प्रबंधन द्वारा तय की गई किताबों के खास सेट का इस्तेमाल करता है। किताबों में वे तथ्य और आँकड़े होते हैं, जिनके बारे में अध्यापक बच्चों को अवगत कराता है। जरूरी नहीं कि सीखने-सिखाने की प्रक्रिया में वे सवाल भी शामिल हों जो दिए गए तथ्यों से परे हों और ऐसे प्रश्न भी उस विषय के दायरे में ही सीमित होते हैं, जिन पर चर्चा की जा रही है। बच्चा क्या सीखता है, इसकी परिभाषा उपकरणों व तकनीकों में महारत हासिल करने व तथ्यों और आँकड़ों को याद रखने तक ही सीमित है। यह अध्यापक और टाइमटेबल से तय होता है कि निर्धारित समय में बच्चा क्या सीखता है और अच्छा विद्यार्थी होने का मतलब है कि आप में ऐसी क्षमता हो जिससे आप ज्यादा-से-ज्यादा तथ्य और जानकारियाँ हासिल कर सकें।

यह दूसरी सीख है जो बच्चा स्कूल से पाता है-
अध्यापक और पाठ्यपुस्तकें हमेशा सही होते हैं। एक सफल विद्यार्थी होने का मतलब है कि आप ज्यादा-से-ज्यादा बातों को याद रखने के काबिल बन जाएँ और जब चाहें इन्हें फिर से दोहरा सकें।

शिक्षा का संदर्भ
आखिरकार, यह समूची शिक्षा कहाँ और कैसे इस्तेमाल होती है? बच्चा स्कूल में जो कुछ भी सीखता है, उसका इस्तेमाल स्कूल के भीतर ही होता है। या तो वह क्लास में पूछे गए सवालों के जवाब देता है या फिर सत्र के आखिर में परीक्षा में इसे दर्शाता है; उसके अनुसार असली दुनिया और किताबी ज्ञान से काफी अंतर होता है। बच्चा कभी यह नहीं सीख पाता कि स्कूल में अर्जित की गई शिक्षा को बाहरी जगत से किस तरह जोड़ना है। यह पढ़ाई-लिखाई मुख्यत: एक ही मकसद को पूरा करती है, और वह है एक्जामिनेशन में उत्तीर्ण होना जो उसकी अच्छी नौकरी पाने की योग्यता पर मोहर लगाता हैं।

यह तीसरा सबक है-
शिक्षा का मकसद अपने लिए एक डिग्री पाना है। इसके अलावा भी यदि वास्तविक जीवन में इसके कुछ मायने हैं. तो वे सीमित ही हैं। इससे लगता है कि हमने जो शैक्षणिक तंत्र बनाया है, उससे जो लोग तैयार होंगे वे अथोरिटी के भय के साथ बड़े होंगे। इनमें से ज्यादातर दुनिया के नियम-कायदों का बिना कोई सवाल किए अनुसरण करेंगे और वास्तविक जीवन की ज्यादातर परिस्थितियों में खुद के बारे में अनिश्चित रहेंगे।

शिक्षा से चाह
यह कहने की कोई जरूरत नहीं है कि यह एक धुंधली तसवीर की तरह लगता है। सोसायटी के तौर पर, शिक्षा से हमारो जरूरतें ऊपर दर्शाई गई बातों से काफी अलग हैं। इसे अच्छी तरह से समझने के लिए, हमें फिर यह तय करने की जरूरत है कि अच्छी शिक्षा से हमारा मतलब क्या है। मेरे ख्याल से शिक्षा के दो प्राथमिक उद्देश्य हैं। पहला, जिस विशाल दुनिया में हम रहते हैं, हमें उसे सीखने-समझने के काबिल बनाना व इससे जुड़ने की योग्यता देना। दूसरा, व्यक्ति विशेष को सशक्त बनाना, उसे इतना सक्षम बनाना जिससे वह दुनिया से सवाल कर सके, चुनौती दे सके और इसे बदलने में अपना योगदान दे सके।

एक समाज के तौर पर हमें अपने नागरिकों को आजाद ख्याल बनाने की जरूरत है, जिनमें नेतृत्व की क्षमता हो, जो समाज की जमीनी हकीकत के प्रति संवेदनशील हों और समुदाय के प्रति अपनी जिम्मेदारी महसूस करें। हर व्यक्ति खुद को इतना सशक्त महसूस करे कि वह सवाल पूछने में हिचके नहीं और स्वयं अपना योगदान दें। इस ताकत और आत्मविश्वास को एक व्यक्ति के भीतर खोजना, पल्लवित करना और मजबूत करना जरूरी है। बच्चा स्कूल के दौरान जिन अनुभवों से गुजरता है, वे इन शक्तियों के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।

एक अच्छा स्कूल
स्कूल ऐसी जगह होना चाहिए जहाँ सीखने के लिए उचित माहौल बन सके। स्कूल के बुनियादी ढाँचे के अलावा इसके वैल्यू सिस्टम समेत हमें इसके वातावरण पर फिर से गौर करना होगा। हमें बच्चों को दखलंदाजी से मुक्त और रोचक माहौल देने की आवश्यकता है। हमें ऐसे तत्वों को पहचान कर दूर करना होगा, जो बच्चों के शारीरिक, मानसिक और भावनात्मक विकास में बाधक हैं। अनुशासन के लिहाज से यही बेहतर है कि ऐसे नियम-कायदों को, जिन्हें बच्चे सजा की तरह समझे, जबरन लादने की बजाय नियमों को तय करने में उनकी भागीदारी भी हो। हमें उन्हें सशक्त बनाना होगा और स्कूली प्रक्रिया में उनकी भागीदारी सुनिश्चित करनी होगी।

क्लास रूम में लोकतांत्रिक व्यवस्था नजर आए, जहाँ बच्धों के साथ इंटरएक्शन संवादात्मक हो शिक्षात्मक नहीं। जहाँ सभी बच्चों के साथ समान व्यवहार किया जाए। आपसी संपर्क, संवाद और अनुभव पर आधारित शिक्षा संबंधी प्रविधियाँ होंगी। अवधारणाओं को सिखाने पर ध्यान देना चाहिए। मेरे विचार से यह बेहद जरूरी है कि हम शिक्षा को व्यापक सामाजिक संदर्भों के हिसाब से देखें। शिक्षा ऐसी होनी चाहिए जिससे बच्चे अपने ज्ञान को बाहरी दुनिया के साथ जोड़ सकें। ज्ञान वास्तविक अनुभवों से आता है और यदि क्लास रूम के क्रियाकलापों को वास्तविकता से नहीं जोड़ा जाता तो शिक्षा हमारे बच्चों के लिए महज शब्दों और पाठों का खेल ही बनी रहेगी।

आज हम एक समाज के तौर पर बेहतर स्थिति में है और बदलाव के लिहाज से महत्वपूर्ण कदम उठा सकते हैं। देश में कई स्कूल और संस्थान यह दर्शा रहे हैं कि वस्तुत: हम पुराने तौर-तरीकों से निजात पाकर बेहतर शिक्षा के लिए प्रयास कर सकते हैं। जयपुर का दिगंतर द्वारा संचालित बंध्याली स्कूल, बंगलुरू का सेंटर फॉर लर्निग या बर्दवान में विक्रमशिला का विद्या स्कूल जैसे कुछ शिक्षालय ऐसी शिक्षा के लिए जाने जाते हैं, जैसी हम चाहते हैं। एकलव्य, दिगंतर और विद्या भवन जैसे सामाजिक संस्थान और आई डिस्कवरी तथा ईजेड विद्या जैसे कुछ सामाजिक उपक्रम पूरे देश में चलाए जा रहे इस सतत आंदोलन का एक हिस्सा हैं। इन सबके प्रभाव मुख्यधारा की स्कूलिंग पर नजर आने लगे हैं।

एक नागरिक के तौर पर हमें न सिर्फ इस बदलाव का स्वागत करने वरन खुद भी भागीदारी बनते हुए इसे आगे बढ़ाने की जरूरत है। हमें यथा स्थिति को बदलना होगा और ऐसा तंत्र तैयार करना होगा, जो बेहतर इंसान पैदा कर सक।

5. भारतीय कृषि की चुनौती

ऐसे समय में जब खाद्य पदार्थों की कीमतें आसमान छू रही हैं और दुनिया में भुखमरी अपने पैर पसार रही है, जलवायु परिवर्तन से संबंधित विशेषज्ञ आगाह कर रहे हैं कि आने वाले वक्त में हमें और भी भयावह स्थिति का सामना करना पड़ेगा। दिनों-दिन बढ़ते वैश्विक तापमान की वजह से भारत की कृषि क्षमता में लगातार गिरावट आती जा रही है। एक अनुमान के मुताबिक इस क्षमता में 40 फीसदी तक की कमी हो सकती है। (ग्लोबल वार्मिग एंड एग्रीकल्चर, विलियम क्लाइन)। कृषि के लिए पानी और ऊर्जा या बिजली दोनों ही बहुत अहम तत्व हैं, लेकिन बढ़ते तापमान की वजह से दोनों की उपलब्धता मुश्किल होती जा रही है।

तापमान बढ़ने के साथ ही देश के एक बड़े हिस्से में सूखे और जल संकट की समस्या भी बद से बदतर होती जा रही है। एक तरफ वैश्विक तापमान से निपटने के लिए जीवाश्म ईंधन के इस्तेमाल पर ब्रेक लगाने की जरूरत महसूस की जा रही है। वहीं दूसरी ओर कृषि कार्य के लिए पानी की आपूर्ति के वास्ते बिजली की आवश्यकता भी दिन-प्रतिदिन बढ़ती जा रही है।

खाद्य सुरक्षा, पानी और बिजली के बीच यह संबंध जलवायु परिवर्तन की वजह से कहीं ज्यादा उभरकर सामने आया है। एक अनुमान के मुताबिक अगले दशक में भारतीय कृषि की बिजली की जरूरत बढ़कर दोगुनी हो जाने की संभावना है। यदि निकट भविष्य में भारत को कार्बन उत्सर्जन में कटौती के समझौते को स्वीकारने के लिए बाध्य होना पड़ता है तो सबसे बड़ा सवाल यही उठेगा कि फिर आखिर भारतीय कृषि की यह माँग कैसे पूरी की जा सकेगी।

इसका जवाब कोपेनहेगन में नहीं, बल्कि कृषि में पानी और बिजली के इस्तेमाल को युक्तिसंगत बनाने में निहित है। कृषि में बिजली का बढ़ता इस्तेमाल इस तथ्य से साफ है कि अब किसान पाँच हार्सपॉवर के पंपों के बजाय 15 से 20 हार्सपॉवर के सबमसिबल पंपों का इस्तेमाल करने लगे हैं। पाँच हार्सपॉवर के पंप 1970 के दशक में काफी प्रचलन में थे। इससे राज्य सरकारें अत्यधिक दबाव में हैं, क्योंकि कृषि क्षेत्र की बिजली संबंधी जरूरतों की पूर्ति उसे ही करनी होगी। जमीन के भीतर से पानी खींचने के लिए बिजली की अधिक जरूरत पड़ती है। पंजाब में बिजली की जितनी खपत होती है, उसका एक तिहाई हिस्सा अकेले पानी को पंप करने में ही खर्च हो जाता है।

हरियाणा में यह आँकड़ा 41 और आंध्र प्रदेश में 36 फीसदी है। हालाँकि सरकार वृहद सिंचाई परियोजनाओं और नहरों पर करोड़ों रुपये खर्च कर रही है, लेकिन तथ्य यह है कि नहरों के पानी का महज 25 से 45 फीसदी ही इस्तेमाल हो पाता है, जबकि कुओं और नलकूपों का 70 से 80 फीसदी तक पानी इस्तेमाल कर लिया जाता है। भूजल से कृषि उत्पादकता नहरी सिंचाई से कृषि उत्पादकता की तुलना में डेढ़ से दो गुनी ज्यादा है। यही वजह है कि निजी क्षेत्र भूजल में ही निवेश को प्राथमिकता दे रहा है।

देश के सिंचाई साधनों में 60 फीसदी हिस्सा भूजल स्रोतों का है जिनके विकास पर निजी क्षेत्र 2.2 लाख करोड़ रुपये खर्च कर रहा है, लेकिन भूजल से सिंचाई तब तक टिकाऊ नहीं हैं, जब तक कि जल संरक्षण के लिए उतनी ही राशि खर्च नहीं की जाती जितनी कि भूमिगत जल स्रोतों के विकास पर खर्च की जा रही है। उन क्षेत्रों में जल प्रबंधन बहुत जरूरी है जो सिंचाई के लिए पूरी तरह से भूमिगत पानी पर निर्भर है, ताकि वहाँ भूजल के स्तर के साथ संतुलन बनाया जा सके, लेकिन हमारे नीति निर्माताओं ने अब तक इस पर ध्यान नहीं दिया है। अभी पूरा ध्यान नहरी सिंचाई पर ही दिया जा रहा है। भारत में भूमिगत जल का भौगोलिक बँटवारा असमान है और इसका इस्तेमाल भी बेहद गलत ढंग से किया जा रहा है। देश के 70 फीसदी प्रखंडों में भूजल का स्तर संतोषजनक है, लेकिन उन 30 फीसदी प्रखंडों में पानी का अधिकतम दोहन किया जा रहा है, जहाँ पहले से ही पानी का संकट है।

भूजल में कमी की प्रमुख वजह नलकूपों से सिंचाई है। इसका सबसे बड़ा उदाहरण पंजाब है। वहाँ भूजल का स्तर 50 से 100 फीट तक नीचे गिर चुका है, लेकिन इसके बावजूद वह अनाज के रूप में 21 अरब क्यूबिक मीटर पानी का ‘निर्यात’ कर रहा है। वहाँ भूजल का दोहन 145 फीसदी तक हो रहा है। इसी तरह उत्तर प्रदेश भी अनाज के रूप में 21 अरब क्यूबिक मीटर पानी का निर्यात कर रहा है, लेकिन भूजल का दोहन 70 फीसदी तक सीमित है। हरियाणा 14 अरब क्यूबिक मीटर पानी का निर्यात कर रहा है और भूजल दोहन का आँकड़ा 109 फीसदी है। कुछ राज्यों ने जल प्रबंधन की दिशा में कई कदम उठाए हैं।

महाराष्ट्र ने ‘वाटर आडिट’ करने की व्यवस्था शुरू की है। पंजाब और हरियाणा अब चावल की रोपाई मशीन से करने लगे हैं, ताकि ग्रीष्मकाल में सबसे गर्म दिनों से बचा जा सके। जल-संरक्षण आज के समय की सबसे महती जरूरत है। भारत में करीब एक करोड़ कुएँ हैं, लेकिन उनमें से 35 फीसदी निष्क्रिय हैं। भूमिगत जलस्रोतों को रिचार्ज करके इन कुओं को आसानी से बहाल किया जा सकता है। देश के कई इलाकों में लोग ऐसा करके दिखा भी चुके हैं, लेकिन लगता है हमारे नौकरशाह अब भी इससे सहमत नहीं हैं।

हमारी खान-पान की आदतों में बदलाव भी जल संरक्षण में अहम भूमिका निभूा सकता है। एक टन गोमांस के लिए 16726 क्यूबिक मीटर पानी की जरूरत होती है, जबकि एक टन मक्के के उत्पादन में महज 1020 क्यूबिक मीटर पानी ही चाहिए। एक टन आलू के उत्पादन में महज 133 क्यूबिक मीटर पानी की जरूरत होती है, जबकि इतने ही पनीर या चीज के उत्पादन में 40 गुना अधिक पानी की आवश्यकता होगी। खाद्यान्न उत्पादन में गिरावट के भय को भुनाने का प्रयास करते हुए बहुराष्ट्रीय बीज कंपनियाँ ऐसे बीजों के विकास का दावा कर रही हैं जिनसे सूखे में भी उत्पादन लिया जा सकेगा, लेकिन जेनेटिकली मॉडीफाइंड बीजों को लेकर ऐसे दावे प्रमाणिकता से कोसों दूर हैं किसान अब फिर से बीजों की पारंपरिक किस्मों की ओर लौट रहे हैं जिन्हें बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ काफी प्रयासों के बावजूद मिटा नहीं सकी।

स्वयं करें

1. निम्नलिखित में से किसी एक विषय पर लगभग 150 शब्दों में फीचर लिखिए

  1. किसानों पर कर्ज का बोझ
  2. महानगरों में बढ़ते अपराध
  3. बाल श्रमिक
  4. बँधुआ मजदूर
  5. जातीयता का विषय
  6. महँगी शिक्षा
  7. कृषकों में बढ़ती आत्महत्या की प्रवृत्ति
  8. शहरों का दमघोंटू वातावरण
  9. सचिन तेंदुलकर की उपलब्धियाँ
  10. मेरे विद्यालय का पुस्तकालय
  11. आज की तनावपूर्ण जीवन-शैली
  12. मोबाइल के सुख-दुख

2. निम्नलिखित विषयों पर रिपोर्ट तैयार कीजिए

  1. सूखाग्रस्त क्षेत्र
  2. विद्यालय के सांस्कृतिक कार्यक्रमू

3. निम्नलिखित में से किसी एक विषय पर लगभग 150 शब्दों में आलेख लिखिए

  1. डॉक्टरों की हड़ताल।
  2. छात्र और बिजली संकट।
  3. फिल्मों में हिंसा।
  4. सांप्रदायिक सद्भावना।
  5. कर्ज में डूबा किसान।
  6. भारतीय चंद्रयान एक बड़ी उपलब्धि।
  7. दिन-प्रतिदिन बढ़ते अंधविश्वास।
  8. पेट्रोल-डीजल की बढ़ती कीमतें।

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