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Ras in Hindi | रस की परिभाषा एवं उनके भेद और उदाहरण (हिन्दी व्याकरण)

Contents

  • 1 रस की परिभाषा भेद और उदाहरण | Ras in Hindi Examples
    • 1.1 रस की परिभाषा
    • 1.2 रस के अवयव कितने होते हैं
    • 1.3 रस निष्पत्ति का सूत्र
    • 1.4 रस के भेद

Ras in Hindi रस की परिभाषा एवं उनके भेद और उदाहरण (हिन्दी व्याकरण)

हमें एक ऐसी व्यावहारिक व्याकरण की पुस्तक की आवश्यकता महसूस हुई जो विद्यार्थियों को हिंदी भाषा का शुद्ध लिखना, पढ़ना, बोलना एवं व्यवहार करना सिखा सके। ‘हिंदी व्याकरण‘ हमने व्याकरण के सिद्धांतों, नियमों व उपनियमों को व्याख्या के माध्यम से अधिकाधिक स्पष्ट, सरल तथा सुबोधक बनाने का प्रयास किया है।

रस की परिभाषा भेद और उदाहरण | Ras in Hindi Examples

रस की परिभाषा

साहित्य में रस का बहुत महत्व है। साहित्य की प्रत्येक विधा की आत्मा को रस माना गया है। किसी नाटक, एकांकी, धारावाहिक या फ़िल्म को देखते समय व्यक्ति उसके पात्रों और कथा में खो जाता है। वह खलनायक के कार्यों का विरोधी और नायक के साथ अंतरंग हो जाता है। उसे नायक-नायिका के सुख-दु:ख अपने लगने लगते हैं। व्यक्ति अपने अस्तित्व को भूलकर उनके संग जीने लगता है। यह आनंद की स्थिति ही रस है। कविता पढ़कर उसके आनंद की अनुभूति ही रस है।

रस का उल्लेख सबसे पहले भरत मुनि ने अपने नाट्यशास्त्र ग्रंथ में किया था। उनके अनुसार रस की परिभाषा इस प्रकार है ‘विभावानुभावव्यभिचारिसंयोगाद्रसनिष्पत्तिः’ अर्थात् विभाव, अनुभाव और व्याभिचारी भाव के संयोग से रस की निष्पत्ति होती है।

काव्यप्रकाश के रचयिता मम्मटभट्ट ने कहा है कि, आलंबनविभाव, उबुद्ध, उद्दीपन से उद्दीप्त, व्याभिचारी भावों से परिपुष्ट और अनुभाव द्वारा व्यक्त हृदय का स्थायी भाव’ ही रस-दशा को प्राप्त होता है। इसे इस उदाहरण द्वारा समझा जा सकता है राम वाटिका में सैर कर रहे हैं। एक ओर से सीता आती हैं। एकांत स्थान है, प्रात:काल की वायु प्रवाहित हो रही है। फूलों का सौंदर्य मन मोह रहा है। इस स्थिति में राम सीता को देखकर उन पर मुग्ध हो जाते हैं। राम के मन में सीता को देखने की इच्छा, हर्ष और रोमांच होता है।

इसे जानकर पाठकों के मन में रति भाव जागृत होता है। यहाँ सीता आलंबनविभाव, एकांत और प्रात:कालीन वाटिका का दृश्य उद्दीपन विभाव, सीता और राम में हर्ष, लज्जा, रोमांच आदि व्याभिचारी भाव हैं। ये मिलकर स्थायी भाव, रति को उत्पन्न करके श्रृंगार रस का संचार करते हैं।

रस के अवयव कितने होते हैं

1. स्थायी भाव-प्रत्येक मनुष्य के हृदय में विभिन्न भाव रहते हैं। कुछ भाव सदा बने रहते हैं और कुछ भाव साहित्य या अन्य माध्यमों के कारण जागृत हो जाते हैं। यही भाव रस में परिवर्तित हो जाते हैं। मन का जो भाव आस्वाद, उत्कटता, सर्वजन-सुलभता, चार पुरुषार्थों (धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष) की उपयोगिता और औचित्य के रूप में हृदय में सदा बना रहता है, वह स्थायी भाव है।

2. विभाव-भाव को प्रवर्तित करने वाला विभाव होता है। विभाव वे स्थितियाँ या विषय होते हैं जिनके प्रति संवेदनाएँ होती हैं। स्थायी भाव को जागृत करके उन्हें उद्दीप्त करते हैं। जो व्यक्ति, वस्तुएँ, पदार्थ, बाहरी स्थितियाँ किसी अन्य व्यक्ति के हृदय में भावों को जागृत करते हैं, उन्हें विभाव कहते हैं।

विभाव दो प्रकार के होते हैं-
(क) आलंबन
(ख) उद्दीपन।

(क) आलंबन विभाव-वे विषय अथवा पदार्थ जिनके कारण या जिन पर आलंबित होकर भाव उत्पन्न होते हैं, उन्हें आलंबन विभाव कहते हैं।
जिस व्यक्ति के मन में भावों की उत्पत्ति होती है, उसे आश्रय कहते हैं।
जिस व्यक्ति के प्रति भाव जागृत होते हैं उसे विषय कहते हैं।

(ख) उद्दीपन विभाव-आश्रय के मन के स्थायी भाव को जागृत करने, बढ़ाने, उत्तेजित करने की चेष्टाओं को उद्दीपन विभाव कहते हैं। इनमें परिवेश की भूमिका भी होती है।

3. अनुभाव-जिस व्यक्ति के मन में भावों की उत्पत्ति होती है (आश्रय) उसकी शारीरिक चेष्टाओं या विकारों को अनुभाव कहते हैं।

अनुभाव चार प्रकार के होते हैं-
(क) सात्विक
(ख) कायिक
(ग) मानसिक
(घ) आहार्य।

(क) सात्विक-किसी भी भाव के जागृत होने पर जो शारीरिक क्रियाएँ स्वतः होने लगती हैं, उन्हें सात्विक अनुभाव कहते हैं।
इन पर आश्रय का नियंत्रण नहीं होता। सात्विक अनुभाव आठ माने जाते हैं।

  • स्वेद-पसीना आना
  • स्तंभ-शरीर की गति रुकना
  • कंप-शरीर का काँपना
  • रोमांच-रोएँ खड़े होना
  • स्वर-भंग-आवाज़ लड़खड़ाना
  • विवर्णता-चेहरे का रंग उड़ना
  • प्रलाप-अनियंत्रित होकर बोलना
  • अश्रु-आँसू निकलना

(ख) कायिक-‘आश्रय’ द्वारा शरीर से की जाने वाली क्रियाएँ कायिक कहलाती हैं। ये क्रियाएँ ‘आश्रय’ अपनी इच्छाओं से करता है।
(ग) मानसिक-मन की स्थिति से उत्पन्न होने वाले भाव मानसिक अनुभाव कहलाते हैं; जैसे-मुस्कराना, उदास होना, प्रसन्न होना आदि।
(घ) आहार्य-किसी दूसरे का रूप धारण करना आहार्य अनुभाव कहलाता है। जैसे-रावण का रूप धारण करना, पुरुष द्वारा स्त्री पात्र का रूप धारण करना, गोपिकाओं का कृष्ण बनना आदि।

4. संचारी भाव (व्याभिचारी भाव)-संचारी भाव ‘स्थायी भावों’ के सहायक होते हैं। ये परिस्थितियों को परिवर्तित करते रहते हैं। संचारी भाव क्षणिक होते हैं जो जागृत होकर शीघ्र ही लुप्त हो जाते हैं। संचारी भाव 33 माने जाते हैं।

निर्वेद  विषाद  निद्रा  उग्रता  असूया  औत्सुक्य  त्रास
आलस्य  दैन्य  आवेग  व्याधि  स्वप्न  मोह  घृति
विबोध  शंका  मति  वितर्क  श्रम  अमर्ष  उन्माद
चिंता  चापल्य  मरण  अवहित्था  लज्जा (व्रीड़ा)  ग्लानि  मिरगी
जड़ता  स्मृति  मद  गर्व  स्मृति

रस निष्पत्ति का सूत्र

विभाव, अनुभाव और संचारी भाव के संयोग से रस की निष्पत्ति होती है। भरत मुनि ने लिखा है- विभावानुभाव-व्यभिचारी-संयोगाद् रसनिष्पत्तिः।

रस-निष्पत्ति प्रक्रिया है जिसकी अनुभूति होती है। इसकी व्याख्या नहीं की जा सकती। जैसे किसी नृत्यांगना के नृत्य को देखकर उसमें तल्लीन होकर आनंदित होना। उस आनंद की अनुभूति की जा सकती है, उसका वर्णन करना कठिन होता है। रस-निष्पत्ति आनंद की ऐसी ही प्रक्रिया है।

रस के भेद

1. शृंगार रस-नायक-नायिका के मध्य रति नामक स्थायी भाव, विभाव, अनुभाव और संचारी भाव के संयोग से उत्पन्न रस को शृंगार रस कहते हैं। इसमें संयोग का अर्थ सुख और आनंद पाना है। शृंगार रस के दो भेद होते हैं-
(क) संयोग शृंगार
(ख) वियोग शृंगार।

(क) संयोग शृंगार-नायक-नायिका में मिलन होने पर संयोग रस होता है। इसमें नायक-नायिका का मिलना, वार्तालाप, स्पर्श आदि होता है। नायक-नायिका के मध्य की आनंद की सुखद स्थिति संयोग शृंगार कहलाती है।

नायक-नायिका में हँसी-मज़ाक और प्रेम की अभिव्यक्ति को राधा-कृष्ण के माध्यम से अभिव्यक्त किया गया है-

बतरस लालच लाल की, मुरली धरि लुकाय।
सौंह करे भौंहनि हँसे, देन कहै नटि जाया। -बिहारी

  • आश्रय-राधा
  • आलंबन-कृष्ण
  • अनुभाव-रोमांच
  • उद्दीपन-मुरली छिपाना
  • संचारी भाव-हर्ष, चापल्य
  • स्थायी भाव-रति।

दूलह श्रीरघुनाथ बने दुलही सिय सुंदर माही।
गावती गीत सबै मिलि सुंदरि बेद जुवा जुरि विप्र पढ़ाही॥
राम को रूप निहारित जानकि कंकन के नग की परछाही।
या” सबै भूलि गई कर टेकि रही, पल टारत नाहीं॥ -तुलसीदास

  • स्थायी भाव-रति
  • आलंबन-राम
  • आश्रय-सीता
  • उद्दीपन-नग में राम का प्रतिबिंब
  • अनुभाव-नग में प्रतिबिंब देखना, हाथ टिकाना
  • संचारी भाव-हर्ष, जड़ता।

(ख) वियोग श्रृंगार-नायक-नायिका के न मिल पाने की स्थिति को वियोग शृंगार कहते हैं। इस स्थिति में नायक और नायिका न मिल पाने के कारण जिस पीड़ा का अनुभव करते हैं, उसकी अभिव्यक्ति वियोग शृंगार है। इसे विप्रलंभ श्रृंगार भी कहते हैं। केशव के अनुसार वियोग शृंगार

बिछुरत प्रीतम की प्रीतिमा, होत जु रस तिहिं ठौर।
विप्रलंभ तासों कहे, केसव कवि सिरमौर।

1. सीता के विरह में राम की स्थिति-
हे खग मृग हे मधुकर श्रेणी,
तुम देखि सीता मृग नैनी।

2. प्रिय के बिना रात काली नागिन-सी लगती है
पियु बिनु नागिनी कारी रात,
जो कहु जामिनी उवति जुन्हैया, डसि उलटी ह्वै जात।

  • स्थायी भाव-रति
  • आश्रय-गोपियाँ
  • आलंबन-कृष्ण
  • उद्दीपन-गोपियों की विरहावस्था
  • अनुभाव-प्रलाप
  • संचारी भाव-स्मृति, चिंता।

2. हास्य रस-हास्य नामक स्थायी भाव अपने अनुकूल विभाव, अनुभाव और संचारी भाव के संयोग से जिस रस की अभिव्यक्ति करता है, उसे हास्य रस कहते हैं।

हास्य रस मन को प्रसन्न करता है। इसमें व्यंग्य का समावेश भी होता है।
रायजू ने रजाई दीन्हीं राजी ह्वै के,
सहर ठौर-ठौर सोहरत भई है।
साँस लेत उडिगो उपल्ला और भितल्ला सबै,
दिन वै के बाती हेत कई रहि गई है। -बेनी

किसी धनी व्यक्ति ने रजाई भेंट की, जिसकी चर्चा शहर भर में हो गई। रजाई इतनी पतली थी कि साँस लेते ही उसके ऊपर का और भीतर का सब कुछ उड़ गया।

  • स्थायी भाव-हास्य
  • आलंबन-रजाई
  • उद्दीपन-साँस लेने पर ऊपर और भीतर का उड़ जाना।

3. करुण रस-शोक’ नामक स्थायी भाव जब विभाव, अनुभाव और संचारी भाव से मिलकर अभिव्यक्त होता है, उसे करुण रस कहते हैं।
करुण रस में दु:ख और पीड़ा का भाव होता है।

1. दुःख ही जीवन की कथा रही,
क्या कहूँ, आज जो कही नहीं।

2. चुप रह चुप रह, हाय अभागे
रोता है अब किसके आगे।

3. अभी तो मुकुट बँधा था माथ,
हुए कल ही हल्दी के हाथ।
खुले भी न थे लाज के बोल,
खिले भी न थे चुंबन शून्य कपोल।
हाय! रुक गया यहीं संसार,
बना सिंदूर अंगार। -सियारामशरण गुप्त

  • स्थायी भाव-सिंदूर
  • आश्रय-पत्नी
  • आलंबन-पति का वियोग
  • उद्दीपन-मुकुट बाँधना, हल्दी के हाथ, सिंदूर
  • अनुभाव-प्रलाप, अश्रु
  • संचारी भाव-चिंता, दैन्य, विषाद।

4. वीर रस-उत्साह नामक स्थायी भाव जब विभाव, अनुभाव और संचारी भाव के संयोग से अभिव्यक्त होता है, उसे वीर रस कहते हैं।

1. मैं सत्य कहता हूँ सखे सुकुमार मत जानो मुझे,
यमराज से भी युद्ध में प्रस्तुत सदा मानो मुझे।
है और की तो बात ही क्या गर्व मैं करता नहीं,
मामा तथा निज तात से भी समर में डरता नहीं। -मैथिलीशरण गुप्त

  • स्थायी भाव-कौरवों की पराजय का उत्साह
  • आश्रय-अभिमन्यु
  • आलंबन-कौरव
  • उद्दीपन-चक्रव्यूह
  • अनुभाव-यमराज से युद्ध, मामा तथा निज तात
  • संचारी भाव-हर्ष, गर्व।

2. रे नृप बालक कालबस बोलत तोहि न संभार।
धनुही सम त्रिपुरारिधनु बिदित सकल संसार॥ -लक्ष्मण-परशुराम संवाद, तुलसीदास

5. रौद्र रस-स्थायी भाव क्रोध जब विभाव, अनुभाव और संचारी भाव के संयोग से पुष्ट होकर अभिव्यक्त होता है, उसे रौद्र रस कहते हैं।

1. श्री कृष्ण के सुन वचन अर्जुन क्षोभ से जलने लगे,
सब शोक अपना भूलकर तल युगल मलने लगे।
संसार देखे अब हमारे शत्रु रण में मृत पड़े,
करते हुए यह घोषणा वह हो गए उठ खड़े। -जयद्रथ वध, मैथिलीशरण गुप्त

  • स्थायी भाव-क्रोध
  • आश्रय-अर्जुन
  • आलंबन-कौरव
  • उद्दीपन-कृष्ण के वचन
  • अनुभाव-क्रोध में घोषणा, देह कंपन
  • संचारी भाव-उग्रता, आक्रोश।

2. उस काल मारे क्रोध के तन काँपने उसका लगा,
मानो हवा के ज़ोर से सोता हुआ सागर जगा। -मैथिलीशरण गुप्त

6. भयानक रस-भय उत्पन्न करने वाली वस्तुओं को देखने या सुनने, शत्रु के विद्रोही आचरण आदि से भयानक रस उद्भूत होता है। इस भय के उत्पन्न होने से जिस रस की उत्पत्ति होती है, उसे भयानक रस कहते हैं।

1. एक ओर अजगरहि लखि, एक ओर मृगराय।
बिकल बटोही बीच ही, पर्यो मूरछा खाय॥

  • स्थायी भाव-भय
  • आश्रय-बटोही
  • आलंबन-अजगर और शेर
  • उद्दीपन-शेर और अजगर का रूप और चेष्टाएँ
  • अनुभाव-मूर्छा
  • संचारी भाव-स्वेद, कंपन, रोमांच।

2. कर्तव्य अपना इस समय होता न मुझको ज्ञात है,
कुरुराज चिंताग्रस्त मेरा जल रहा सब गात है। -जयद्रथ वध, मैथिलीशरण गुप्त

  • स्थायी भाव-भय
  • आश्रय-जयद्रथ
  • आलंबन-अभिमन्यु का अपराध
  • उद्दीपन-अर्जुन की प्रतिज्ञा
  • अनुभाव-जयद्रथ की चिंता।

7. अद्भुत रस-विचित्र और आश्चर्यजनक वस्तुओं या स्थितियों को देखकर मन में उत्पन्न होने वाले भाव को अद्भुत रस कहते हैं। जब किसी रचना में स्थायी भाव ‘विस्मय’ इस प्रकार प्रस्फुटित होता है कि व्यक्ति निश्चेष्ट हो जाता है, वहाँ अद्भुत रस की निष्पत्ति होती है।

देख यशोदा शिशु के मुख में, सकल विश्व की माया,
क्षण भर को वह बनी अचेतन, हिल न सकी कोमल काया।

  • स्थायी भाव-विस्मय
  • आश्रय-यशोदा
  • आलंबन-शिशु का मुख
  • उद्दीपन-मुख में सकल विश्व देखना
  • संचारी
  • भाव-अचेतन, जड़ता।

8. वीभत्स रस-घृणित वस्तुओं, व्यक्तियों, स्थितियों को देखकर मन में उत्पन्न होने वाली घृणा या ग्लानि से उत्पन्न रस वीभत्स रस कहलाता है। इसका स्थायी भाव जुगुप्सा होता है।

सिर पर बैठो काग, आँखि दोउ खात निकारत,
खींचत जीभहिं सियार, अतिहि आनंद उर धारत।
गिद्ध जाँघ कह खोदि-खोदि के मांस उचारत,
स्वान आँगुरिन काटि-काटि के खात विचरत।

  • स्थायी भाव-जुगुप्सा, घृणा
  • आश्रय-हरिश्चंद्र
  • आलंबन-शव, मांस, श्मशान का दृश्य
  • उद्दीपन-गीध, सियार, कुत्तों
  • आदि द्वारा मांस नोचना
  • अनुभाव-हरिश्चंद्र का सोचना
  • संचारी भाव-मोह, ग्लानि।

9. शांत रस-साहित्य में शांत रस नौ रसों में अंतिम रस माना जाता है। इस रस में संसार से वैराग्य, तत्व ज्ञान की प्राप्ति, ईश्वर के वास्तविक रूप का ज्ञान आदि हो जाने पर मन को जो शांति मिलती है, उसे शांत रस कहते हैं। शांत रस का स्थायी भाव निर्वेद (शम) होता है।

सुत बनितादि जानि स्वारथ रत न करु नेह सबही ते,
अंतहिं तोहि तजेंगे पामर! तू न तजै अबही ते।
अब नाथहिं अनुराग जागु जड़, त्याग दुरासा जीते,
बुझे न काम अगिनी ‘तुलसी’ कहुँ विषय भोग बहु घी ते॥ -तुलसीदास, विनयपत्रिका

  • स्थायी भाव-निर्वेद (शम)
  • आश्रय-संबोधित व्यक्ति
  • आलंबन-सुत, बनिता
  • अनुभाव-इनको छोड़ना
  • संचारी भाव-मति, विमर्श।

10. वात्सल्य रस-माता-पिता का संतान के प्रति स्नेह भाव वात्सल्य कहलाता है। वात्सल्य रस का स्थायी भाव वात्सल्य (वत्सल) ही है। शिशुओं, बालक-बालिकाओं के प्रति स्नेह से वात्सल्य रस की निष्पत्ति होती है।

जसोदा हरि पालने झुलावै।
हलरावै दुलराई मल्हावै, जोइ सोइ कछु गावै॥
मेरे लाल कौं आउ निंदरिया, काहै न आनि सुलावै।
तू काहैं नहिं बेगहिं आवै, तोकौं कान्ह बुलावै॥

  • स्थायी भाव-वात्सल्य (वत्सल)
  • आश्रय-यशोदा
  • आलंबन-कृष्ण
  • उद्दीपन-झुलाना, हिलाना, दुलारना, गाना
  • अनुभाव-लीला
  • संचारी भाव-हर्ष, मोह।

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