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NCERT Solutions for Class 11 Hindi Aroh Chapter 13 – गद्य भाग – अपू के साथ ढाई साल provide comprehensive guidance and support for students studying Hindi Aroh in Class 11. These NCERT Solutions empower students to develop their writing skills, enhance their language proficiency, and understand official Hindi communication.
Class 11th Hindi Gadya Khand Chapter 13 Apu Ke Sath Dhai Saal Questions and Answers
अपू के साथ ढाई साल प्रश्न उत्तर
कक्षा 11 हिंदी आरोह के प्रश्न उत्तर पाठ 13
लेखक परिचय
● जीवन परिचय-सत्यजित राय का जन्म कोलकाता में 1921 ई. में हुआ। इन्होंने भारतीय सिनेमा को कलात्मक ऊँचाई प्रदान की। इनके निर्देशन में पहली फीचर फिल्म पथेर पांचाली (बांग्ला) 1955 में प्रदर्शित हुई। इससे उन्हें अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रतिष्ठा प्राप्त हुई। इन्होंने फिल्मों के जरिए केवल फिल्म विधा को समृद्ध ही नहीं किया, बल्कि इस माध्यम के बारे में निर्देशकों और आलोचकों के बीच एक समझ विकसित करने में भी अपना योगदान दिया।
इनके कार्यों को देखते हुए इन्हें कई पुरस्कार मिले। इन्हें फ्रांस का लेजन डी ऑनर, जीवन की उपलब्धियों पर आस्कर और भारत रत्न सहित फिल्म जगत का हर महत्वपूर्ण सम्मान मिला। इनकी मृत्यु 1992 ई. में हुई।
● रचनाएँ-सत्यजीत राय फिल्म निर्देशक तो थे ही, वे बाल व किशोर साहित्य भी लिखते थे। इनकी रचनाएँ निम्न लिखित हैंप्रो. शंकु के कारनामे, सोने का किला, जहाँगीर की स्वर्ण मुद्रा, बादशाही अँगूठी आदि। (बांग्ला), शतरंज के खिलाडी, सद्गति (हिंदी)।
● साहित्यिक विशेषताएँ-सत्यजित राय ने तीस के लगभग फीचर फिल्में बनाई। इनकी ज्यादातर फिल्में साहित्यिक कृतियों पर आधारित हैं। इनके पसंदीदा साहित्यकारों में बांग्ला के विभूति भूषण बंद्योपाध्याय से लेकर हिदी के प्रेमचंद तक शामिल हैं। फिल्मों के पटकथा-लेखन, संगीत-संयोजन एवं निर्देशन के अलावा इन्होंने बांग्ला में बच्चों और किशोरों के लिए लेखन का काम भी बहुत संजीदगी के साथ किया है। इनकी कहानियों में जासूसी रोमांच के साथ-साथ पेड़-पौधे तथा पशु-पक्षियों का सहज संसार भी है।
पाठ का सारांश
अपू के साथ ढाई साल नामक संस्मरण पथेर पांचाली फिल्म के अनुभवों से संबंधित है जिसका निर्माण भारतीय फिल्म के इतिहास में एक बड़ी घटना के रूप में दर्ज है। इससे फिल्म के सृजन और उनके व्याकरण से संबंधित कई बारीकियों का पता चलता है। यही नहीं, जो फिल्मी दुनिया हमें अपने ग्लैमर से चुधियाती हुई जान पड़ती है, उसका एक ऐसा सच हमारे सामने आता है, जिसमें साधनहीनता के बीच अपनी कलादृष्टि को साकार करने का संघर्ष भी है। यह पाठ मूल रूप से बांग्ला भाषा में लिखा गया है जिसका अनुवाद विलास गिते ने किया है।
किसी फिल्मकार के लिए उसकी पहली फिल्म एक अबूझ पहेली होती है। बनने या न बन पाने की अमूर्त शंकाओं से घिरी। फिल्म पूरी होने पर ही फिल्मकार जन्म लेता है। पहली फिल्म के निर्माण के दौरान हर फिल्म निर्माता का अनुभव संसार इतना रोमांचकारी होता है कि वह उसके जीवन में बचपन की स्मृतियों की तरह हमेशा जीवंत बना रहता है। इस अनुभव संसार में दाखिल होना उस बेहतरीन फिल्म से गुजरने से कम नहीं है।
लेखक बताता है कि पथेर पांचाली फिल्म की शूटिंग ढाइ साल तक चली। उस समय वह विज्ञापन कंपनी में काम करता था। काम से फुर्सत मिलते ही और पैसे होने पर शूटिंग की जाती थी। शूटिंग शुरू करने से पहले कलाकार इकट्ठे करने के लिए बड़ा आयोजन किया गया। अपू की भूमिका निभाने के लिए छह साल का लड़का नहीं मिल रहा था। इसके लिए अखबार में विज्ञापन दिया। रासबिहारी एवेन्यू के एक भवन में किराए के कमरे पर बच्चे इंटरव्यू के लिए आते थे। एक सज्जन तो अपनी लड़की के बाल कटवाकर लाए थे। लेखक परेशान हो गया। एक दिन लेखक की पत्नी की नज़र पड़ोस में रहने वाले लड़के पर पड़ी और वह सुबीर बनर्जी ही ‘पथेर पांचाली’ में अपू बना।
फिल्म में अधिक समय लगने लगा तो लेखक को यह डर लगने लगा कि अगर अपू और दुर्गा नामक बच्चे बड़े हो गए तो दिक्कत हो जाएगी। सौभाग्य से वे नहीं बढ़े। फिल्म की शूटिंग के लिए वे पालसिट नामक गाँव गए। वहाँ रेल-लाइन के पास काशफूलों से भरा मैदान था। उस मैदान में शूटिंग शुरू हुई। एक दिन में आधी शूटिंग हुई। निर्देशक, छायाकार, कलाकार आदि सभी नए होने के कारण घबराए हुए थे। बाकी का सीन बाद में शूट करना था। सात दिन बाद वहाँ दोबारा पहुँचे तो काशफूल गायब थे। उन्हें जानवर खा गए। अत: आधे सीन की शूटिंग के लिए अगली शरद ऋतु की प्रतीक्षा करनी पड़ी।
अगले वर्ष शूटिंग हुई। उसी समय रेलगाड़ी के शॉट्स भी लिए गए। कई शॉट्स होने के लिए तीन रेलगाड़ियों से शूटिंग की गई। कलाकार दल का एक सदस्य पहले से ही गाड़ी के इंजन में सवार होता था ताकि वह शॉट्स वाले दृश्य में बायलर में कोयला डालता जाए और रेलगाड़ी का धुआँ निकलता दिख सके। सफेद काशफूलों की पृष्ठभूमि पर काला धुआँ अच्छा सीन दिखाता है। इस सीन को कोई दर्शक नहीं पहचान पाया।
लेखक को धन की कमी से कई समस्याएँ झेलनी पड़ीं। फिल्म में ‘भूलो’ नामक कुत्ते के लिए गाँव का कुत्ता लिया गया। दृश्य में कुत्ते को भात खाते हुए दिखाया जाना था, परंतु जैसे ही यह शॉट शुरू होने को था, सूरज की रोशनी व पैसे-दोनों ही खत्म हो गए। छह महीने बाद पैसे इकट्ठे करके बोडाल गाँव पहुँचे तो पता चला कि वह कुत्ता मर गया था। फिर भूलो जैसा दिखने वाला कुत्ता पकड़ा गया और उससे फिल्म की शूटिंग पूरी की गई। लेखक को आदमी के संदर्भ में भी यही समस्या हुई। फिल्म में मिठाई बेचने वाला है-श्रीनिवास। अपू व दुर्गा के पास पैसे नहीं थे। वे मुखर्जी के घर गए जो उससे मिठाई खरीदेंगे और बच्चे मिठाई खरीदते देखकर ही खुश होंगे। पैसे के अभाव के कारण दृश्य का कुछ अंश चित्रित किया गया। बाद में वहाँ पहुँचे तो श्रीनिवास का देहांत हो चुका था। किसी तरह उनके शरीर से मिलता-जुलता व्यक्ति मिला और उनकी पीठ वाले दृश्य से शूटिंग पूरी की गई।
श्रीनिवास के सीन में भूलो कुत्ते के कारण भी परेशानी हुई। एक खास सीन में दुर्गा व अपू को मिठाई वाले के पीछे दौड़ना होता है तथा उसी समय झुरमुट में बैठे भूलो कुत्ते को भी छलाँग लगाकर दौड़ना होता है। भूलो प्रशिक्षित नहीं था, अत: वह मालिक की आज्ञा को नहीं मान रहा था। अंत में दुर्गा के हाथ में थोड़ी मिठाई छिपा कुत्ते को दिखाकर दौड़ने की योजना से शूटिंग पूरी की गई।
बारिश के दृश्य चित्रित करने में पैसे का अभाव परेशान करता था। बरसात में पैसे नहीं थे। अक्टूबर में बारिश की संभावना कम थी। वे हर रोज देहात में बारिश का इंतजार करते। एक दिन शरद ऋतु में बादल आए और धुआँधार बारिश हुई। दुर्गा व अप्पू ने बारिश में भीगने का सीन किया। ठंड से दोनों काँप रहे थे, फिर उन्हें दूध में ब्रांडी मिलाकर पिलाई गई। बोडाल गाँव में अपू-दुर्गा का घर, स्कूल, गाँव के मैदान, खेत, आम के पेड़, बाँस की झुरमुट आदि मिले। यहाँ उन्हें कई तरह के विचित्र व्यक्ति भी मिले। सुबोध दा साठ वर्ष से अधिक के थे और झोंपड़ी में अकेले रहकर बड़बड़ाते रहते थे। फिल्मवालों को देखकर उन्हें मारने की कहने लगे। बाद में वे वायलिन पर लोकगीतों की धुनें बजाकर सुनाते थे। वे सनकी थे।
इसी तरह शूटिंग के साथ वाले घर में एक धोबी था जो पागल था। वह किसी समय राजकीय मुद्दे पर भाषण देने लगता था। शूटिंग के दौरान उसके भाषण साउंड के काम को प्रभावित करता था। पथेर पांचाली की शूटिंग के लिए लिया गया घर खंडहर था। उसे ठीक करवाने में एक महीना लगा। इस घर के कई कमरों में सामान रखा था तथा उन्हें फिल्म में नहीं दिखाया गया था। भूपेन बाबू एक कमरे में रिकॉर्डिंग मशीन लेकर बैठते थे। वे साउंड के बारे में बताते थे। एक दिन जब उनसे साउंड के बारे में पूछा गया तो आवाज नदारद थी। उनके कमरे से एक बड़ा साँप खिड़की से नीचे उतर रहा था। उनकी बोलती बंद थी। लोगों ने उसे मारने से रोका, क्योंकि वह वास्तुसर्प था जो बहुत दिनों से वहाँ रह रहा था।
शब्दार्थ
पृष्ठ संख्या 33
कालखंड-समय का एक हिस्सा। स्थगित-कुछ समय के लिए टालना। भाड़ा-किराया। इंटरव्यू-साक्षात्कार। नाजुक-कोमल।
पृष्ठ संख्या 34
विज्ञापन-इश्तहार। बेहाल-बुरा हाल। नामुमकिन-जो संभव न हो।
पृष्ठ संख्या 35
चित्रित-दिखाया गया। छायाकार-फोटो खींचने वाला। नवागत-नए आए हुए। बौराए हुए-घबराए हुए। कंटिन्युइटी-निरंतरता। नदारद-गायब। शॉट्स-दृश्य। केबिन-डब्बा। बॉयलर-रेल-इंजन में कोयला डालने वाला हिस्सा। अभाव-कमी।
पृष्ठ संख्या 36
निवाला-टुकड़ा। दुम-पूँछ छोर-किनारा।
पृष्ठ संख्या 37
संदर्भ-बारे में। उलझना-परेशान होना। पुकुर-सरोवर।
पृष्ठ संख्या 38
झुरमुट-झाड़ियाँ। हॉलीवुड-फिल्म उद्योग। जाया होना-खराब होना। धीरज-धैर्य। निरभ्र-बिना बादल के।
पृष्ठ संख्या 39
धुआँधार-बहुत तेज। आसरा-सहारा। ब्रांडी-शरीर को गरम रखने का पेय।
पृष्ठ संख्या 40
पाजी-दुष्ट। मुद्दा-विषय। आपति-परेशानी। सिरदर्द बनना-समस्या बनना। ध्वस्त-टूटा-फूटा।
पृष्ठ संख्या 41
रिकॉर्डिग मशीन-दृश्य व ध्वनि सुरक्षित रखने वाली मशीन। साउंड-रिकॉर्डिस्ट-आवाज़ सुरक्षित रखने वाली मशीन को चलाने वाला। सहम जाना-डर जाना। बोलती बंद होना-मुँह से आवाज़ न निकलना। वास्तुसर्प-घर में दिखाई देने वाला सर्प।
अर्धग्रहण संबंधी प्रश्न
1. रासबिहारी एवेन्यू की एक बिल्डिंग में मैंने एक कमरा भाड़े पर लिया था, वहाँ पर बच्चे इंटरव्यू के लिए आते थे। बहुत-से लड़के आए, लेकिन अपू की भूमिका के लिए मुझे जिस तरह का लड़का चाहिए था, वैसा एक भी नहीं था। एक दिन एक लड़का आया। उसकी गर्दन पर लगा पाउडर देखकर मुझे शक हुआ। नाम पूछने पर नाजुक आवाज़ में वह बोला-‘टिया’। उसके साथ आए उसके पिता जी से मैंने पूछा, ‘क्या अभी-अभी इसके बाल कटवाकर यहाँ ले आए हैं?” वे सज्जन पकड़े गए। सच छिपा नहीं सके बोले, ‘असल में यह मेरी बेटी है। अपू की भूमिका मिलने की आशा से इसके बाल कटवाकर आपके यहाँ ले आया हूँ।’ (पृष्ठ-33)
प्रश्न
- बच्चे इंटरव्यू के लिए कहाँ आते थे? क्यों?
- लखक की किसकी तलाश थी?
- फिल्मकार को किस बात पर शक हुआ
उत्तर-
- बच्चे इंटरव्यू के लिए रासबिहारी एवेन्यू की बिल्डिंग में आते थे। यहाँ पर लेखक किराए के एक कमरे में रहता था। बच्चे यहाँ अपू की भूमिका पाने के लिए इंटरव्यू देने आते थे।
- लेखक को एक ऐसा लड़का चाहिए था जो छह साल का हो तथा अपू की भूमिका के लिए उपयुक्त हो।
- फिल्मकार के पास एक लड़का आया जिसकी गर्दन पर पाउडर लगा हुआ था। उसने उस लड़के से नाम पूछा तो उसने नाजुक आवाज़ में जवाब देते हुए अपना नाम टिया बताया। इस पर फिल्मकार को शक हुआ कि कहीं वह लड़की तो नहीं है।
2. फिल्म का काम आगे भी ढाई साल चलने वाला है, इस बात का अंदाज़ा मुझे पहले नहीं था। इसलिए जैसे-जैसे दिन बीतने लगे, वैसे-वैसे मुझे डर लगने लगा। अपू और दुर्गा की भूमिका निभाने वाले बच्चे अगर ज्यादा बड़े हो गए, तो फिल्म में वह दिखाई देगा! लेकिन मेरी खुश किस्मती से उस उम्र में बच्चे जितने बढ़ते हैं, उतने अपू और दुर्गा की भूमिका निभाने वाला बच्चे नहीं बढ़े। इंदिरा ठाकरून की भूमिका निभाने वाली अस्सी साल उम्र की चुन्नीबाला देवी ढाई साल तक काम कर सकी, यह भी मेरे सौभाग्य की बात थी। (पृष्ठ-34)
प्रश्न
- फिल्मकार को किस बात का अदाज़ा नहीं था?
- फिल्मकार को कैसा डर सताने लगा था?
- चुन्नीबाला देवी कौन थी? लेखक के लिए सौभाग्य की बात क्या थी?
उत्तर-
- फिल्मकार को यह अंदाज़ा नहीं था कि उसकी फिल्म ढाई साल में पूरी होगी। उसे फिल्म निर्माण में आने वाली कठिनाइयों का अंदाज़ा नहीं था।
- जब फिल्म बनने में समय अधिक लगने लगा तो फिल्मकार को अपू और दुर्गा की भूमिका निभाने वाले बच्चों के बड़े होने का डर लगने लगा। इससे फिल्म में उनका रोल खत्म हो जाता और लेखक को दुबारा नए बच्चे (अपू और दुर्गा के रोल के लिए) खोजने पड़ते।
- चुन्नीबाला देवी अस्सी वर्ष की थी। उसने फिल्म में इंदिरा ठाकरुन की भूमिका निभाई। लेखक के लिए यह सौभाग्य था कि ढाई साल तक फिल्म का काम चला और चुन्नीबाला देवी की मृत्यु नहीं हुई।
3. सुबह शूटिंग शुरू करके शाम तक हमने सीन का आधा भाग चित्रित किया। निर्देशक, छायाकार, छोटे अभिनेता-अभिनेत्री हम सभी इस क्षेत्र में नवागत होने के कारण थोड़े बौराए हुए ही थे, बाकी का सीन बाद में चित्रित करने का निर्णय लेकर हम घर पहुँचे। सात दिन बाद शूटिंग के लिए उस जगह गए, तो वह जगह हम पहचान ही नहीं पाए! लगा. ये कहाँ आ गए हैं हम? कहाँ गए वे सारे काशफूल। बीच के सात दिनों में जानवरों ने वे सारे काशफूल खा डाले थे! अब अगर हम उस जगह बाकी आधे सीन की शूटिंग करते, तो पहले आधे सीन के साथ उसका मेल कैसे बैठता? उसमें से ‘कंटिन्युइटी’ नदारद हो जाती! (पृष्ठ-35)
प्रश्न
- पहले दिन सीन का आधा भाग चित्रित क्यों ही पाया?
- लेखक ने क्या निर्णय लिया? क्यों?
- काशफूलों के बिना शूटिंग करने में क्या कठिनाई थी?
उत्तर-
- फिल्मकार नया था। यह गाँव भी नया था। साथ ही छायाकार, छोटे अभिनेता-अभिनेत्री सभी नए थे। उन्हें अपने काम करने के स्थान का पता नहीं था। अत: उचित समन्वय के अभाव में आधा भाग ही चित्रित हो पाया।
- रेलगाड़ी का दृश्य लंबा था। दूसरे, काम करने वाले सभी व्यक्ति नए थे। अत: पूरा सीन एक बार में चित्रित नहीं हो सकता था। अत: लेखक ने शेष आधा सीन बाद में चित्रित करने का निर्णय लिया और वापिस लौट गए।
- लेखक यदि काशफूलों के बिना इस जगह पर आधे सीन की शूटिंग करते तो पहले वाले आधे सीन के साथ उसका मेल नहीं बैठ सकता था। सीन में निरंतरता नहीं रह पाती।
4. उस सीन के बाकी अंश की शूटिंग हमने उसके अगले साल शरद ऋतु में, जब फिर से वह मैदान काशफूलों से भर गया, तब की। उसी समय रेलगाड़ी के भी शॉट्स लिए। लेकिन रेलगाड़ी के इतने शॉट्स थे कि एक रेलगाड़ी से काम नहीं चला। एक के बाद एक तीन रेलगाड़ियों को हमने शूटिंग के लिए इस्तेमाल किया। सुबह से लेकर दोपहर तक कितनी रेलगाड़ियाँ उस लाइन पर से जाती हैं-यह पहले ही टाइम-टेबल देखकर जान लिया था। हर एक ट्रेन एक ही दिशा में आने वाली थी। जिस स्टेशन से वे रेलगाड़ियाँ आने वाली थीं, उस स्टेशन पर हमारी टीम के अनिल बाबू थे। रेलगाड़ी स्टेशन से निकलते समय अनिल बाबू भी इंजिन-ड्राइवर की केबिन में चढ़ते थे, क्योंकि गाड़ी के शूटिंग की जगह के पास आते ही बॉयलर में कोयला डालना ज़रूरी था, ताकि काला धुआँ निकले। सफ़ेद काशफूलों की पृष्ठभूमि पर अगर काला धुआँ नहीं आया, तो दृश्य कैसे अच्छा लगेगा? (पृष्ठ-35)
प्रश्न
- लेखक ने आधे सीन की शूटिंग कब की तथा क्यों?
- अनिल बाबू कहाँ रुके थे? वे इंजिन ड्राइवर के केबिन में क्यों चढ़ते थे?
- काले धुँए की जरूरत क्यों थी?
उत्तर-
- लेखक ने रेलगाड़ी वाले दृश्य का आधा भाग शरद ऋतु में शूट किया। इस समय यह मैदान काशफूलों से भर गया।इसके लिए पूरे साल भर इंतजार किया गया।
- अनिल बाबू उस स्टेशन पर रुके थे जहाँ से रेलगाड़ियाँ आने वाली थीं। वे इंजिन ड्राइवर के केबिन में चढ़ते थे, क्योंकि उन्हें गाड़ी के शूटिंग की जगह के समीप पहुँचते ही बॉयलर में कोयला डालना था ताकि काला धुआँ निकले।
- इंजन से काला धुआँ निकलना जरूरी था, क्योंकि सीन की पृष्ठभूमि सफेद काशफूलों की थी। ऐसी पृष्ठभूमि पर काले धुएँ से दृश्य अच्छा बनता है।
5. सचमुच! यह कुत्ता भूलो जैसा ही दिखता था। वह भूलो से बहुत ही मिलता-जुलता था। उसके शरीर का रंग तो भूलो जैसा बादामी था ही, उसकी दुम का छोर भी भूलो के दुम की छोर जैसा ही सफेद था। आखिर यह फेंका हुआ भात उसने खाया, और हमारे उस दृश्य की शूटिंग पूरी हुई। फिल्म देखते समय यह बात किसी के भी ध्यान में नहीं आती कि एक ही सीन में हमने ‘भूलो’ की भूमिका में दो अलग-अलग कुत्तों से काम लिया है! (पृष्ठ-36)
प्रश्न
- भूलों व इस कुत्ते में क्या समानता थी?
- भूलों की भूमिका में दो अलग-अलग कुत्तों से काम क्यों लेना पड़ा?
- फिल्म दखने से दर्शकों की किस बात का पता नहीं चला?
उत्तर-
- भूलो कुत्ते से गाँव का कुत्ता बहुत मिलता-जुलता था। उसके शरीर का रंग भूलो जैसा बादामी, दुम का छोर भी सफेद था। इस तरह दोनों में काफी समानता थी।
- ‘पथेर पांचाली’ उपन्यास में भूलो नामक कुत्ता था। लेखक ने गाँव के कुत्ते से भूलो के दृश्य फिल्माए। धन के अभाव के कारण छह महीने शूटिंग नहीं हुई। जब दोबारा शूटिंग करने गए तो पहले कुत्ते की मृत्यु हो गई थी। दृश्य को पूरा करने के लिए भूलो जैसा नया कुत्ता खोजा गया। अत: ‘भूलो’ की भूमिका में दो अलग-अलग कुत्तों से काम लेना पड़ा।
- फिल्म देखने से दर्शकों को यह नहीं पता चलता कि सीन में कुत्ता बदल दिया गया है। दोनों में इतनी समानता थी कि वे उनमें अंतर महसूस नहीं कर पाते।
6. हमें ऐसा सीन लेना था, लेकिन मुश्किल यह कि यह कुत्ता कोई हॉलीवुड का सिखाया हुआ नहीं था। इसलिए यह बताना मुश्किल ही था कि वह अपू-दुर्गा के साथ भागता जाएगा या नहीं। कुत्ते के मालिक से हमने कहा था, ‘अपू-दुर्गा जब भागने लगते हैं, तब तुम अपने कुत्ते को उन दोनों के पीछे भागने के लिए कहना।’ लेकिन शूटिंग के वक्त दिखाई दिया कि वह कुत्ता मालिक की आज्ञा का पालन नहीं कर रहा है। इधर हमारा कैमरा चालू ही था। कीमती फिल्म ज़ाया हो रही थी और मुझे बार-बार चिल्लाना पड़ रहा था-‘कट्! कट्!’ अब यहाँ धीरज रखने के सिवा दूसरा उपाय नहीं था। अगर कुत्ता बच्चों के पीछे दौड़ा, तो ही वह उनका पालतू कुत्ता लग सकता था। आखिर मैंने दुर्गा से अपने हाथ में थोड़ी मिठाई छिपाने के लिए कहा, और वह कुत्ते को दिखाकर दौड़ने को कहा। इस बार कुत्ता उनके पीछे भागा, और हमें हमारी इच्छा के अनुसार शॉट मिला। (पृष्ठ-38)
प्रश्न
- ‘कुत्ता’ का हॉलीवुड का सिखाया हुआ नहीं था का क्या तात्पर्य है?
- लेखक को बार-बार चिल्लाना क्यों पड़ रहा था?
- लेखक ने अपनी इच्छा के अनुसार शॉट कैसे लिया?
उत्तर-
- लेखक के कहने का तात्पर्य है कि हॉलीवुड में जानवरों को प्रशिक्षित करके ही उनका प्रयोग किया जाता है। इससे वे ट्रेनर की आज्ञा का पालन करते हैं, परंतु लेखक के पास ऐसी कोई सुविधा नहीं थी। उसे गाँव के स्थानीय कुत्ते से फिल्म की शूटिंग पूरी करनी थी। अत: उस कुत्ते से इच्छित कार्य नहीं करवाया जा सकता।
- लेखक कुत्ते के भागने का सीन शूट कर रहा था, परंतु कुत्ता वांछित प्रतिक्रिया ही नहीं दिखा रहा था। कैमरा चालू होने से कीमती फिल्म की बर्बादी हो रही थी। इस कारण लेखक को बार-बार ‘कट-कट’ चिल्लाना पड़ रहा था।
- ‘भूलो’ कुत्ता अपू व दुर्गा के पीछे नहीं दौड़ रहा था। अंत में लेखक ने दुर्गा से अपने हाथ में थोड़ी मिठाई छिपाने तथा कुत्ते को दिखाकर दौड़ने को कहा। यह युक्ति काम आई और लेखक को अपनी इच्छानुसार शॉट मिल गया।
7. पैसों की कमी के कारण ही बारिश का दृश्य चित्रित करने में बहुत मुश्किल आई थी। बरसात के दिन आए और गए, लेकिन हमारे पास पैसे नहीं थे, इस कारण शूटिंग बंद थी। आखिर जब हाथ में पैसे आए, तब अक्टूबर का महीना शुरू हुआ था। शरद ऋतु में, निरभ्र आकाश के दिनों में भी शायद बरसात होगी, इस आशा से मैं अपू और दुर्गा की भूमिका करने वाले बच्चे, कैमरा और तकनीशियन को साथ लेकर हर रोज़ देहात में जाकर बैठा रहता था। आकाश में एक भी काला बादल दिखाई दिया, तो मुझे लगता था कि बरसात होगी। मैं इच्छा करता, वह बादल बहुत बड़ा हो जाए और बरसने लगे। (पृष्ठ-38-39)
प्रश्न
- लंखक के सामने क्या समस्य थी?
- लेखक हर रोज देहात में क्यों जाकर बैठता था?
- लखक प्रकृति के नियम के विपरीत क्या कामना कर रहा था और क्यों?
उत्तर-
- लेखक के पास पैसे की कमी थी और उसे बारिश का दृश्य चित्रित करना था। बरसात के मौसम में पैसे न होने के कारण वह शूटिंग न कर पाया।
- . लेखक को बारिश का दृश्य शूट करना था। अक्टूबर में पैसे होने के बाद वह कलाकारों व तकनीशियन के साथ देहात में जाकर बैठ जाता और बारिश का इंतजार करता।
- लेखक प्रकृति के नियम के विपरीत यह कामना कर रहा था कि अक्टूबर महीने में बारिश हो जाए, जबकि वर्षा के मुख्य महीने जुलाई, अगस्त और सितंबर माने जाते हैं, जब भरपूर वर्षा होती है। वह ऐसा इसलिए चाह रहा था, क्योंकि उसे अपनी फिल्म पूरी करनी थी और वर्षा ऋतु में उसके पास रुपये न थे।
पाठ्यपुस्तक से हल प्रश्न
पाठ के साथ
प्रश्न 1:
पथेर पांचाली फिल्म की शूटिंग का काम ढाई साल तक क्यों चला?
उत्तर-
‘पथेर पांचाली’ फ़िल्म की शूटिंग का काम ढाई साल तक चला। इसके कारण निम्नलिखित थे
(क) लेखक को पैसे का अभाव था। पैसे इकट्ठे होने पर ही वह शूटिंग करता था।
(ख) वह विज्ञापन कंपनी में काम करता था। इसलिए काम से फुर्सत होने पर ही लेखक तथा अन्य कलाकार फिल्म का काम करते थे।
(ग) तकनीक के पिछड़ेपन के कारण पात्र, स्थान, दृश्य आदि की समस्याएँ आ जाती थीं।
प्रश्न 2:
अब अगर हम उस जगह बाकी आधे सीन की शूटिंग करते, तो पहले आधे सीन के साथ उसका मेल कैसे बैठता? उसमें से ‘कंटिन्युइटी’ नदारद हो जाती-इस कथन के पीछे क्या भाव है?
उत्तर-
इसके पीछे भाव यह है कि कोई भी फिल्म हमें तभी प्रभावित कर पाती है जब उसमें निरंतरता हो। यदि एक दृश्य में ही एकरूपता नहीं होती तो फिल्म कैसे चल पाती। दर्शक भ्रमित हो जाता है। पथेर पांचाली फ़िल्म में काशफूलों के साथ शूटिंग पूरी करनी थी, परंतु एक सप्ताह के अंतराल में पशु उन्हें खा गए। अत: उसी पृष्ठभूमि में दृश्य चित्रित करने के लिए एक वर्ष तक इंतजार करना पड़ा। यदि यह आधा दृश्य काशफूलों के बिना चित्रित किया जाता तो दृश्य में निरंतरता नहीं बन पाती।
प्रश्न 3:
किन दो दृश्यों में दर्शक यह पहचान नहीं पाते कि उनकी शूटिंग में कोई तरकीब अपनाई गई है?
उत्तर-
प्रथम दृश्य-इस दृश्य में ‘भूलो’ नामक कुत्ते को अपू की माँ द्वारा गमले में डाले गए भात को खाते हुए चित्रित करना था, परंतु सूर्य के अस्त होने तथा पैसे खत्म होने के कारण यह दृश्य चित्रित न हो सका। छह महीने बाद लेखक पुन: उस स्थान पर गया तब तक उस कुत्ते की मौत हो चुकी थी। काफी प्रयास के बाद उससे मिलता-जुलता कुत्ता मिला और उसी से भात खाते हुए दृश्य को फ़िल्माया गया। यह दृश्य इतना स्वाभाविक था कि कोई भी दर्शक उसे पहचान नहीं पाया।
दूसरा दृश्य-इस दृश्य में श्रीनिवास नामक व्यक्ति मिठाई वाले की भूमिका निभा रहा था। बीच में शूटिंग रोकनी पड़ी। दोबारा उस स्थान पर जाने से पता चला कि उस व्यक्ति का देहांत हो गया है, फिर लेखक ने उससे मिलते-जुलते व्यक्ति को लेकर बाकी दृश्य फ़िल्माया। पहला श्रीनिवास बाँस वन से बाहर आता है और दूसरा श्रीनिवास कैमरे की ओर पीठ करके मुखर्जी के घर के गेट के अंदर जाता है। इस प्रकार इस दृश्य में दर्शक अलग-अलग कलाकारों की पहचान नहीं पाते।
प्रश्न 4:
‘भूलो’ की जगह दूसरा कुत्ता क्यों लाया गया? उसने फिल्म के किस दृश्य को पूरा किया?
उत्तर-
भूलो की मृत्यु हो गई थी, इस कारण उससे मिलता-जुलता कुत्ता लाया गया। फ़िल्म का दृश्य इस प्रकार था कि अप्पू की माँ उसे भात खिला रही थी। अपू तीर-कमान से खेलने के लिए उतावला है। भात खाते-खाते वह तीर छोड़ता है तथा उसे लाने के लिए भाग जाता है। माँ भी उसके पीछे दौड़ती है। भूलो कुत्ता वहीं खड़ा सब कुछ देख रहा है। उसका ध्यान भात की थाली की ओर है। यहाँ तक का दृश्य पहले भूलो कुत्ते पर फ़िल्माया गया था। इसके बाद के दृश्य में अपू की माँ बचा हुआ भात गमले में डाल देती है और भूलो वह भात खा जाता है। यह दृश्य दूसरे कुत्ते से पूरा किया गया।
प्रश्न 5:
फिल्म में श्रीनिवास की क्या भूमिका थी और उनसे जुड़े बाकी दृश्यों को उनके गुजर जाने के बाद किस प्रकार फिल्माया गया?
उत्तर-
फिल्म में श्रीनिवास की भूमिका मिठाई बेचने वाले की थी। उसके देहांत के बाद उसकी जैसी कद-काठी का व्यक्ति ढूँढ़ा गया। उसका चेहरा अलग था, परंतु शरीर श्रीनिवास जैसा ही था। ऐसे में फ़िल्मकार ने तरकीब लगाई। नया – आदमी कैमरे की तरफ पीठ करके मुखर्जी के घर के गेट के अंदर आता है, अत: कोई भी अनुमान नहीं लगा पाता कि यह अलग व्यक्ति है।
प्रश्न 6:
बारिश का दृश्य चित्रित करने में क्या मुश्किल आई और उसका समाधान किस प्रकार हुआ?
उत्तर-
फ़िल्मकार के पास पैसे का अभाव था, अत: बारिश के दिनों में शूटिंग नहीं कर सके। अक्टूबर माह तक उनके पास पैसे इकट्ठे हुए तो बरसात के दिन समाप्त हो चुके थे। शरद ऋतु में बारिश होना भाग्य पर निर्भर था। लेखक हर रोज अपनी टीम के साथ गाँव में जाकर बैठे रहते और बादलों की ओर टकटकी लगाकर देखते रहते। एक दिन उनकी इच्छा पूरी हो गई। अचानक बादल छा गए और धुआँधार बारिश होने लगी। फिल्मकार ने इस बारिश का पूरा फायदा उठाया और दुर्गा और अपू का बारिश में भीगने वाला दृश्य शूट कर लिया। इस बरसात में भीगने से दोनों बच्चों को ठंड लग गई, परंतु दृश्य पूरा हो गया।
प्रश्न 7:
किसी फिल्म की शूटिंग करते समय फिल्मकार को जिन समस्याओं का सामना करना पड़ता है, उन्हें सूचीबदध कीजिए।
उत्तर-
किसी फ़िल्म की शूटिंग करते समय फिल्मकार को निम्नलिखित समस्याओं का सामना करना पड़ता है-
(क) धन की कमी।
(ख) कलाकारों का चयन।
(ग) कलाकारों के स्वास्थ्य, मृत्यु आदि की स्थिति।
(घ) पशु-पात्रों के दृश्य की समस्या।
(ङ) बाहरी दृश्यों हेतु लोकेशन ढूँढ़ना।
(च) प्राकृतिक दृश्यों के लिए मौसम पर निर्भरता।
(छ) स्थानीय लोगो का हस्तक्षेप व असहयोग।
(ज) संगीत।
(झ) दृश्यों की निरंतरता हेतु भटकना।
पाठ के आस-पास
प्रश्न 1:
तीन प्रसंगों में राय ने कुछ इस तरह की टिप्पणियाँ की हैं कि दशक पहचान नहीं पाते कि… या फिल्म देखते हुए इस ओर किसी का ध्यान नहीं गया कि. इत्यादि। ये प्रसंग कौन से हैं, चर्चा करें और इस पर भी विचार करें कि शूटिंग के समय की असलियत फिल्म को देखते समय कैसे छिप जाती है।
उत्तर-
फ़िल्म शूटिंग के समय तीन प्रसंग प्रमुख हैं-
(क) भूलो कुत्ते के स्थान पर दूसरे कुत्ते को भूलो बनाकर प्रस्तुत किया गया।
(ख) एक रेलगाड़ी के दृश्य को तीन रेलगाड़ियों से पूरा किया गया ताकि धुआँ उठने का दृश्य चित्रित किया जा सके। यह दृश्य काफी बड़ा था।
(ग) श्रीनिवास का पात्र निभाने वाले व्यक्ति की मृत्यु हो गई थी। अत: उसके स्थान पर मिलती-जुलती कद-काठी वाले व्यक्ति से मिठाई वाला दृश्य पूरा करवाया गया। हालाँकि उसकी पीठ दिखाकर काम चलाया गया।
शूटिंग के समय अनेक तरह की दिक्कतें आती हैं, परंतु निरंतरता बनाए रखने के लिए बनावटी दृश्य डालने पड़ते हैं। दर्शक फ़िल्म के आनंद में डूबा होता है, अत: उसे छोटी-छोटी बारीकियों का पता नहीं चल पाता।
प्रश्न 2:
मान लीजिए कि आपको अपने विदयालय पर एक डॉक्यूमैंट्री फिल्म बनानी है। इस तरह की फिल्म में आप किस तरह के दृश्यों को चित्रित करेंगे? फिल्म बनाने से पहले और बनाते समय किन बातों पर ध्यान देंगे?
उत्तर-
विद्यार्थी स्वयं करें।
प्रश्न 3:
पथेर पांचाली फ़िल्म में इंदिरा ठाकरुन की भूमिका निभाने वाली अस्सी साल की चुन्नीबाला देवी ढाई साल तक काम कर सकीं। यदि आधी फिल्म बनने के बाद चुन्नीबाला देवी की अचानक मृत्यु हो जाती तो सत्यजित राय क्या करते? चर्चा करें।
उत्तर-
यदि इंदिरा ठाकरुन की भूमिका निभाने वाली अस्सी साल की चुन्नीबाला देवी की मृत्यु हो जाती तो सत्यजित राय उससे मिलती-जुलती शक्ल की वृद्धा को ढूँढ़ते। यदि वह संभव नहीं हो पाता तो संकेतों के माध्यम से इस फिल्म में उसकी मृत्यु दिखाई जाती। कहानी में बदलाव किया जा सकता था।
प्रश्न 4:
पठित पाठ के आधार पर यह कह पाना कहाँ तक उचित है कि फिल्म को सत्यजित राय एक कला-माध्यम के रूप में देखते हैं, व्यावसायिक-माध्यम के रूप में नहीं?
उत्तर-
यह बात पूर्णतया उचित है कि फ़िल्म को सत्यजित राय एक कला-माध्यम के रूप में देखते हैं, व्यावसायिक-माध्यम के रूप में नहीं। वे फिल्मों के दृश्यों के संयोजन में कोई लापरवाही नहीं बरतते। वे दृश्य को पूरा करने के लिए समय का इंतजार करते हैं। काशफूल वाले दृश्य में उन्होंने साल भर इंतजार किया। पैसे की तंगी के कारण वे परेशान हुए, परंतु उन्होंने किसी से पैसा नहीं माँगा। वे स्टूडियो के दृश्य की बजाय प्राकृतिक दृश्य फिल्माते थे। वे कला को साधन मानते थे।
भाषा की बात
प्रश्न 1:
पाठ में कई स्थानों पर तत्सम, तदभव, क्षेत्रीय सभी प्रकार के शब्द एक साथ सहज भाव से आए हैं। ऐसी भाषा का प्रयोग करते हुए अपनी प्रिय फिल्म पर एक अनुच्छेद लिखें।
उत्तर-
विद्यार्थी स्वयं करें।
प्रश्न 2:
हर क्षेत्र में कार्य करने या व्यवहार करने की अपनी निजी या विशिष्ट प्रकार की शब्दावली होती है। जैसे अपू के साथ ढाई साल पाठ में फिल्म से जुड़े शब्द शूटिंग, शॉट, सीन आदि। फिल्म से जुड़ी शब्दावली में से किन्हीं दस की सूची बनाइए।
उत्तर-
ग्लैमर, लाइट्स, सीन, रिकार्डिंग, कैमरा, फिल्म, हॉलीवुड, कट, अभिनेता, एक्शन, डबिंग, रोल।
प्रश्न 3:
नीचे दिए गए शब्दों के पर्याय इस पाठ में ढूँढ़िए और उनका वाक्यों में प्रयोग कीजिए-
इश्तहार, खुशकिस्मती, सीन, वृष्टि, जमा
उत्तर-
(क) इश्तहार-विज्ञापन-आजकल अभिनेता व खिलाड़ी विज्ञापनों में छाए रहते हैं।
(ख) खुशकिस्मती-सौभाग्य-यह मेरा सौभाग्य है कि आप हमारे घर पधारे।
(ग) सीन-दृश्य-वाह! क्या दृश्य है।
(घ) वृष्टि-बारिश-मुंबई की बारिश ने प्रशासन की पोल खोल दी।
(ङ) जमा-इकट्ठा-सामान इकट्ठा कर ली, कल हरिद्वार जाना है।
अन्य हल प्रश्न
● बोधात्मक प्रशन
प्रश्न 1:
‘ अपू के साथ ढाई साल ‘ संस्मरण का प्रतिपादय बताइए।
उत्तर-
अपू के साथ ढाई साल नामक संस्मरण पथेर पांचाली फ़िल्म के अनुभवों से संबंधित है जिसका निर्माण भारतीय फ़िल्म के इतिहास में एक बड़ी घटना के रूप में दर्ज है। इससे फ़िल्म के सृजन और उनके व्याकरण से संबंधित कई बारीकियों का पता चलता है। यही नहीं, जो फ़िल्मी दुनिया हमें अपने ग्लैमर से चुधियाती हुई जान पड़ती है, उसका एक ऐसा सच हमारे सामने आता है, जिसमें साधनहीनता के बीच अपनी कलादृष्टि को साकार करने का संघर्ष भी है। यह पाठ मूल रूप से बांग्ला भाषा में लिखा गया है जिसका अनुवाद विलास गिते ने किया है।
किसी फिल्मकार के लिए उसकी पहली फ़िल्म एक अबूझ पहेली होती है। बनने या न बन पाने की अमूर्त शंकाओं से घिरी। फ़िल्म पूरी होने पर ही फ़िल्मकार जन्म लेता है। पहली फ़िल्म के निर्माण के दौरान हर फ़िल्म निर्माता का अनुभव संसार इतना रोमांचकारी होता है कि वह उसके जीवन में बचपन की स्मृतियों की तरह हमेशा जीवंत बना रहता है। इस अनुभव संसार में दाखिल होना उस बेहतरीन फ़िल्म से गुजरने से कम नहीं है।
प्रश्न 2:
‘वास्तुसर्प’ क्या होता है? इससे लेखक का कार्य कब प्रभावित हुआ?
उत्तर-
वास्तुसर्प वह होता है जो घर में रहता है। लेखक ने एक गाँव में मकान शूटिंग के लिए किराये पर लिया। इसी मकान के कुछ कमरों में शूटिंग का सामान था। एक कमरे में साउंड रिकार्डिग होती थी जहाँ भूपेन बाबू बैठते थे। वे साउंड की गुणवत्ता बताते थे। एक दिन उन्होंने उत्तर नहीं दिया। जब लोग कमरे में पहुँचे तो साँप, कमरे की खिड़की से नीचे उतर रहा था। इसी डर से भूपेन ने जवाब नहीं दिया।
प्रश्न 3:
सत्यजित राय को कौन-सा गाँव सर्वाधिक उपयुक्त लगा तथा क्यों?
उत्तर-
सत्यजित राय को बोडाल गाँव शूटिंग के लिए सबसे उपयुक्त लगा। इस गाँव में अपू-दुर्गा का घर, अपू का स्कूल, गाँव के मैदान, खेत, आम के पेड़, बाँस की झुरमुट आदि सब कुछ गाँव में या आसपास मिला।
प्रश्न 4:
लेखक को धोबी के कारण क्या परेशानी होती थी?
उत्तर-
लेखक बोडाल गाँव के जिस घर में शूटिंग करता था, उसके पड़ोस में एक धोबी रहता था। वह अकसर ‘भाइयो और बहनो!’ कहकर किसी राजनीतिक मामले पर लंबा-चौड़ा भाषण शुरू कर देता था। शूटिंग के समय उसके भाषण से साउंड रिकार्डिग का काम प्रभावित होता था। धोबी के रिश्तेदारों ने उसे सँभाला।
प्रश्न 5:
पुराने मकान में शूटिंग करते समय फिल्मकार को क्या-क्या कठिनाइयाँ आई?
उत्तर-
पुराने मकान में शूटिंग करते समय फ़िल्मकार को निम्नलिखित कठिनाइयाँ आई-
(क) पुराना मकान खंडहर था। उसे ठीक कराने में काफी पैसा खर्च हुआ और एक महीना का वक्त लगा।
(ख) मकान के एक कमरे में साँप निकल आया जिसे देखकर आवाज रिकार्ड करने वाले की बोलती बंद हो गई।
प्रश्न 6:
‘सुबोध दा’ कौन थे? उनका व्यवहार कैसा था?
उत्तर-
‘सुबोध दा’ 60-65 आयु का विक्षिप्त वृद्ध था। वह हर वक्त कुछ-न-कुछ बड़बड़ाता रहता था। पहले वह फ़िल्मवालों को मारने दौड़ता है, परंतु बाद में वह लेखक को वायलिन पर लोकगीतों की धुनें सुनाता है। वह आते-जाते व्यक्ति को रुजवेल्ट, चर्चिल, हिटलर, अब्दुल गफ्फार खान आदि कहता है। उसके अनुसार सभी पाजी और उसके दुश्मन हैं।
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