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हमें एक ऐसी व्यावहारिक व्याकरण की पुस्तक की आवश्यकता महसूस हुई जो विद्यार्थियों को हिंदी भाषा का शुद्ध लिखना, पढ़ना, बोलना एवं व्यवहार करना सिखा सके। ‘हिंदी व्याकरण‘ हमने व्याकरण के सिद्धांतों, नियमों व उपनियमों को व्याख्या के माध्यम से अधिकाधिक स्पष्ट, सरल तथा सुबोधक बनाने का प्रयास किया है।
अपठित काव्यांश (Unseen Poetry Passages) | Apathit Kavyansh In Hindi
लघुत्तरीय प्रारूप
अपठित काव्यांश की परिभाषा
अपठित काव्यांश से अभिप्राय उस काव्यांश से है, जो पहले पढ़ा हुआ न हो। कविता का ऐसा अंश जो पहले कभी पढ़ा न हो उसे अपठित काव्यांश कहते हैं। इसके द्वारा विद्यार्थी की कविता को समझने की क्षमता का विकास होता है।
अपठित गद्यांश की भाँति अपठित काव्यांश को भी पहले दो-तीन बार पढ़ना चाहिए, ताकि उसका अर्थ एवं भाव अच्छी तरह से समझ में आ जाए। तत्पश्चात् प्रश्नों के उत्तर लिखने चाहिए। उत्तर लिखते समय ध्यान रखना चाहिए कि वे सरल व स्पष्ट हों। कविता की पंक्तियों का प्रयोग उत्तर के लिए नहीं करना चाहिए वरन् उन्हें अपनी भाषा में लिखना चाहिए। इसके कुछ उदाहरण प्रस्तुत हैं :
अपठित काव्यांश की उदाहरण
निम्नलिखित काव्यांशों के आधार पर दिए गए प्रश्नों के उत्तर दीजिए
अपठित काव्यांश 1.
जाने क्यों तुमसे मिलने की आशा कम, विश्वास बहुत है।
सहसा भूली याद तुम्हारी उर में आग लगा जाती है,
विरहातप भी मधुर-मिलन के सोये मेघ जगा जाती है।
मुझको आग और पानी में रहने का अभ्यास बहुत है।
जाने क्यों तुमसे मिलने की आशा कम, विश्वास बहुत है।
धन्य-धन्य मेरी लघुता को जिसने तुम्हें महान बनाया,
धन्य तुम्हारी स्नेह-कृपणता जिसने मुझे उदार बनाया।
मेरी अंध भक्ति को केवल इतना मंद प्रकाश बहुत है।
जाने क्यों तुमसे मिलने की आशा कम, विश्वास बहुत है।
अगणित शलभों के दल एक ज्योति पर जलकर मरते।
एक बूंद की अभिलाषा में कोटि-कोटि चातक तप करते,
शशि के पास सुधा थोड़ी है पर चकोर की प्यास बहुत है।
जाने क्यों तुमसे मिलने की आशा कम, विश्वास बहुत है।
ओ! जीवन के थके पखेरू, बढ़े चलो हिम्मत मत हारो,
पंखों में भविष्य बन्दी है मत अतीत की ओर निहारो,
क्या चिन्ता धरती यदि छूटी उड़ने को आकाश बहुत है।
जाने क्यों तुमसे मिलने की आशा कम, विश्वास बहुत है।
(अपठित काव्यांश) Apathit Kavyansh Questions And Answers in Hindi
(क) कवि अपने मन के विश्वास को किस प्रकार अभिव्यक्त कर रहा है?
उत्तर-
कवि अपने प्रिय से विश्वास के साथ कह रहा है कि प्रिय की याद अचानक उसके मन में आकर मिलने की इच्छा जगा देती है। विरह व्यथा भी मधुर-मिलन के सोये मेघों को जगा देती है। ऐसी स्थिति में उसे प्रिय से मिलने की आशा से अधिक विश्वास है।
(ख) अपने और प्रिय के विषय में कवि क्या कह रहे हैं?
उत्तर-
कवि कह रहे हैं कि उनकी लघुता ने प्रिय को महान बना दिया और प्रिय की स्नेह-कृपणता ने उन्हें उदार बना दिया है। प्रिय के प्रति अपार भक्ति के लिए प्रिय का थोड़ा-सा ध्यान ही कवि के लिए काफी है।
(ग) किन उदाहरणों से कवि का विश्वास और भी अधिक दृढ़ हो जाता है?
उत्तर-
एक ज्योति के पीछे अगणित पतंगों का जलकर मरना, एक बूंद पानी के लिए करोड़ों चातकों का तप करना तथा चाँद के लिए चकोर का अपने जीवन को दाव पर लगाना यही उदाहरण कवि के विश्वास को अधिक दृढ़ कर रहे हैं।
अपठित काव्यांश 2.
न छेड़ो मुझे, मैं सताया गया हूँ,
हँसाते-हँसाते रुलाया गया हूँ।
‘सताए हुए को सताना बुरा है,
तृषित की तृषा को बढ़ाना बुरा है।
करूँ बात क्या दान या भीख की मैं
सँजोया नहीं हूँ, लुटाया गया हूँ!
न स्वीकार मुझको नियन्त्रण किसी का
अस्वीकार कब है निमन्त्रण किसी का
मुखर प्यार के मौन वातावरण में
अखरता अनोखा समर्पण किसी का।
प्रकृति के पटल पर नियति तूलिका से
अधूरा बनाकर मिटाया गया हूँ।
क्षितिज पर धरा व्योम से नित्य मिलती,
सदा चाँदनी में चकोरी निकलती।
तिमिर यदि न आह्वान करता प्रभाव का
कभी रात भर दीप की लौ न जलती।
करो व्यंग मत व्यर्थ मेरे मिलन पर मैं
आया नहीं हूँ, बुलाया गया हूँ।
न छेड़ो मुझे, मैं सताया गया हूँ।
(क) कवि क्या प्रार्थना कर रहा है और क्यों?
उत्तर-
कवि चाहता है कि उसे कोई भी ना छेड़े, क्योंकि उसे पहले ही काफी सताया गया है। उसे हँसाते-हँसाते रुलाया गया है। सताए हुए को और अधिक सताना बुरा है और प्यासे व्यक्ति की प्यास को और भी अधिक बढ़ाना बुरा है।
(ख) नियति की तुलिका से कवि को क्या शिकायत है?
उत्तर-
कवि ने कभी परतंत्र होकर जीना स्वीकार नहीं किया है। किसी के प्यार भरे निमंत्रण को अस्वीकार भी नहीं किया है। प्यार के मुखरित वातावरण में किसी का किया अनोखा समर्पण कवि को इसलिए अखरता है क्योंकि, नियति की तूलिका ने उसके भाग्य को अधूरा लिखकर छोड़ दिया है।
(ग) दीप की लौ के माध्यम से कवि क्या कहना चाह रहे हैं?
उत्तर-
कवि के अनुसार, जब तक सामने से किसी का इशारा नहीं मिलता तब तक सामने वाला कुछ करने के लिए उत्सुक नहीं होता। चाँद और चकोर तथा अंधकार और दीप की लौ का उदाहरण कवि ने इसी संदर्भ में दिया है।
अपठित काव्यांश 1.
छाया मत छूना
मन, होगा दुख दूना।
जीवन में हैं सुरंग सुधियाँ सुहावनी
छवियों की चित्र-गंध फैली मनभावनी
तन-सुगंध शेष रही, बीत गई यामिनी,
कुंतल के फूलों की याद बनी चाँदनी।
भूली-सी एक छुअन बनता हर जीवित
क्षण छाया मत छूना मन, होगा दुख दूना।
यश है या न वैभव है, मान है न सरमाया;
जितना ही दौड़ा तू उतना ही भरमाया।
प्रभुता का शरण-बिंब केवल मृगतृष्णा है,
हर चंद्रिका में छिपी एक रात कृष्णा है।
जो है यथार्थ कठिन उसका तू कर पूजन
छाया मत छूना मन,
होगा दुख दूना। दुविधा-हत साहस है,
दिखता है पंथ नहीं, देह सुखी हो पर
मन के दुख का अंत नहीं।
दुख है न चाँद खिला शरद-रात आने पर,
क्या हुआ जो खिला फूल रस-बसंत जाने पर?
जो न मिला भूल उसे कर तू भविष्य वरण,
छाया मत छूना
मन, होगा दुख दूना।
(क) कवि किसकी छाया को न छूने की बात करता है और क्यों?
उत्तर-
कवि मनुष्य को बीते लम्हों की याद ना कर भविष्य की ओर ध्यान देने को कह रहा है। कवि कहते हैं कि अपने अतीत को याद कर किसी मनुष्य का भला नहीं हुआ है बल्कि मन और दुखी हो जाता है।
(ख) यथार्थ कैसा है?
उत्तर-
कवि कहते हैं कि मनुष्य सारी जिंदगी यश, धन-दौलत, मान, ऐश्वर्य के पीछे भागते हुए बिता देता है जो की केवल एक भ्रम है। कवि कहते हैं कि ये ठीक उसी प्रकार है जैसे रेगिस्तान में पशु पानी की तलाश में भटकता है।
(ग) शरद-रात के चाँद के माध्यम से कवि क्या कहते हैं?
उत्तर-
कवि कहते हैं कि जिस प्रकार शरद पूर्णिमा की रात को चाँद न निकले तो उसका सारा सौंदर्य और महत्त्व समाप्त हो जाता है उसी प्रकार अगर मनुष्य को जीवन में सुख-संपदा नहीं मिलती तो इसका दुख उसे जीवन भर सताता है।
अपठित काव्यांश 4.
कुछ भी बन, बस कायर मत बन
ठोकर मार, पटक मत माथा
तेरी राह रोकते पाहन
कुछ भी बन, बस कायर मत बन
युद्ध देही कहे जब पामर,
दे न दुहाई पीठ फेर कर
या तो जीत प्रीति के बल पर
या तेरा पथ चूमे तस्कर
प्रति हिंसा भी दुर्बलता है
पर कायरता अधिक अपावन
कुछ भी बन, बस कायर मत बन
ले-देकर जीना, क्या जीना?
कब तक गम के आँसू पीना?
मानवता ने तुझको सींचा
बहा युगों तक खून-पसीना।
कुछ न करेगा? किया करेगा
रे मनुष्य! बस कातर क्रंदन? कुछ भी बन,
बस कायर मत बन तेरी रक्षा का ना मोल है
पर तेरा मानव अमोल है
यह मिटता है वह बनता है
यही सत्य की सही मोल है।
अर्पण कर सर्वस्व मनुज को,
कर न दुष्ट को आत्म-समर्पण
कुछ भी बन, बस कायर मत बन।
(क) कवि क्या करने की प्रेरणा दे रहा है?
उत्तर-
कवि कहते हैं कि तेरे सामने कैसी भी विपत्ति क्यों न आए तुझे कायर बनकर पीठ नहीं दिखानी है। परिस्थितियों से लड़ते हुए, रास्ते में आने वाली मुश्किलों को ठोकर मारते हुए कवि कायर न बनने की प्रेरणा दे रहे हैं।
(ख) कवि के अनुसार किस तरह का जीवन व्यर्थ है?
उत्तर-
कवि के अनुसार मनुष्य को समझौता करके जीवन नहीं जीना है। केवल आँसू बहाते हुए जीवन को व्यर्थ नहीं गँवाना है। जब तक गम को ठोकर मारकर मानवता की सेवा करते हुए उसके लिए खून-पसीना बहाते हुए यदि न जीया तो जीवन व्यर्थ है।
(ग) सत्य की सही मोल कवि ने किसे कहा है?
उत्तर-
कवि कहते हैं कि मनुष्य के भीतर की मानवता का कोई मोल नहीं। जीवन में बनना और मिटना तो लगा रहता है। मनुष्य के आगे सब कुछ अर्पण करना सही है लेकिन दुष्ट के आगे आत्म-समर्पण नहीं करना चाहिए।
अपठित काव्यांश 5.
एक सुनहली किरण उसे भी दे दो
भटक रहा जो अँधियाली के वन में
लेकिन जिसके मन में
अभी शेष है चलने की अभिलाषा
एक सुनहली किरण उसे भी दे दो।
मौन, कर्म में निरत,
बद्ध पिंजर में व्याकुल,
भूल गया जो दुख जतलाने वाली भाषा
उसको भी वाणी के कुछ क्षण दे दो।
तुम जो सजा रहे हो
ऊँची फुनगी पर के ऊर्ध्वमुखी
नव-पल्लव पर आभा की किरणें
तुम जो जगा रहे हो
दल के दल कमलों की आँखों के
सब सोये सपने,
तुम जो बिखराते हो भू पर
राशि-राशि सोना
पथ को उद्भासित करने एक किरण से
उसका भी माथा आलोकित कर दो।
एक स्वप्न उसके भी सोये मन में जागृत कर दो।
एक सुनहली किरण उसे भी दे दो।
भटक गया जो अंधियारे के वन में।
(क) कवि एक सुनहरी किरण किसे देने की बात कर रहा है?
उत्तर-
जो अँधेरे वन में भटक तो रहा है लेकिन अभी भी उसमें आगे बढ़ने तथा कुछ कर गुजरने की इच्छा है। उसे कवि सुनहरी किरण देने की बात कर रहा है।
(ख) कवि वाणी के क्षण किसे देने की बात कर रहा है?
उत्तर-
जो मौन रहकर लगातार कर्मरत है, पराधीनता से व्याकुल है, जो अपने दुखों को अभिव्यक्त करना भूल गया है, जिसके पास शब्द शेष नहीं रह गए हैं, कवि उसे वाणी देने की बात कर रहा है।
(ग) कवि किसके सोये मन में स्वप्न जागृत करने को कह रहा है?
उत्तर-
कवि कह रहे हैं कि तुम्हें तो ऊँचे-ऊँचे सपने सजाने की आदत है। तुम लोगों की आँखों में सपने भी जगा रहे हो। उनमें जीवन के सुखों को पाने के सोये सपनों को जन्म दे रहे हो। एक किरण उस उदास मन को दो और उसका भी पथ आलोकित करो।
अपठित काव्यांश 6.
नदी को रास्ता किसने दिखाया?
सिखाया था उसे किसने
कि अपनी भावना के वेग को
उन्मुक्त बहने दे?
कि वह अपने लिए
खुद खोज लेगी
सिंधु की गंभीरता
स्वच्छंद बहकर!
इसे हम पूछते आए युगों से
और सुनते भी युगों से आ रहे उत्तर नदी काः
मुझे कोई कभी आया नहीं था राह दिखलाने;
बनाया मार्ग मैंने आप ही अपना,
ढकेला था शिलाओं को
गिरी निर्भीकता से मैं कई ऊँचे प्रपातों से;
वनों में कंदराओं में
भटकती, भूलती मैं
फूलती उत्साह से प्रत्येक बाधा-विघ्न को
ठोकर लगाकर, ठेलकर,
बढ़ती गई आगे निरंतर
एक तट को दूसरे से दूरतर करती;
बढ़ी संपन्नता के
और अपने दूर तक फैले हुए साम्राज्य के अनुरूप
गति को मंद कर,
पहुँची जहाँ सागर खड़ा था
फेन की माला लिए
मेरी प्रतीक्षा में।
(क) कवि के अनुसार हम नदी से किस तरह के प्रश्न करते आ रहे हैं?
उत्तर-
कवि के अनुसार हम नदी से प्रश्न करते आ रहे हैं कि उसे बहना किसने सिखाया और सागर से जाकर मिलने का रास्ता किसने दिखाया।
(ख) सागर से मिलने के लिए नदी ने क्या कठिनाइयाँ उठाईं?
उत्तर-
सागर से मिलने के लिए नदी वनों और गुफाओं से होकर बहती हुई आगे बढ़ी। उसने बाधाओं और मुश्किलों को ढकेला और उत्साह के साथ आगे बढ़ी।
(ग) इस संघर्ष में नदी को क्या प्राप्त हुआ?
उत्तर-
इस संघर्ष के कारण नदी आगे बढ़ती हुई संपन्न होती चली गई। अपने साम्राज्य के अनुरूप अपनी गति को तीव्र और मंद करते हुए आगे बढ़ती रही और संघर्ष करते हुए वह सागर से जा मिली।
अपठित काव्यांश 7.
कब सोचा था डिग जाऊँगा
‘मैं बस, पहिली ही मंज़िल में?
उस पार! अरे उस पार कहाँ?
है अंतहीन इस पार प्रिये!
पैरों में ममता का बंधन,
सिर पर वियोग का भार प्रिये!
अब असह अबल अभिलाषा का
है सबल नियति से संघर्षण;
आगे बढ़ने का अमिट नियम;
पग पीछे पड़ते हैं प्रतिक्षण;
पर यदि संभव ही हो सकता,
केवल पल-भर पीछे हटना
तो बन जाता वरदान अमर,
यह सबल तुम्हारा आकर्षण!
मैं एक दया का पात्र अरे,
मैं नहीं रंच स्वाधीन प्रिये!
हो गया विवशता की गति
में बँधकर हूँ मैं गतिहीन प्रिये!
शशि एकाकी मिटता रहता,
रवि एकाकी जलता रहता,
तरु एकाकी आहें भरता,
हिम एकाकी गलता रहता;
कोयल एकाकी रो देती,
कलि एकाकी मुरझा जाती,
एकाकीपन में बनने का,
मिटने का क्रम चलता रहता!
(क) कवि अपनी प्रिये से क्या बात कह रहा है?
उत्तर-
कवि अपनी विवशता, अपनी कमज़ोरी की बात करते हुए कह रहा है कि उसे इस बात का कभी अहसास नहीं था कि वह सफर के आरंभ में ही अपनी हार को स्वीकार कर लेगा।
(ख) कवि ने अपने गतिहीन होने का क्या कारण बताया है?
उत्तर-
कवि के पैरों में ममता का बंधन है और सिर पर वियोग का भार है। नियति के प्रहार का मारा कवि आगे बढ़ने का प्रयत्न करता है, लेकिन फिर वापस लौटना पड़ता है। विवशता के बंधन ने उसे गतिहीन बना दिया है।
(ग) किस-किस को एकाकीपन के बंधन में बंधकर कवि ने विवश बताया है?
उत्तर-
एकाकीपन में चाँद मिटता रहता है तो सूर्य जलता रहता है। तरु आहें भरता है तो हिम पिघलता रहता है। कोयल रोती है तो कलि मुरझा जाती है।
अपठित काव्यांश 8.
तेरी पाँखों में नूतन बल,
कंठों में उबला गीत तरल,
तू कैसे हाय, हुआ बंदी, वन-वन के कोमल कलाकार।
क्या भूल गया वह हरियाली!
अरुणोदय की कोमल लाली?
मनमाना फुर-फुर उड़ जाना, नीले अंबर के आर-पार!
क्या भूल गया बंदी हो के
सुकुमार समीरण के झोंके
जिनसे होकर तू पुलकाकुल बरसा देता था स्वर हज़ार?
रे, स्वर्ण-सदन में बंदी बन
यह दूध-भात का मृदु भोजन
तुझको कैसे भा जाता है, तज कर कुंजों का फलाहार!
तू मुक्त अभी हो सकता है,
अरुणोदय में खो सकता है,
झटका देकर के तोड़ उसे, पिंजरे को कर यदि तार-तार!
पंछी! पिंजरे के तोड़ द्वार।
(क) कवि को किस बात का दुख है?
उत्तर-
कवि पक्षी के पिंजरे में कैद हो जाने पर दुखी है क्योंकि उसने पक्षी को सदैव खुले आसमान में उड़ते और मधुर गीत गाते सुना है और अब वह पिंजरे में कैद मौन हो गया है।
(ख) कवि पंछी को क्या-क्या याद दिला रहा है?
उत्तर-
प्रकृति में फैली हरियाली, सुबह-सुबह चंद्रमा के उदित होने पर चारों ओर फैली लालिमा, नीले अंबर के आर-पार उड़ने का आनंद तथा हवा के मधुर झोंकों की याद कवि पंछी को दिला रहा है।
(ग) कवि पंछी को किस बात की उम्मीद दिलाकर आगे बढ़ने को कह रहा है?
उत्तर-
कवि वनों के सुख की याद दिलाकर पक्षी को यह उम्मीद दिला रहा है कि यदि वह चाहे तो मुक्त होकर सुबह की लालिमा में खो सकता है। लेकिन इसे प्राप्त करने के लिए उसे साहस के साथ पिंजरे का द्वार तोड़ना होगा।
अपठित काव्यांश 9.
विजय मिली, पर अंग्रेजों की फिर सेना घिर आयी थी,
‘अबके जनरल स्मिथ सम्मुख था, उसने मुँह की खायी थी,
काना और मन्दरा सखियाँ रानी के संग आयी थीं,
युद्धक्षेत्र में उन दोनों ने भारी मार मचायी थी,
पर, पीछे यूरोज आ गया,
हाय! घिरी अब रानी थी।
बुन्देले हरबोलों के मुँह,
हमने सनी कहानी थी।
खूब लड़ी मर्दानी वह तो
झाँसी वाली रानी थी।।
तो भी रानी मार काटकर चलती बनी सैन्य के पार,
किन्तु सामने नाला आया, था यह संकट विषम अपार,
घोड़ा अड़ा नया घोड़ा था, इतने में आ गए सवार,
रानी एक शत्रु बहुतेरे होने लगे वार पर वार,
घायल होकर गिरी सिंहनी
उसे वीर-गति पानी थी।
बुन्देले हरबोलों के मुँह,
हमने सुनी कहानी थी।
खूब लड़ी मर्दानी वह तो
झाँसी वाली रानी थी।
(क) इस पद्यांश में किसे मर्दानी कहा गया है और क्यों?
उत्तर-
इस पद्यांश में झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई को मर्दानी कहा गया है, क्योंकि उन्होंने वीरता और साहस के साथ अंग्रेजों से लड़ते हुए वीरगति को प्राप्त किया था।
(ख) रानी और उसकी सखियों ने अंग्रेजों के साथ किस प्रकार युद्ध किया था?
उत्तर-
रानी तथा उनकी सखियों काना और मन्दरा ने युद्धक्षेत्र में अंग्रेज़ों का सामना करते हुए भारी मार मचायी थी। जनरल स्मिथ को इन सभी से मुँह की खानी पड़ी थी। लेकिन पीछे से यूरोज ने आकर रानी को घेर लिया था।
(ग) रानी के शहीद होने का क्या कारण था?
उत्तर-
रानी जिस घोड़े पर सवार थी वह घोड़ा नया था। नाला आने पर वह अड़ गया। इतने में पीछे से अंग्रेजों के सवार आ गए। रानी अकेली थी और शत्रु बहुत सारे थे। सभी के वारों ने रानी को घायल कर दिया।
अपठित काव्यांश 10.
गरमी की दोपहरी में
तपे हुए नभ के नीचे।
काली सड़कें तारकोल की
अंगारे-सी जली पड़ी थीं।
छाँह जली थी पेड़ों की भी
पत्ते झुलस गए थे।
नंगे-नंगे दीर्घकाय, कंकालों-से वृक्ष खड़े थे
हों अकाल के ज्यों अवतार।
एक अकेला ताँगा था दूरी पर
कोचवान की काली-सी चाबुक के बल पर
वो बढ़ता था।
घूम-घूम जो बलखाती थी सर्प सरीखी।
बेदर्दी से पड़ती थी दुबले घोड़े की गर्म
पीठ पर।
भाग रहा वह तारकोल की जली
अँगीठी के ऊपर से।
कभी एक ग्रामीण धरे कन्धे पर लाठी
सुख-दुख की मोटी-सी गठरी
लिये पीठ पर
भारी जूते फटे हुए
जिन में से थी झाँक रही गाँवों की आत्मा
ज़िन्दा रहने के कठिन जतन में
पाँव बढ़ाये आगे जाता।
(क) गरमी की दोपहर के लिए कवि ने क्या लिखा है?
उत्तर-
गरमी की दोपहर में तपे हुए नभ के नीचे तारकोल से बनी काली सड़कें अंगारों-सी जल रही हैं। पेड़ों की छाँह भी झुलस रही है और वृक्ष नंगे-नंगे विशाल काय, कंकालों के जैसे खड़े हैं।
(ख) ताँगा किस प्रकार आगे बढ़ रहा था?
उत्तर-
ताँगा कोचवान की काली-सी चाबुक के बल पर आगे बढ़ रहा था। वह चाबुक जो उसके शरीर पर साँप की तरह बल खाती-सी पड़ रही है। वह तारकोल की जलती अंगीठी पर भाग रहा है।
(ग) ग्रामीण का चित्रण कवि ने कैसे किया है?
उत्तर-
उसके कंधे पर लाठी और मोटी गठरी लदे हुए हैं तथा उसके जूते भी फटे हुए हैं। जिंदा रहने के कठिन जतन में वह पाँव बढ़ाकर आगे चला जा रहा है।
अपठित काव्यांश 11.
यहाँ कोकिला नहीं, काक हैं शोर मचाते।
काले-काले कीट, भ्रमर का भ्रम उपजाते॥
कलियाँ भी अधखिली, मिली हैं कंटक-कुल से।
वे पौधे, वे पुष्प, शुष्क हैं अथवा झुलसे॥
परिमल-हीन पराग दाग-सा बना पड़ा है।
हा! यह प्यारा बाग़ खून से सना पड़ा है।
आओ प्रिय ऋतुराज! किंतु धीरे से आना।
यह है शोक-स्थान यहाँ मत शोर मचाना॥
वायु चले पर मंद चाल से उसे चलाना।
दुख की आहे संग उड़ाकर मत ले जाना॥
कोकिल गावे, किंतु राग रोने का गावे।
भ्रमर करे गुंजार, कष्ट की कथा सुनावे॥
लाना संग में पुष्प, न हों वे अधिक सजीले।
हो सुगंध भी मंद, ओस से कुछ-कुछ गीले॥
किंतु न तुम उपहार-भाव आकर दरसाना।
स्मृति में पूजा-हेतु यहाँ थोड़े बिखराना॥
(क) कवि ने बाग़ का दृश्य किन शब्दों में चित्रित किया है?
उत्तर-
कवि कहते हैं कि इस बाग़ में कोयल के मीठे स्वर नहीं, बल्कि कौवे का कर्कश शोर सुनाई देता है। बाग़ में इधर-उधर घूमने वाले काले कीट, भँवरों का भ्रम उपस्थित करते हैं। आधी खिली हुई कलियाँ, काँटों की झाड़ियों से मिल गई हैं । बाग़ में उगे हुए पौधे ऐसे प्रतीत होते हैं, मानो सूख गए हैं या झुलस गए हैं।
(ख) कवि ऋतुराज से क्या प्रार्थना कर रहा है?
उत्तर-
कवि बसंत से कह रहा है कि इस बाग़ में तुम जब भी आना बहुत-ही धीमे से आना। यह शोक-स्थान है, यहाँ शोर मत मचाना। यह पूरा बाग़ खून से सना हुआ है।
(ग) कवि पुष्यों के लिए बसंत को क्या हिदायत दे रहे हैं और क्यों?
उत्तर-
कवि बसंत से कहते हैं कि जो पुष्प तुम अपने साथ लेकर आओ, वह अधिक सजीले व गहरे रंग के ना हों। उनकी खुशबू भी मंद हो तथा वे ओस से भीगे हुए हों। इन पुष्पों को लाते समय उपहार का भाव प्रदर्शित न करते हुए पूजा का भाव दर्शाना, क्योंकि यहाँ अनेक लोगों की हत्या की गई थी। यह सारा बाग़ उन्हीं के खून से सना हुआ है।
अपठित काव्यांश 12.
देखो प्रिय, विशाल विश्व को आँख उठाकर देखो,
अनुभव करो हृदय से यह अनुपम सुषमाकर देखो।
यह सामने अथाह प्रेम का सागर लहराता है,
कूद पड़ें तैरूँ इसमें, ऐसा जी में आता है।
प्रतिक्षण नूतन वेश बनाकर रंग-बिरंग निराला,
रवि के सम्मुख थिरक रही है नभ में वारिद-माला।
नीचे नील समुद्र मनोहर ऊपर नील गगन है,
घन पर बैठ बीच में बिचरूँ यही चाहता मन है॥
रत्नाकर गर्जन करता है मलयानिल बहता है,
हरदम यह हौसला हृदय में प्रिये ! भरा रहता है।
इस विशाल, विस्तृत, महिमामय रत्नाकर के घर के,
कोने-कोने में लहरों पर बैठ फिरूँ जी भर के।
निकल रहा है जलनिधि-तल पर दिनकर-बिंब अधूरा,
कमला के कंचन-मंदिर का मानो कांत कँगूरा।
लाने को निज पुण्यभूमि पर लक्ष्मी की असवारी,
रत्नाकर ने निर्मित कर दी स्वर्ण-सड़क अति प्यारी॥
(क) कवि आँख उठाकर किसे देखने को कह रहा है और क्यों?
उत्तर-
कवि विशाल विश्व को आँख उठाकर देखने के लिए कह रहा है। कवि स्वयं प्रकृति की सुंदरता को देख प्रसन्नता से झूमने लगता है। सुंदरता के सागर में तैरने लगता है, अत: वह चाहता है कि सभी इस आनंद का अनुभव करें।
(ख) कवि का मन क्या चाहता है?
उत्तर-
कवि आसमान में बादलों के बने भिन्न-भिन्न रूपों से अत्यधिक प्रभावित है। नीचे नीले रंग का बहता हुआ विशाल समुद्र और फैला अनंत नीला आसमान देख कवि का मन चाहता है, वह बादलों में बैठकर इस पूरे विश्व का चक्कर लगाएँ।
(ग) उगते हुए सूर्य को देख कवि क्या कल्पना कर रहा है?
उत्तर-
उगते हुए सूर्य को देख कवि कहता है कि समुद्र के ऊपर उगता हुआ सूर्य का अधूरा बिंब लक्ष्मी के मंदिर के चमकते गुंबद के समान लग रहा है। उगते हुए सूर्य की परछाई जो सागर में पड़ रही है, उसे देख ऐसा लग रहा है, मानो लक्ष्मी की सवारी को पुण्य धरती पर लाने के लिए सागर ने सोने की सड़क का निर्माण कर दिया है।
अपठित काव्यांश 13.
आज की यह सुबह है बहुत प्रीतिकर,
कह रही उठ नया काम कर, नाम कर।
जो अधूरी रही वह सुबह कल गई,
मान ले अब यही कुछ कमी रह गई,
ले नई ताज़गी यह सुबह आ गई,
कह रही-मीत उठ, बात कर कुछ नई,
ओ सृजन-दूत तू, शक्ति-संभूत तू,
क्यों खड़ा राह में अश्व यों थाम कर।
दूसरों की बनाई डगर छोड़ दे,
तू नई राह पर कारवाँ मोड़ दे,
फोड़ दे तू शिलाएँ चुनौती भरी
क्रूर अवरोध को निष्करुण तोड़ दे,
व्यर्थ जाने न पाए महापर्व यह
जो स्वयं आ गया आज तेरी डगर।
अब नए मार्ग पर रथ नए हाँकने,
हर अँधेरे से दीपक लगे झाँकने,
बंद, अज्ञात थी आज तक जो दिशा
उस दिशा को नए नाम हैं बाँटने,
मोड़ लो सूर्य का रथ, विपथ पथ बने
बढ़ चलो विघ्न व्यवधान सब लाँघ कर।
(क) आज की सुबह क्या पैगाम दे रही है?
उत्तर-
आज की सुबह बहुत ही सुखकर है। वह पैगाम दे रही है कि कुछ नया काम करो और कुछ ऐसा करो जिससे तुम्हारा नाम हो।
(ख) ताज़गी भरी सुबह मानव से क्या कह रही है?
उत्तर-
ताज़गी भरी सुबह मानव से कह रही है कि कल की अधूरी सुबह का ख्याल छोड़ दो। आज की यह सुबह तुम्हें नया पैगाम दे रही है। अपनी सृजनात्मकता को जगाकर आगे बढ़ो।
(ग) कवि किस चुनौती को स्वीकारने की बात कर रहा है?
उत्तर-
कवि दूसरों की बनाई मंज़िल को त्यागकर स्वयं अपने द्वारा बनाई डगर पर चलने को कह रहा है। कवि हाथ में आए अवसर को व्यर्थ न गँवाने की सलाह दे रहा है। हाथ आए अवसर का पूरा लाभ उठाने के लिए कवि मानव को उकसा रहा है।
अपठित काव्यांश 14.
तुम्हारी यह दंतुरित मुसकान
मृतक में भी डाल देगी जान
धूलि-धूसर तुम्हारे ये गात…
छोड़कर तालाब मेरी झोंपड़ी में खिल रहे जलजात
परस पाकर तुम्हारा ही प्राण,
पिघलकर जल बन गया होगा कठिन पाषाण
छू गया तुमसे कि झरने लग पड़े शेफालिका के फूल
बाँस था कि बबूल?
तुम मुझे पाए नहीं पहचान?
देखते ही रहोगे अनिमेष! थक गए हो?
आँख लूँ मैं फेर?
क्या हुआ यदि हो सके परिचित न पहली बार?
यदि तुम्हारी माँ न माध्यम बनी होती आज
मैं न पाता जान
धन्य तुम, माँ भी तुम्हारी धन्य।
चिर प्रवासी मैं इतर, मैं अन्य।
इस अतिथि से प्रिय तुम्हारा क्या रहा संपर्क।
(क) दंतुरित मुसकान’ से कवि का क्या आशय है?
उत्तर-
‘दंतुरित मुसकान’ से कवि का आशय उस शिशु की सहज और निश्छल मुस्कान से है, जिसके अभी नए-नए दाँत आए हैं।
(ख) ‘छोड़कर तालाब मेरी झोंपड़ी में खिल रहे जलजात’-पंक्ति में झोंपड़ी’ और ‘जलजात’ शब्दों का प्रयोग कवि ने किस-किसके लिए किया है?
उत्तर-
‘झोंपड़ी’ से कवि का तात्पर्य अपने छोटे-से घर से है और ‘जलजात’ शब्द का प्रयोग कवि ने कमल समान शिशु के लिए किया है।
(ग) कवि आँख फेर लेने की बात क्यों करता है?
उत्तर-
कवि सोचता है कि संभवतः शिशु उसे अपलक देखते-देखते थक गया है। अतः पहली बार में ही परिचय हो, ऐसा आवश्यक न जानकर वह आँख फेर लेने की बात करता है।
अपठित काव्यांश 15.
जग में सचर-अचर जितने हैं, सारे कर्म निरत हैं।
धुन है एक-न-एक सभी को, सबके निश्चित व्रत हैं।
जीवन-भर आतप सह वसुधा पर छाया करता है।
तुच्छ पत्र की भी स्वकर्म में कैसी तत्परता है।
रवि जग में शोभा सरसाता, सोम सुधा बरसाता।
सब हैं लगे कर्म में, कोई निष्क्रिय दृष्टि न आता।
है उद्देश्य नितांत तुच्छ तृण के भी लघु जीवन का।
उसी पूर्ति में वह करता है अंत कर्ममय तन का।
तुम मनुष्य हो, अमित बुद्धि-बल-विलसित जन्म तुम्हारा।
क्या उद्देश्य-रहित हो जग में, तुमने कभी विचारा?
बुरा न मानो, एक बार सोचो तुम अपने मन में।
क्या कर्तव्य समाप्त कर लिया तुमने निज जीवन में?
जिस पर गिरकर उदर-दरी से तुमने जन्म लिया है।
जिसका खाकर अन्न, सुधा-सम नीर, समीर पिया है।
वह स्नेह की मूर्ति दयामयि माता तुल्य मही है।
उसके प्रति कर्तव्य तुम्हारा क्या कुछ शेष नहीं है? .
(क) ‘प्रकृति में जड़ वस्तुएँ भी कर्मरत हैं’ कवि किन उदाहरणों से स्पष्ट कर रहा है?
उत्तर-
कवि कहता है कि प्रकृति में सभी को एक-न-एक धुन है तथा वे अपने कर्म में लगे हैं। पेड़ का छोटा-सा पत्ता अपने छोटे-से जीवन में सूर्य के तेज़ ताप को सहता है तथा धरती को उसके ताप से बचाता है। चाँद भी जग को सुंदरता प्रदान कर रहा है तथा अमृत-रस बरसा रहा है। एक छोटा-सा तिनका भी कर्म करते हुए अपने छोटे-से जीवन को जी रहा है।
(ख) कवि मनुष्य से क्या विचार करने को कह रहा है?
उत्तर-
कवि मनुष्य से कह रहा है कि ईश्वर ने तुम्हें बुद्धिपूर्ण जीवन दिया है। क्या इस जीवन को उद्देश्य रहित ही जी लोगे? कवि मनुष्य को अपने मन में विचारने के लिए कह रहा है कि क्या उसने अपने कर्तव्य को समाप्त कर लिया है।
(ग) कवि धरती माता के प्रति किस भावना को मन में उजागर कर रहे हैं?
उत्तर-
कवि मनुष्य से पूछ रहे हैं कि जिस धरती पर तुमने जन्म लिया है, जिसका अन्न-जल खाया है, जिसका अमृत के समान जल पिया है, उस माता तुल्य धरती के प्रति क्या तुम्हारा कोई कर्तव्य शेष तो नहीं रह गया है।