संतोष धन संकेत बिंदु:
- जीवन में संतोष का अर्थ
- जीवन में संतोष का आधार।
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संतोष का धन पर निबंध (Santosh ka Dhan) | Essay on Satisfaction in Hindi
जीवन में जो-जैसा मिले उसी से प्रसन्न रहने का भाव संतोष है। यह जीवन का दैवीय गुण है, जो व्यक्ति और समाज दोनों के लिए हितकर है। आज के आपाधापी के युग में संतोष का मूल्य और महत्त्व और अधिक बढ़ गया है। ईर्ष्या, द्वेष, हिंसा, लूट-खसोट में लिप्त मनुष्य के पास प्रभूत भौतिक साधन हैं, फिर भी वह भीतर से कहीं अशांत रहता है। इसके विपरीत झोंपड़ी में रहते हुए भी वह यदि सीमित साधनों के बीच सहज जीवन जीता है तो वही संतोषी है और सच्चे अर्थों में सुखी भी वही है।
संतोष तो वास्तव में मन की इच्छाओं की एक संतुलित अवस्था और परिधि है, जहाँ व्यक्ति किसी भी प्रकार उत्तेजित नहीं होता, क्रुद्ध या रुष्ट नहीं होता, किसी के प्रति आक्रोश या प्रतिकार का भाव उसके मन में नहीं रह जाता। तभी ऐसा व्यक्ति परिस्थितियों का दास नहीं बन पाता, बल्कि उन्हें अपने अधीन रखने में समर्थ हुआ करता है। अप्राप्त के लिए सचेष्ट एवं संघर्षशील रहकर भी संतोषी व्यक्ति कभी अराजक नहीं बन पाता,
अतः उसके मन-जीवन में कुंठाएँ, हीनताएँ या अनास्थाएँ भी घर नहीं बना पाती। वह अलभ्य वस्तुओं के पीछे भागकर अपने समय, शक्ति, धन आदि का अपव्यय नहीं करता। संतोष में कर्महीनता का नहीं, अपितु कर्मशीलता का भाव है। जो कर्मशील है, वही सच्चे सुख-संतोष का अनुभव करता है। हमारे संतों ने संतोष को जीवन का सर्वोपरि धन मानकर उसकी भूरि-भूरि प्रशंसा की है।
कवि रहीम का कथन है:
गोधन,गजधन, वाजिधन और रतन धन खान।
जब आवै संतोष धन, सब धन धूरि समान॥